राजनीति को रंगमंच के जरिए धारदार बना रहे मंजुल

Update: 2017-06-20 13:47 GMT

मंजुल थिएटर ऑफ रेलेवेंस के माध्यम से कुंठाओं और विचारों को धरातल पर उतारने का काम करते हैं...

मुंबई से धनंजय कुमार की रिपोर्ट

क्या थिएटर समाज को बदल सकता है? क्या थिएटरकर्मी राजनीति के विमर्श और चिंतन की धारा में नई ऊर्जा और चेतना भर सकता है? सच जानना हो तो कभी स्वराज इंडिया की कार्यशाला में पधारिए. थिएटर ऑफ़ रेलेवेंस के सर्जक और प्रयोगकर्त्ता मंजुल भारद्वाज आपको मार्गदर्शक के रूप में मिल जायेंगे, जहां आप अपने भीतर और बाहर बदलाव महसूस कर सकते हैं, देख सकते हैं.

समाज आज जिस कठिन दौर से गुजर रहा है, उसमें ईमानदारी और समाजबोध के साथ जीने वाले लोग अपने आप को हाशिए पर पाते हैं. राजनीति गटर से बदूबदार लग रही है और समाज भटके हुए मुसाफिर सा गोल गोल घूम रहा है. मन मस्तिष्क उलझनों और कुंठाओ की चपेट में है और उसकी ऊर्जा खत्म हो रही है. कहीं कोई सम्भावना नहीं दिख रही.

धूमिल की कविता की एक पंक्ति, 'जिस जिस की पूँछ उठाई मादा निकला' चरितार्थ होती दिख रही है. नेता वो होता है, जो समाज और देश को नई राह दिखाता है, आम आदमी की नसों में नई ऊर्जा भरता है, लेकिन विडम्बना यह है कि हमारे नेता स्वयं सत्ता और स्वार्थ के मकड़जाल में उलझे हैं. आम आदमी को सूझ नहीं रहा, वो इस जाल से कैसे निकले. नतीजा है, देश में हर तरफ असंतोष और कुंठा से भरा वातावरण है.

सामाजिक बोध हाशिए पर चला गया और व्यक्ति येनेकेन प्रकारेन अपने आपको सुरक्षित करने में भिड़ा है. नीति-नियम किताबों तक सीमित हो गये हैं और व्यवहारिक तौर पर कर तरफ चुहादौड़ और अराजकता दिख रही है.

खुद सरकारी तंत्र जनता को परेशान करनेवाला बन गया है. यह हम सब देख रहे हैं, महसूस कर रहे हैं. और रास्ता भी ढूँढ रहे हैं कि इससे कैसे उबरें? इसलिए जहाँ कहीं हल्की—सी भी उम्मीद दिखती है, आम आदमी आरती की थाल लेकर पहुँच जाता है, लेकिन हर द्वार पर फरेबियों और स्वार्थियों की जमघट है.

इसके लिए आम आदमी नेताओं को तो कोसता है, लेकिन क्या कभी अपने अन्दर झाँकने की कोशिश करता है? चुने हुए नेता गंदे हो जाते हैं, फिर चुनने वाले पवित्र कैसे हो सकते हैं?

हम दूसरे को तो कोसते हैं, लेकिन अपने अन्दर झाँकने की कोशिश नहीं करते. हम नेताओं से अपेक्षा करते हैं कि वो निस्वार्थ भाव से जनहित में काम करें, लेकिन ऎसे नेता चुनें कैसे, इस पर कभी विचार नहीं करते.

जैसी प्रजा वैसा राजा, पुरानी कहावत है. प्रजा अंधी होगी, तो राजा आँखवाला कैसे हो सकता है. इसलिए अगर हम देश में सामाजिक और राजनीतिक बदलाव चाहते हैं, सकारात्मक और रचनात्मक बदलाव चाहते हैं, तो अपने आप को भी रौंधना होगा. मंजुल भारद्वाज स्वराज इंडिया की कार्यशालाओं में यही कर रहे हैं.

स्वराज इंडिया से जुड़े युवकों और कार्यकर्ताओं को रौंधने का काम कर रहे हैं. उन्हें झाड़ने झटकने और फिर जीवन रस से सराबोर करने का काम कर रहे हैं. जन जन में लीडरशिप के गुण भरने का काम कर रहे हैं.

उनकी शुरुआत सुबह के चैतन्य अभ्यास से होती है. फिर बातों और विमर्श का सिलसिला शुरू होता है. सबके मान बराबर हैं, कोई गुरू कोई शिष्य नहीं होता. कोई जूनियर कोई सीनियर नहीं होता है. सब अपनी बात रख सकते हैं. सबको सुनाइये और सबकी सुनिए. यह कार्यशाला का मूल मंत्र है. रंगकर्म शब्दों को धरातल पर रूपायित करने का माध्यम है.

मंजुल थिएटर ऑफ रेलेवेंस के माध्यम से कुंठाओं और विचारों को धरातल पर उतारने का काम करते हैं. सहभागी अपने आपको भी पूरे तौर पर देखता है और दूसरों को भी. फिर रास्ता ढूँढने का सामूहिक प्रयास अग्रसर होता है. जनवादी राजनीति में नया रास्ता ढूँढने का प्रयास!

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