देश की सवा सौ करोड़ आबादी 25 लाख झोलाछाप डॉक्टरों के भरोसे

Update: 2019-09-06 04:29 GMT

बड़ी और अंतरराष्ट्रीय दवा कम्पनियां अपने नए एंटीबायोटिक्स को बाज़ार में बढ़ावा देने के लिए ले रही हैं झोलाछाप डॉक्टरों का सहारा, क्योंकि डिग्रीधारी डॉक्टर को किसी दवा के प्रचार-प्रसार के लिए आश्वस्त करना पड़ता है कि उनकी दवा बाज़ार में है सबसे अच्छी

कोई दवा कंपनी भारत में एक लाख रुपये के एंटीबायोटिक्स का कारोबार करती है, तो इसमें से केवल 20 हजार रुपये का कारोबार प्रशिक्षित डॉक्टरों के बीच, जबकि मुनाफे के लिए शेष कारोबार करते हैं केमिस्ट और झोलाछाप डॉक्टर...

महेंद्र पाण्डेय की रिपोर्ट

मारे देश में लगभग दस लाख पंजीकृत डॉक्टर हैं, जबकि बिना डिग्री वाले झोलाछाप डॉक्टर लगभग 25 लाख हैं। अनेक इलाके ऐसे भी हैं जहां दूर दूर तक कोई भी डिग्रीधारी डॉक्टर नहीं है और ऐसे इलाके की पूरी स्वास्थ्य सेवा ही झोलाछाप डॉक्टरों के अधीन है।

किसी नई दवा के प्रचार प्रसार में ये झोलाछाप डॉक्टर बड़ी भूमिका निभाते हैं। खबरों के अनुसार बड़ी और अंतरराष्ट्रीय दवा कम्पनियां अब अपने नए एंटीबायोटिक्स को बाज़ार में बढ़ावा देने के लिए इन्हीं झोलाछाप डॉक्टरों का सहारा ले रही हैं।

न्दन के अखबार, इंडिपेंडेंट में 19 अगस्त को द ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म के हवाले से प्रकाशित एक समाचार के अनुसार बड़ी दवा कम्पनियां झोलाछाप डॉक्टरों को खूब उपहार और विदेश यात्राओं का झांसा दे रही हैं, जिससे वे उनके एंटीबायोटिक्स को अधिक से अधिक लोगों को दें।

डिग्रीधारी डॉक्टर को किसी दवा के प्रचार-प्रसार के लिए आश्वस्त करना पड़ता है कि उनकी दवा बाज़ार में सबसे अच्छी है, पर झोलाछाप डॉक्टरों के साथ यह समस्या नहीं है। कुछ उपहार, कैश या फिर किसी पांच सितारा होटल में एक पार्टी से ही काम चल जाता है।

हालांकि सन फार्म और एबौट जैसी बड़ी कम्पनियां इन खबरों का खंडन करती रही हैं, पर हकीकत यही है। अनेक दवा कंपनियां तो एंटीबायोटिक्स के पांच डिब्बों की खरीद पर एक डिब्बा फ्री जैसी योजनायें भी ला चुकी हैं, जिनसे केमिस्ट और झोलाछाप डॉक्टरों को फायदा हो रहा है।

मारे देश में सरकारी दावों से अलग, स्वास्थ्य सेवाओं की अलग ही दुनिया है। अमीरों के लिए बड़े और महंगे हॉस्पिटल, मध्यम वर्ग के लिए सरकारी हॉस्पिटल और फैमिली डॉक्टरों के क्लीनिक और संख्या में सबसे अधिक गरीब तबके के लिए क्लीनिक, केमिस्ट या फिर झोलाछाप डॉक्टर।

हले दवा कंपनियां बड़े डॉक्टरों के चक्कर लगातीं थी, पर अब इनकी नीतियाँ बदल गयी हैं। केमिस्ट्स और झोलाछाप डॉक्टरों के बीच अपनी दवाओं का प्रचार-प्रसार इन्हें अधिक फायदेमंद लगने लगा है। उपहारों के चक्कर में ऐसे डॉक्टर अधिक से अधिक लोगों को एंटीबायोटिक्स दे रहे हैं, जहां जरूरत नहीं है वहां भी इसे दिया जा रहा है।

सेंटर फॉर डिजीज डायनामिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पालिसी नामक संस्थान के निदेशक प्रोफ़ेसर रमनन लक्ष्मीनारायण के अनुसार दवा कंपनियां ऐसा बहुत बड़े पैमाने पर कर रही हैं। लन्दन स्कूल ऑफ़ हाइजीन में शोध कर चुकी मीनाक्षी गौतम ने भारत के दवा बाज़ार का गहन अध्ययन किया है। उनके अनुसार यदि कोई दवा कंपनी भारत में एक लाख रुपये के एंटीबायोटिक्स का कारोबार करती है, तो इसमें से केवल 20 हजार रुपये का कारोबार प्रशिक्षित डॉक्टरों के बीच होता है, जबकि शेष कारोबार केमिस्ट और झोलाछाप डॉक्टरों के बीच किया जाता है।

वैज्ञानिक लगातार बताते रहे हैं कि ऐसे रोग फैलाने वाले बैक्टीरिया जिन पर उपलब्ध एंटीबायोटिक्स का असर नहीं हो रहा है, के पनपने का मुख्य केंद भारत है। भारत से ही ऐसे बैक्टीरिया दुनियाभर में पनप रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण हमारे देश में एंटीबायोटिक्स का दुरुपयोग है। जहां जरूरत नहीं भी है वहां भी केमिस्ट या डॉक्टर मरीजों को एंटीबायोटिक्स खिलाते जा रहे हैं। बेकार बचे एंटीबायोटिक्स को कूड़े के साथ फेंक दिया जाता है, जहां से नदियों तक पहुँच जाते हैं।

संयुक्त राष्ट्र ने एंटीबायोटिक्स की प्रतिरोधक क्षमता समाप्त होने को वर्तमान में स्वास्थ्य संबंधी सबसे बड़ी समस्याओं में से एक मान रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार बैक्टीरिया या वाइरस पर एंटीबायोटिक्स के बेअसर होने के कारण दुनिया में प्रतिवर्ष 7 लाख से अधिक मौतें हो रही हैं और वर्ष 2030 तक यह संख्या 10 लाख से अधिक हो जायेगी। हमारे देश में प्रतिवर्ष लगभग 85 हजार बच्चों की मौत केवल एंटीबायोटिक्स के बेअसर होने के कारण होती है।

सी वर्ष मार्च के महीने में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने वाराणसी में गंगा के पानी के नमूनों की जांच कर बताया कि हरेक नमूने में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया मिले। यह अंदेशा पिछले अनेक वर्षों से जताया जा रहा था, पर कम ही परीक्षण किये गए। एक तरफ तो गंगा में हरिद्वार से लेकर गंगासागर तक एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया पाए गए, यमुना, कावेरी और अनेक दूसरी भारतीय नदियों की भी यही स्थिति है, तो दूसरी तरफ गंगा से जुडी सरकारी संस्थाएं लगातार इस तथ्य को नकार रही हैं और समस्या को केवल नजरअंदाज ही नहीं कर रही हैं, बल्कि इसे बढ़ा भी रही हैं।

इंग्लैंड में स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ़ यॉर्क के वैज्ञानिकों के एक दल ने दुनिया के 72 देशों में स्थित 91 नदियों से 711 जगहों से पानी के नमूने लेकर उसमें सबसे अधिक इस्तेमाल किये जाने वाले 14 एंटीबायोटिक्स की जांच की। नतीजे चौंकाने वाले थे, लगभग 65 प्रतिशत नमूनों में एक या अनेक एंटीबायोटिक्स मिले। इन नमूनों में से अधिकतर नमूने एशिया और अफ्रीका के देशों के थे।

हालांकि यूरोप, उत्तरी अमेरिका और दक्षिण अमेरिका के देशों की नदियों में भी अपेक्षाकृत कम मात्रा में भी एंटीबायोटिक्स मिले। इससे स्पष्ट है कि नदियों के पानी में दुनियाभर में एंटीबायोटिक्स मिल रहे हैं।

न्दन से प्रकाशित द गार्डियन में 28 अगस्त को कैसर हेल्थ न्यूज़ के हवाले से बताया गया है कि भारत में हाल के दिनों में अफीम पर आधारित दर्द-निवारक दवाओं के लिए नियमों में कुछ ढील दी गयी है और इसके बाद से अमेरिकी दवा कंपनियों में भारत के दवा बाज़ार को अफीम युक्त दवाओं से भर देने की होड़ मच गयी है। ऐसी दवाएं दर्द से तुरंत आराम तो देती हैं, पर अफीम के नशे के लिए इनका अवैध कारोबार व्यापक तरीके से किया जाता है। आजकल तो कुछ भारतीय दवा निर्माता भी इस होड़ में शामिल हो गए हैं।

हाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि अमेरिका में नशे के लिए इन दवाओं का इतना व्यापक उपयोग किया गया कि अब इनमें से अनेक दवाओं को वहां प्रतिबंधित किया जा चुका है या फिर इन्हें बेचने पर सख्ती कर दी गयी है।

जाहिर है, आयुष्मान भारत की ढफली बजाते देश में स्वास्थ्य सेवायें लचर हालत में हैं और यदि इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया तो इसका प्रभाव केवल भारत पर ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया पर पड़ेगा।

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