मोदी ने यों ही नहीं दिखाई थी गोरक्षकों के खिलाफ सख्ती

Update: 2017-07-28 09:53 GMT

नीतीश कुमार और मोदी के बीच चार महीने से पक रही जिस खिचड़ी की बात राहुल गांधी कर रहे हैं, दरअसल वह इसी आंच पर पकी थी

वीएन राय, पूर्व आइपीएस

कौन नहीं जानता कि लालू अपने परिवार से और नीतीश अपने सरकार मोह से ऊपर नहीं उठ सकते. ऐसे में राहुल गांधी के बयान पर कि उन्हें नीतीश की भाजपा के साथ जाने की मंशा का महीनों से अंदेशा था, पर हंसने वालों पर हंसा ही जा सकता है.

अब जरा गौर कीजिये बिहार में एक साथ इस ‘सत्ता पलट और सत्ता कायम’ प्रसंग के दूसरे सूत्रधार, प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने संसद के मानसून अधिवेशन के पूर्व क्या कहा था.

उन्होंने अचानक देश भर में गौ रक्षकों के मुसलमानों और दलितों पर हमलों के सन्दर्भ में राज्यों को कड़ी कार्यवाही का सार्वजनिक निर्देश दे डाला. यही नहीं, तुरंत बाद, स्वयं आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत से गौ रक्षा में हिंसा को लेकर असहमति के सुर सुनवाये गए. यह सब, अब स्पष्ट है, नीतीश कुमार की लालू की पीठ में छुरा भोंकने के बाद ‘डैमेजकण्ट्रोल’ की तैयारी का हिस्सा था.

शुरू से नीतीश की राजनीतिक यूएसपी रही है उनकी भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता के विरुद्ध खड़े रहने की छवि. भाजपा के साथ आने के लिए उन्हें अपनी यूएसपी से समझौता करने के आरोपों की चिंता होना स्वाभाविक रहा होगा.

लालू परिवार पर सीबीआई और ईडी के छापों और केसों से नीतीश के हक़ में भ्रष्टाचार का मसला तो गर्म हो गया, लेकिन 2002 के गुजरात नरसंहार के सन्दर्भ में मोदी को हिटलर तक कह चुके नीतीश की समस्या थी, भाजपा की वर्तमान की तमाम नग्न साम्प्रदायिक कवायदें.

यहाँ वर्षों से बेसुध अचेत पड़े अटल बिहारी वाजपेयी का सचेत इस्तेमाल किया गया. गौर कीजिये, मौजूदा प्रकरण में जैसे ही ‘सांप्रदायिक’ मोदी से हाथ मिलाने को लेकर नीतीश पर बाहर-भीतर से चौतरफा, हल्ला बोला गया, उनके प्रवक्ताओं ने वाजपेयी काल के भाजपा और जेडीयू समीकरण का राग अलापना शुरू कर दिया.

क्या है यह समीकरण? नीतीश के वरिष्ठतम पैरोकार केसी त्यागी के अनुसार नीतीश की भाजपा में ‘घर वापसी’ की इस मुहिम में यह समझ निहित है कि धारा 377, तीन तलाक और राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद जैसे मसलों पर जेडीयू का सेक्युलर पक्ष पहले जैसा ही रहेगा और मोदी के नेतृत्व में भाजपा का रवैया वाजपेयी कालीन समावेशी ही रहेगा.

हाल में, दिल्ली में, राष्ट्रपति जैसे गैर राजनीतिक पद के शपथ ग्रहण समारोह में भाजपा सांसदों ने ‘जय श्री राम’ के नारे लगाए थे. वहीँ पटना में नीतीश के सुशील मोदी के साथ भाजपाई गठबंधन की सरकार के शपथ ग्रहण के अवसर पर ‘विकास’ के नारे लगे. तो क्या मोदी और उनकी भाजपा, नीतीश की आभा में रातों-रात सेक्युलर हो गयी? या त्यागी जैसे नेता झूठ पर झूठ बोल रहे हैं.

दरअसल,नीतीश और मोदी के गठबंधन को समझने की कुंजी गुजरात विधानसभा के सर पर खड़े चुनाव में छिपी है. मोदी के लिए यह चुनाव जीतना प्राण-प्रतिष्ठा का प्रश्न है.कोविंद को राष्ट्रपति बनाना औरशंकर सिंह वाघेला का कांग्रेस छोड़ना,इसी कड़ी में देखे जा रहे हैं. इसीतर्ज पर नीतीशकी‘घर वापसी’को भी गुजरात चुनाव से जोड़ कर देखना होगा.

नीतीश को भी पता था कि यह अवसर उन्हें मोदी से मुंह-माँगी कीमत दिला सकता है. लालू की धौंसपट्टी से छुटकारा और मुख्यमंत्री की कुर्सी की गारंटी, और क्या चाहिए भला! यूपीए गठबंधन ने उन्हें लाख हाथ पैर मारने पर भी,अपना प्रधानमन्त्री पद का चेहरा घोषित नहीं कियाथा. लिहाजा, सत्ता सन्दर्भ में उनके लिए खोने को था भी क्या?

क्या नीतीश का आकलन सही बैठेगा? इसमें संदेह है. बिहार के वोटर के सामने वे एक बिकाऊ राजा साबित हुए हैं. इसी तरह, भाजपा के लिए भी‘ हिंदुत्व कार्ड’ को एक लम्बे अंतराल तक राजनीतिक गड्डी में रखना संभव नहीं. लगता है,नीतीश ने बेशक फिलहाल अपनी राजनीतिक कीमत वसूल ली हो पर भविष्य में अपने बिकने की क्षमता पर भारी चोट की कीमत पर.

पहली बार,नीतीश के राजनीतिक जीवन में उन्हें जिम्मेदार राजनीतिक हल्कों में ‘धोखेबाज’ की संज्ञा दी जा रही है. यही नहीं, बिहार में लालू यादव को उनका पुराना एमवाई यानी मुस्लिम-यादव वोट बैंक सम्पूर्णवापस मिल गया है.

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