बापू की 150वीं जयंती पर गांधी को कितना जानते हैं हम

Update: 2018-10-02 18:17 GMT

आज अगर गांधी होते तो वो जरूर भीड़तंत्र की मानसिकता लिए लोगों से आह्वान करते और सत्याग्रह करते...

गौरव कुमार का विश्लेषण

कुछ लोग उन्हें महात्मा कहने से एतराज करते हैं, कुछ लोग उन्हें राष्ट्रपिता कहे जाने पर आपत्ति दर्ज करते हैं। इससे आगे 30 जनवरी 1950 को राष्ट्रपिता कहे जाने वाले गांधी की हत्या कर दी। हत्या का दोषी खुद को कट्टर हिन्दू कहता था, वो भी तब जब वह 79 साल का बुजुर्ग हिन्दू धर्म का अनुयायी था, वह भी अपनी धर्मनिरपेक्ष सोच के साथ। यहां तक कि उनके मुख से अंतिम शब्द भी "हे राम" सुना गया।

जब हम 150वीं जयंती का जश्न मना रहे हैं तो जेहन में एक सवाल आता है हम उनको कितना समझ पाए हैं। महज सड़कों पर पड़े कचरे के आगे 5 लोग एक साथ झाड़ू लेकर एक कैमरे के आगे खड़े होकर गांधी को ठीक से याद कर पा रहे हैं या जब साफ सड़क पर कचरा ढूंढ़कर उसके लिए दौड़ लगाने में इतिश्री कर लेते हैं।

सोचना चाहिए कि आज अगर बापू होते तो क्या करते, वो किस तरफ खड़े होते? वह बापू जो लोकतंत्र का मतलब अग्रिम पंक्ति से नहीं, बल्कि पिछली पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति तक लाभ पहुंचाने से समझते थे। अंत्योदय की कल्पना करने वाले गांधी आज गरीबी की विशाल पंक्तियों के लिए क्या कुछ करते!

वो व्यक्ति जिसने सावर्जनिक मंचों से पिछड़े तबके से लेकर अल्पसंख्यक तबके तक का खुलकर साथ दिया यह कहते हुए कि "यह देश जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों, यहूदियों, हिंदुस्तानी ईसाइयों, मुसलमानों और दूसरे गैर-हिंदुओं का भी है। आज़ाद हिंदुस्तान में राज हिंदुओं का नहीं, बल्कि हिंदुस्तानियों का होगा और वह किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बिना किसी धार्मिक भेदभाव के निर्वाचित समूची जनता के प्रतिनिधियों पर आधारित होगा।"

आज जब हर तरफ नफरत का माहौल पैदा किया जा रहा है, चाहे वह सड़क हो या सोशल मीडिया जिसके परिणामस्वरूप भीड़ द्वारा हत्या की घटनाएं बढ़ी हैं, तो हमें गांधी के उन कथनों को भी याद करने की जरूरत है, जब वह अपने अखबार हरिजन पत्र में लिखते हैं।

गांधी जो धर्मपरायण हिंदू थे, उन्होंने बिल्कुल स्पष्टता के साथ लिखा कि "धर्म एक निजी विषय है, जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए। विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पैदा हो गई है, उसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने अस्वाभाविक विभाग (विभाजन) हो गए हैं। जब देश से विदेशी हुकूमत उठ जाएगी तो हम इन झूठे नारों और आदर्शों से चिपके रहने की अपनी इस बेवकूफी पर खुद हंसेंगे। अगर अंग्रेजों की जगह देश में हिंदुओं की या दूसरे किसी संप्रदाय की हुकूमत ही कायम होने वाली हो तो अंग्रेजों को निकाल बाहर करने की पुकार में कोई बल नहीं रह जाता। वह स्वराज्य नहीं होगा।"

आज अगर गांधी होते तो वो जरूर भीड़तंत्र की मानसिकता लिए लोगों से आह्वान करते और सत्याग्रह करते। सत्याग्रह को वह ऐसा साधन मानते थे, जिसका सीधा अर्थ भीतर की छिपी बुराई को दूर कर सत्य की खोज में लग जाना था फिर चाहे वो 1930 के दशक में औपनिवेशिक ताकतों के खिलाफ संघर्ष की बात हो या आज के दौर में बढ़ती हिंसा की बात।

आज जिस स्वच्छता के सन्देश को जोरों से उठाया जा रहा है, वो कहीं न कहीं गांधी का मतलब सीमित कर देता है, वह ऐसे में अहिंसा और सत्याग्रह को अपने मे छिपा लेता है। आज के वक़्त में विचारों की स्वच्छता और स्वच्छ समाज की आवश्यकता पर ज्यादा जोर दिए जाने की जरूरत है, जो गांधी के मार्ग को प्रशस्त करता है।

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