मोदी सरकार का एक और मजदूर विरोधी फैसला

Update: 2018-03-03 20:42 GMT

कोयला खदानों के निजीकरण से न्यूनतम मजदूरी से लेकर जीवन सुरक्षा, बीमा, स्वास्थ्य, पेंशन पर उठे कई सवाल...

सियाराम मीणा गांगडया

मोदी सरकार ने हाल में कोयला खदानों की कमर्शियल माइनिंग के लिए नीलामी का फैसला किया। इसे 1973 में हुए इन खदानों के राष्ट्रीयकरण को पलटने वाला फैसला माना गया है। मोदी सरकार के इस फैसले से कोयला खदानों से जुड़े लाखों मजदूरों का भविष्य प्रभावित होने वाला है।

कोल इंडिया जिसमें लगभग चार लाख से अधिक मजदूर काम करते हैं, उनका भविष्य पूरी तरह से खतरे में आ गया है। इन मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी से लेकर, इनकी जीवन सुरक्षा, बीमा,स्वास्थ्य, पेंशन आदि कई सवाल आखिर सामने आ गए हैं।

सवाल यह सवाल यह है कि आखिर मोदी सरकार को इन कोयला खदानों को निजी कंपनियों को क्यों दिया जा रहा है? देश का लगभग 60 प्रतिशत बिजली उत्पादन कोयले से ही होता है। कोयले के भंडार भी भारत में सीमित हैं। वे ऐसी स्थिति में कोयला खदानों प्राइवेट सेक्टर में देना कहां तक सही है? यह एक प्राकृतिक संपदा है जिस राष्ट्र का अधिकार होता है, ऐसे में निजी हाथों में सौंप देना पूरी तरह से राष्ट्र विरोधी फैसला है।

1973 में इंदिरा गांधी सरकार ने कोयला खदानों में इन मजदूरों के बढ़ते शोषण और कोयले की अंधाधुंध ब्लैक मार्केट के चलते इसका राष्ट्रीयकरण किया था, लेकिन मोदी सरकार ने एक बार फिर उसे उसी राह पर लाकर खड़ा कर दिया है।

मोदी सरकार के आने के तत्काल बाद सरकार के कुछ प्रतिनिधियों की बातों से ऐसा लगा था कि सरकार कोयला उद्योग का निजीकरण नहीं करेगी। लेकिन अभी हाल यह है कि बिना किसी बातचीत के बड़ी-बड़ी घोषणाएं कर दी जा रही हैं।

मजदूरों को लग रहा है कि यह उनकी बर्बादी की शुरुआत है। अब पहले की तरह कोयला क्षेत्र एक बुनियादी किस्म की खामी का शिकार होने लगेगा है। जिसमें कारोबारियों, नेताओं, अफसरों, दलालों और अपराधियों का एक गठजोड़ कोयला खदानों के दोहन पर अपना एकाधिकार बनाए रखने में कामयाब होने लगेंगे। नीतियों को प्रभावित करने में भी इनकी गठजोड़ की अहम भूमिका रहेगी।

अभी कोयले के दोहन में भारी गड़बड़ी की वजह से ही हमें इसका आयात करना पड़ रहा है। कोयला मजदूर देश के सामने अपना प्रतिवाद दर्ज करा चुके हैं। लेकिन अभी सारी ट्रेड यूनियन इस मामले पर मौन धारण करके बैठी हैं। बड़े शर्म की बात है मजदूरों के हक के वादे करने वाली ये ट्रेड यूनियन आज खामोश बन बैठी हैं।

(सियाराम मीणा गांगडया गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय में पी.एच.डी. स्कॉलर हैं।)

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