धर्मांध नौजवानो! गौरक्षा दंगा—फसाद से नहीं पशु पालने से होती है और गौरक्षकों को पशुपालन से कुछ लेना—देना नहीं, उनका मकसद सिर्फ मोदी को देश की सत्ता पर दोबारा देश को लूटने के लिए बैठाना है....
अभिषेक आज़ाद
2019 के लोकसभा और पांच राज्यों के चुनाव में बुरी हार के डर से भारतीय जनता पार्टी पूरी तरह बौखलाहट में है। जनता में आक्रोश है। चुनावी वादे पूरे नहीं किये गए। युवाओं को रोजगार नहीं मिला। किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिला। किसानों ने रामलीला मैदान से संसद मार्ग तक 'मुक्ति संघर्ष मार्च' करके मौजूदा भाजपा सरकार के खिलाफ अपना गुस्सा और एकजुटता दोनों प्रदर्शित कर दिया है।
देश के सभी ट्रेड यूनियनों ने 8 व 9 जनवरी को दो दिवसीय राष्ट्रव्यापी आम हड़ताल का आह्वान किया है। कामकाजी तबके में सरकार द्वारा नियमित तौर पर सेवा शर्तों में किए गए अलाभकारी परिवर्तनों से खासी नाराज़गी है। वे न्यूनतम वेतन, पेंशन आदि सेवाशर्तों को लेकर प्रदर्शन करेंगे। आम लोगों में भी सरकार के खिलाफ काफी नाराजगी है।
2014 में किये गए चुनावी वादे अब सरकार पर भारी पड़ रहे हैं। लोग पूछ रहे हैं कि सरकार ने जनता से ऐसे वादे क्यों किये, जिन्हें पूरा नहीं कर सकती? मोदी जी ने साढ़े चार साल भाषणबाजी और कांग्रेस सरकार को कोसने में निकाल दिये। जब सरकार की उलटी गिनती शुरू हो गयी है और चुनाव सर पर है तो उन्हें समझ नहीं आ रहा कि क्या किया जाय?
भारतीय जनता पार्टी लोगों को मुद्दों से गुमराह करके चुनाव जीतने में भरोसा रखती है। भारतीय जनता पार्टी को पता है कि अगर चुनाव मुद्दों पर लड़ा गया तो उसकी हार निश्चित है क्योंकि सरकार सभी मोर्चो पर पूरी तरह से असफल रही है इसलिए चुनाव को नजदीक देखकर राममंदिर का शगूफा उछाला गया। लोगों को राम मंदिर के नाम पर 'मॉबलाइज' करने की कोशिश की गयी, लेकिन लोग बहकावे में नहीं आये। विश्व हिन्दू परिषद द्वारा 25 दिसम्बर को अयोध्या में बुलाई गयी धर्मसभा में टेंट और कुर्सियां खाली रहीं।
इसके बाद आरएसएस ने मोर्चा संभाला। RSS से जुड़ी संस्था स्वदेशी जागरण मंच ने 'संकल्प रथ यात्रा' का आयोजन किया। संकल्प यात्रा को 1 दिसंबर को आरएसएस कार्यालय झंडेवालान मंदिर से झंडी दिखाकर रवाना किया गया। RSS को उम्मीद थी कि इसमें लाखों की तादाद में लोग हिस्सा लेंगे। लेकिन आरएसएस की तमाम आशाओं और उम्मीदों के विपरीत मुश्किल से 100 लोग ही इस कार्यक्रम में शामिल हुये। इससे आरएसएस को काफी गहरा सदमा लगा है।
जब विश्व हिन्दू परिषद और आरएसएस जैसे संगठनों की दंगा भड़काने की कोशिशें असफल रही तो कमान बजरंग दल को सौंप दी गयी। बजरंग दल को अपने काम में काफी हद तक सफलता भी मिली, किन्तु अब लोग पहले से ज्यादा सजग है। इसलिए बुलंदशहर में दंगा भड़काने की उसकी साजिश राष्ट्रव्यापी स्वरूप नहीं ले पायी और हिंसा केवल बुलंदशहर ज़िले के थानाक्षेत्र स्याना की चिंगरावटी पुलिस चौकी तक ही सीमित रही।
सुबोध कुमार सिंह की हत्या केवल एक इंस्पेक्टर ही नहीं, बल्कि् एक गवाह और जांचकर्ता की भी हत्या है। मॉब लिंचिंग के आरोपियों ने मॉब लिंचिंग के गवाह और जांचकर्ता की मॉब लिंचिंग कर जान ले ली। इसके अलावा इस हिंसा में एक आम नागरिक की भी मौत हो गई है। हिंसा के दौरान उपद्रवियों ने इसे दंगे में परिवर्तित करने की पूरी कोशिश की, पुलिस चौकी फूंक दी और दर्जनों वाहनों में आग लगा दी ।
इस घटना के बाद लोग दहशत में है और पूरा गांव वीरान पड़ा हुआ है। मुसलमान भी गांव छोड़कर भाग गए हैं, क्योंकि उन्हें इस बात का डर है कि कथित तौर पर गाय का कंकाल मिलने के बाद उन पर बदले की कार्रवाई हो सकती है, जबकि गांव के हिंदू निवासी पुलिस के डर से गांव छोड़कर भाग गए हैं।
पुलिस द्वारा दर्ज की गई एफआईआर में इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या मामले का मुख्य आरोपी बजरंग दल नेता योगेश राज है। हिंदुवादी संगठन बजरंग दल का नेता योगेश राज बुलंदशहर की कथित गौकशी मामले का शिक़ायतकर्ता भी है। योगेश राज बजरंग दल का जिला संयोजक है।
जब चुनाव करीब आ गया तो दंगाई कंकाल इकट्ठा करने में लग गए। दंगाइयों की मनःस्थिति और भारतीय जनता पार्टी की मजबूरी को समझना होगा। उसे अब चुनाव जीतने का एकमात्र उपाय दंगा ही दिख रहा है। वह पहले भी ऐसा करती आयी है। दंगे भड़काकर लोगों को लामबंद करना फिर उनके वोट से सत्ता पर काबिज़ होना बीजेपी की पुरानी रणनीति रही है। चाहे 2002 के गुजरात दंगों की बात की जाय या 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों की।
चुनाव करीब है दंगाई पूरे जोरशोर से अपने काम पर लग गए हैं। भारतीय जनता पार्टी आरएसएस का राजनीतिक संगठन है। बीजेपी, बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद आदि आरएसएस के अनुषांगिक संगठन हैं और आरएसएस के इशारे पर काम करते हैं। इनकी वैचारिकी और एजेंडा एक है। इनके ज्यादातर कार्यकर्ता एक से अधिक सगठनों के सदस्य होते हैं।
भाजपा या बजरंग दल के सदस्यों में केवल नाममात्र का फ़र्क़ होता है। बुलंदशहर की हिंसा को बजरंग दल ने बीजेपी कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर अंजाम दिया। बीजेपी को दंगाई एक मुखौटे के रूप में इस्तेमाल करते हैं ताकि सत्ता पर काबिज हो सके।
बुलंदशहर की दुखद घटना को देखकर 2012 की हैदराबाद की एक घटना याद आती है। 1 जनवरी को बीजापुर के निकट सरकारी बिल्डिंग पर पाकिस्तान का झंडा फहराया गया। हिन्दू संगठनों ने उग्र प्रदर्शन किये और मुस्लिम प्रार्थना सभा पर पथराव किया। हिन्दू संगठनों ने हड़ताल का आह्वान किया। पुलिस जाँच में पाया गया कि यह श्रीराम सेना के लोगों का काम है।
प्रमोद मुथालिक नाम के व्यक्ति ने बजरंग दल से अलग होकर इसका गठन किया है। पुलिस ने पाकिस्तान का झंडा फहराने के जुर्म में श्रीराम सेना के 6 लोगों को गिरफ्तार किया। श्रीराम सेना के कार्यकर्ता मंदिरों में गोमांस और मस्जिदों में सूअर का मांस फेकने के जैसे कुकृत्यों के जुर्म में कई बार गिरफ्तार हो चुके हैं।
जिस व्यक्ति ने सबसे पहले कंकाल को देखा उससे पूछताछ होनी चाहिए। भीड़ को इकठ्ठा करने वाले और FIR दर्ज कराने वाले व्यक्तियों से भी पूछताछ होनी चाहिए। दंगाई भीड़ में शामिल प्रत्येक व्यक्ति से पूछताछ होनी चाहिए। दंगाई भीड़ में शामिल होने वाले लोग भोलेभाले, निर्दोष और मासूम नहीं होते।
यदि स्वतंत्र और निष्पक्ष जाँच हो तो हैदराबाद की घटना की तरह एक बार फिर से दंगाई बेनकाब होंगे। पता चलेगा कि गोकशी करने वाला, अफवाह फैलाकर भीड़ को इकठ्ठा करने वाला, FIR दर्ज़ कराने वाला और पुलिस इंस्पेक्टर की हत्याकर चौकी को आग के हवाले करने वाला शख्स एक ही है। हिंसा किसने की? पुलिस वालो को गोली किसने मारी? पुलिस चौकी में आग किसने लगाई? बजरंग दल और भाजपा के कार्यकर्ताओं ने। बुलंदशहर की प्रायोजित हिंसा बजरंग दल और भाजपा का संयुक्त उपक्रम था।
इस तरह की गिरी हुई हरकतों से भाजपा अपनी सरकार बचाने और चुनाव जीतने का स्वप्न देख रही है। वह 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के शर्मनाक इतिहास को दोहराना चाहती है। 2014 के चुनाव के पहले भी दंगा भड़काने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश को चुना गया था, जिसका उसे लोकसभा चुनाव में फायदा मिला और उसने 80 में से 75 सीटें जीतीं। भाजपा फिर से उसी घृणित कृत्य को दोहराने में जुट गयी है।
अब सबकुछ जनता की सूझबूझ और समझदारी पर निर्भर करता है कि जनता नेताओं को अपने मुद्दों में बांध कर रख पाती है या नहीं। भाजपा लोगों को गुमराह करने के लिए इससे भी घटिया स्तर के हथकंडों को अपनाएगी। लोगों को किसी भी बहकावे में न आकर सरकार से पांच सालों का हिसाब मांगना चाहिए। उसे पूछना चाहिए कि बुनियादी सुविधाएं उस तक कब पहुचेंगी?
युवाओं को रोजगार, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य और कामगारों को न्यूनतम वेतन व सेवा शर्तों की मांग पर अडिग रहना चाहिए। नौजवानों को पूछना चाहिए कि उन्हें नौकरी कब मिलेगी? किसानों को पूछना चाहिए कि उनके गन्ने का बकाया भुगतान कब तक होगा? कब तक किसान 750 किलो प्याज 1050 रुपये में बेचकर पैसा प्रधानमंत्री जी को भेजते रहेंगे?
कामगारों को पूछना चाहिए कि संविदा कर्मचारियों को नियमित के बराबर वेतन कब दिया जाएगा और न्यूनतम वेतन को 18000 रुपए प्रतिमाह कब किया जाएगा? पुरानी पेंशन योजना जिसे अटल जी के नेतृत्व में पिछली भाजपा सरकार ने बंद किया था उसे दोबारा कब शुरू किया जाएगा? सरकारी भर्तियों को दोबारा कब शुरू किया जाएगा? नई सरकारी भर्ती को कब शुरू किया जाएगा?
उल्लेखनीय है कि भाजपा की पिछली सरकार ने देश में कर्मचारियों की पेंशन को खत्म किया था और मोदी सरकार ने भर्ती को ही बंद कर दिया जबकि हर साल दो करोड़ नई भर्ती करने का वादा किया था। नोटबंदी, जीएसटी के चलते बंद हुए लघु उद्योगों में काम कर रहे लोगों को रोजगार कब मिलेगा?