वैज्ञानिक नहीं मोदी सरकार तय करती है कि किस अध्ययन का क्या निष्कर्ष निकले
उज्जवला योजना के बाद भले ही चूल्हा पहले जैसा ही जलता हो पर बिना किसी अध्ययन के ही प्रधानमंत्री जी बार बार बहनों और माताओं को धुएँ से छुटकारा दिलाने का दावा करते रहते हैं...
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
इस बार के बजट में साफ़ हवा के लिए 4400 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। इसमें दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों को वायु प्रदूषण कम करने के लिए मदद देने का प्रावधान है। पिछले वर्ष शुरू किये गए नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम के तहत देश के चुनिन्दा 102 शहरों में वायु प्रदूषण कम करने की योजना है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा संचालित नेशनल एम्बिएंट एयर मोनिटरिंग प्रोग्राम के अंतर्गत देश के 339 शहरों और कस्बों में कुल 779 जगह वायु की गुणवत्ता मापी जाती है।
जाहिर है पूरे देश में एक भी गाँव के प्रदूषण स्तर का हमें पता ही नहीं है और न ही इसके सम्बन्ध में कोई योजना ही है। इसके ठीक उल्टा जब भी सर्दियों के ठीक पहले जब दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ता है तो इसकी सारा दोष हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के गाँव को दिया जाता है, जहां कृषि अपशिष्ट को खेतों में जलाया जाता है। जाहिर है, जहां भारी मात्रा में कृषि अपशिष्ट जलाया जा रहा होगा वहां वायु प्रदूषण भी खूब हो रहा होगा और इससे लोग भी प्रभावित हो रहे होंगे। पर इस प्रदूषण के स्तर की जानकारी किसी सरकार या फिर गैर-सरकारी संगठनों के पास नहीं है क्योकि ग्रामीण क्षेत्र में इस तरह का कोई अध्ययन होता ही नहीं है।
वायु प्रदूषण ने ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच एक गहरी खाई पैदा कर दी है और इसे पाटने का कोई प्रयास ही नहीं किया जा रहा है। क्या सरकार और दूसरे गैर सरकारी संगठन यह मान बैठे हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रदूषण होता ही नहीं? दिल्ली की भी बात करें तो यहाँ लगभग 40 जगहों पर वायु गुणवत्ता की जांच की जाती है, इनमें से एक भी जगह ऐसी नहीं है जो ग्रामीण हो या फिर जहां केवल गरीब लोग रहते हों। प्रदूषण मापने या फिर इसे कम करने के उपायों में जिन ग्रामीण क्षेत्रों को उपेक्षित रखा जाता है उन्हें ही प्रदूषण फैलाने का जिम्मेदार बनाया जाता है।
कुछ वर्ष पहले तक ग्रामीण क्षेत्रों में लकड़ियों और उपलों से जलाते चूल्हे को प्रदूषण का स्त्रोत माना जाता था और कुछ अध्ययन भी किये गए थे जिसमें ग्रामीण महिलाओं और बच्चों पर इसके प्रभाव को देखा गया था। उज्जवला योजना के बाद भले ही चूल्हा पहले जैसा ही जलता हो पर बिना किसी अध्ययन के ही प्रधानमंत्री जी बार-बार बहनों और माताओं को धुएँ से छुटकारा दिलाने का दावा करते रहते हैं।
ऐसे में देश की जो हालत है, उसमें अब तो ग्रामीण क्षेत्रों में चूल्हे के धुएँ और इसके प्रभाव का अध्ययन शायद ही कोई वैज्ञानिक करने की हिम्मत करेगा। आज के दौर में तो किसी अध्ययन का निष्कर्ष वैज्ञानिक तय नहीं करते बल्कि सरकार और प्रधानमंत्री तय करते हैं।
प्रदूषण की चर्चा में भी गाँव शामिल नहीं रहते जबकि सारे इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट ग्रामीण क्षेत्रों से गुजरते हैं, खनन भी इन्ही क्षेत्रों में होता है और बड़े उद्योग भी इन्ही क्षेत्रों में स्थापित होते हैं। कभी-कभी इन क्षेत्रों में विरुद्ध में आन्दोलन भी होते हैं, पर सरकार और पूंजीपति रोजगार के वादे कर इसे शांत करा देते हैं।
तमिलनाडु के त्युतिकोरिन में वेदांत समूह के उद्योग के विरुद्ध जिस हिंसक वारदात में 14 लोग मारे गए थे, सभी आसपास के गाँव से थे और इससे फैलते प्रदूषण से परेशान भी। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बहुत सारे क्षेत्र जहाँ नदियों के किनारे रेत खनन का काम किया जाता है, वहां ट्रकों और ट्रैक्टर के रास्ते हरे-भरे खेतों से होकर गुजरते हैं, फासले बर्बाद होतीं हैं पर खनन पर माफियाओं का अधिकार है इस डर से वे कुछ कर नहीं पाते।
दिल्ली में हाल में ही स्मोग टावर की खूब चर्चा की गयी, यह लाजपत नगर मार्केट में लगाया भी गया। दिल्ली के कई क्षेत्रों में ऐसे उपकरण भी स्थापित किये गए जो स्थानीय स्तर पर प्रदूषण कम करते हैं, पर इनमें से एक भी किसी भी ग्रामीण क्षेत्र में नहीं है।
सरकार शायद यह मानती है कि शहरों में प्रदूषण पर चर्चा की जाती है तो वहां कुछ उपाय कर दो, ग्रामीण क्षेत्र के लोग तो सबकुछ शांति से झेल लेंगे। वायु प्रदूषण ने शहरी और ग्रामीण क्षेत्र के बीच एक दरार पैदा कर दी है और यह दरार लगातार बढ़ रही है।