जब रोम जल रहा था तब नीरो तो केवल बंसी ही बजा रहा था, यहाँ तो जलते देश में लोगों को नए नारे दिए जाते हैं, सब्जबाग दिखाए जाते हैं, प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री तक अपनी ही चालीसा गाने लगते हैं...
महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
दुबारा चुनाव जीतने के तुरंत बाद बनारस पहुंचकर मोदी जी ने 5 ख़रब की अर्थव्यवस्था पर प्रश्न करने वालों को पेशेवर निराशावादी करार दिया था। इसके बाद लगातार डूबती अर्थव्यवस्था से ध्यान भटकाने के लिए सरकार द्वारा और मीडिया द्वारा बहुत कुछ किया जा चुका है। अर्थव्यवस्था पर प्रधानमंत्री या वित्त मंत्री को छोड़कर किसी और के वक्तव्य किसी टीवी चैनेल पर नहीं आते। दिनभर ये चैनेल कश्मीर की तथाकथित सामान्य हालत या फिर पाकिस्तान के समाचार से हमारा पेट भरते रहते हैं।
अब एनआरसी के समाचार हैं। दरअसल पेशेवर निराशावादी वे लोग होते हैं जो समस्या से मुंह फेर कर बैठे होते हैं और वर्तमान सरकार पूरी तरह से ऐसे लोगों से भरी पड़ी है। ये लोग केवल पेशेवर निराशावादी ही होते तब भी गनीमत थी, पर सभी समस्याओं को इनकी आत्ममुग्धता और गंभीर बना रही है।
सारी समस्याओं को चुटकियों में हल करने का लगातार दावा करने वाले प्रधानमंत्री ने 2014 के चुनाव जीतने के बाद किसी एक साक्षात्कार में बिना आंकड़े दिए ही कहा था, “आप को नहीं मालूम हम जब सरकार में आये तो देश के अर्थव्यवस्था की हालत कितनी खराब थी। हमने सोचा कि अर्थव्यवस्था पर एक श्वेत पत्र निकाला जाए फिर हम ये सोचकर रुक गए कि यदि हमने श्वेत पत्र निकाला तो पूरे देश में खलबली मच जायेगी और इसका असर निवेश पर पड़ेगा।”
इस वक्तव्य को मीडिया ने खूब उछाला, पर किसी ने ये नहीं पूछा की इस खराब अर्थव्यवस्था के कोई आंकड़े भी तो होंगे या फिर दुनियाभर के अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाले संस्थानों वर्ल्ड बैंक, आईएमऍफ़, या फिर वर्ल्ड इकनोमिक फोरम ने तो ऐसा कुछ क्यों नहीं कहा था।
चलिए मान लिया 2014 में अर्थव्यवस्था ठीक नहीं थी। जब किसी की तबीयत बहुत खराब होती है तो सबसे पहले उसकी हालत स्थिर करने का प्रयास होता है और जब हालत स्थिर हो जाती है तब बाद में फिर आगे का उपचार किया जाता है। पर आत्ममुग्ध मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के बजाय एक ऐसा कदम उठाया जिसके लिए एक प्रचलित मुहावरा है, चौबे चले छब्बे बनाने बनकर लौटे दूबे। वास्तविकता तो यह है की नोटबंदी जैसे आत्मघाती कदम की तुलना तो दुबे से भी नहीं की जा सकती, सही मायने में यह कदम तो “डूबे” के समतुल्य था।
सबने कहा कि इससे देश की अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठ गया, रोजगार चले गए और उद्योग बंद होने लगे और बैंकों की हालत खराब हो गयी, पर आत्ममुग्ध सरकार को इसके बाद भी सब इतना अच्छा लगा कि अधकचरी हालत में ही जीएसटी लागू कर दिया। सरकार भले ही इसे अधकचरा न कहे, पर बार-बार उत्पादों के जीएसटी स्लैब बदलना ही यह बताता है कि इसके बारे में पहले कोई गंभीर विचार-विमर्श किया ही नहीं गया था।
इसके बाद तो पूरी अर्थव्यवस्था ही ध्वस्त होने लगी, इसी बीच 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था का सब्जबाग दिखाया जाने लगा। जब रोम जल रहा था तब नीरो तो केवल बंसी ही बजा रहा था, यहाँ तो जलते देश में लोगों को नए नारे दिए जाते हैं, सब्जबाग दिखाए जाते हैं, प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री तक अपना ही चालीसा गाने लगते हैं।
अब जब सबकुछ लुट गया तो अनुच्छेद 370 का ही प्रचार शुरू हो गया और स्विस बैंक से खातेधारकों के नाम आने का सब्जबाग आ गया। अभी तो असम की खबरें कई दिनों तक चलती रहेंगी और बाढ़ के विसुअल्स होंगे। जब ये सब फेड आउट होने लगेगा तब कोई और नया कारनामा सामने आ जाएगा।
भाजपा के ही सुब्रमण्यम स्वामी कहते हैं की 5 ख़रब की अर्थव्यवस्था को भूल जाइए क्योंकि सरकार के पास कोई आर्थिक नीति नहीं है। अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए साहसी कदम और अर्थव्यवस्था का ज्ञान दोनों आवश्यक है, पर सुब्रमण्यम स्वामी के अनुसार मौजूदा सरकार के पास इसमें से कुछ भी नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सरकार से अनुरोध किया है कि बदले की राजनीति छोड़कर अर्थशास्त्रियों की सुने मोदी सरकार, तभी मंदी से उबरा जा सकता है।
पर इस देश की विडम्बना यही है की प्रधानमंत्री अपने आप को सबसे बड़ा अर्थशास्त्री, सबसे महान वैज्ञानिक और सर्वश्रेष्ठ समाज शास्त्री मानते हैं। सर्वश्रेष्ठ होने के बाद वे क्यों किसी की बात मानने लगे। दूसरी तरफ पूर्व रक्षामंत्री और वर्तमान वित्त मंत्री का पूरा समय अपने मंत्रालय के काम नहीं बीतता बल्कि राहुल गाँधी को कोसने में बीतता है।
बड़े मंत्रालय संभालने की उनकी एकमात्र योग्यता यही है। आप उनके बजट को ही देखिये, जब देश की तबाह होती अर्थव्यवस्था को संभालने वाले बजट की जरूरत थी तब इसमें ना तो संभालने के लिए कोई रोडमैप था और न ही कोई सोच। तमाम गलतियों वाले इस बजट की हालत ऐसे थी की तीन महीने के भीतर ही उन्हें बहुत कुछ बदलने की जरूरत पड़ रही है।
एक अमेरिकी पत्रिका, न्यूज़वीक में भारत के बारे में एक लेख में एक कटाक्ष था। इसके अनुसार वर्तमान सरकार काम से अधिक आंकड़ों की बाजीगरी में भरोसा करती है। पहले की सरकारों में जब एक किलोमीटर सड़क पूरी बन जाती थी तब उसे गिना जाता था, पर इस सरकार में डीवाईडर के एक तरफ की सड़क एक किलोमीटर होती है, डीवाईडर के दूसरे तरफ उसी सड़क के दूसरे हिस्से को अगला किलोमीटर गिना जाता है और यदि उसके किनारे कोई लेन है, तो उसे अगले किलोमीटर में शामिल किया जाता है। यानी, पिछली सरकारों की एक किलोमीटर सड़क अब दो किलोमीटर से लेकर चार किलोमीटर तक पहुँच गयी है।
देश की अर्थव्यवस्था को भी सड़क के लम्बाई की तरह जबरदस्ती बढ़ा दिया जाता है, पर सरकारी आंकड़े ही समय-समय पर इन आंकड़ों को झूठा बताते हैं। न्यूजवीक में ही एक लेख में बताया गया है कि सरकार कितना भी दावा करे, पर विश्व की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था भारत नहीं है। अर्थव्यवस्था बढ़ रही है, पर इसकी गति बहुत धीमी है और मदी की रफ्तार बहुत तेज।
अनेक अर्थशास्त्री मानते हैं कि सरकार द्वारा जारी आंकड़ों में तमाम गलतियां हैं और ये आंकड़े अर्थव्यवस्था की सही स्थिति नहीं बताते हैं। जून के महीने में अरविन्द सुब्रमण्यन ने इसकी खामियों को उजागर किया था और बताया था कि वर्तमान सरकार जब सकल घरेलू उत्पाद में 7 प्रतिशत की वृद्धि बताती है तब वह वास्तविकता में महज 4.5 प्रतिशत की वृद्धि होती है। ऐसे विचार पहले भी अनेक अर्थशास्त्री रख चुके हैं, पर उम्मीद के मुताबिक़ सरकार इन दावों को लगातार खारिज करती रही है।
आंकड़ों को दरकिनार कर भी दें, तब भी अरविन्द सुब्रमण्यन की एक बात से तो कोई इंकार नहीं कर सकता है। उनके अनुसार अर्थव्यवस्था के बढ़ने के लिए बढ़ते रोजगार के अवसर, आयात-निर्यात में बढ़ोत्तरी, रिज़र्व खजाने में बढ़ोत्तरी, बढ़ता औद्योगिक उत्पादन, उत्पादों की बढ़ती मांग और बढता कृषि उत्पादन जिम्मेदार है, पर इनमें से कुछ भी नहीं बढ़ रहा है तो फिर अर्थव्यवस्था इतनी तेजी से कैसे बढ़ सकती है?
जेपी मॉर्गन चेज के विशेषज्ञ जहांगीर अज़ीज़ बताते हैं कि जब सरकार के आंकड़े ही भ्रामक हैं तब इस पर आधारित विकास हमेशा भ्रामक ही रहेगा। प्रधानमंत्री जी ने चुनाव के नतीजों के तुरंत बाद कहा था, रसायनशास्त्र से गणित हार गया। अब अर्थव्यवस्था के सरकारी आंकड़ों को थोडा इसी हारे हुए गणित की नजर से देखना पड़ेगा। पर सरकार ऐसा करेगी नहीं, केवल जनता को बेवक़ूफ़ बनाकर और आंकड़ों को तोड़-मरोड़कर ही वर्ष 2024 तक 5 ख़रब के आंकड़े तक पहुंचा जा सकता है और कम से कम यह इस सरकार के लिए, जो पेशेवर निराशावादियों से भरी पड़ी है, सबसे आसान काम है।