शहीदों के परिजनों के हितैषी उन्मादी पोस्ट फैलाने और रैलियां निपटाने में हैं बिजी
ये कैसा राष्ट्रवाद और देशभक्ति कि पुलवामा घटना के कुछ ही पलों में कई उन्मादी पोस्टें ओर ट्रोल नज़र आने लगे, आतंक को धर्म से जोड़ा जाने लगा। बाहर पढ़ने वाले कश्मीरी छात्रों से जुड़े विवाद सामने आने लगे...
गौरव द्विवेदी
बीते दिनों हुए पुलवामा का आतंकी हमला निश्चित रूप से एक बड़ी क्षति दे गया। 40 से ज्यादा सैनिक शहीद हो गए। सीमा पर लड़ता जवान और उसका ये बलिदान वाकई हम सब देशवासियों पर एक कर्ज है, मगर सोचकर देखिए सीमा पर शहीद होता जवान समाज के लिए जिस शांतिप्रिय और सुरक्षित जिंदगी के लिए संघर्ष करता रहा है उस शांति को बनाये रखने में हमारा कितना योगदान है?
इस घटना के घटित होने के बाद ही राजनीति न करने की हिदायत और अपेक्षा की जाने लगी, जो हर एक देशवासी का कर्तव्य है। मगर जो अनुभव हुए वे बड़े कटु हैं।
ये सब समझना इसलिए जरूरी है कि शहादत के चंद पलों में ही उन्माद फैलाने की कोशिश होने लगी, जबकि आतंकवाद के खिलाफ एकता का प्रदर्शन कर हमें विश्वभर में फैले आतंकवादी गिरोह को भारत की मजबूती व अखंडता की भावना की मिसाल देनी थी, जिसमें कई लोगों और मीडिया संस्थानों की सराहनीय कोशिश भी रही। इसी बीच भारतीय मीडिया टीआरपी बटोरने में भी लगा रहा।
सत्तारूढ़ दल भाजपा तमिलनाडु और महाराष्ट्र के गठबंधन को अंजाम देता नज़र आया, जिसका ऐलान मंगलवार 19 फरवरी तक हो भी गया। कम से कम राष्ट्रीय शोक के इस दर्दनाक ओर संवेदनशील माहौल में एक स्वघोषित राष्ट्रवादी दल से यह उम्मीद नहीं की जाती। हमारे प्रधानसेवक रैलियां निपटा रहे थे, जबकि प्रश्न सीआरपीएफ जवानों को अब तक शहादत का दर्जा न देने की बात पर भी उठता रहा।
इसी बीच आईटी सेल उन्माद फैलाने का अपना काम बखूबी करता रहा। कभी वह विपक्षी दल द्वारा आतंकियों को 1 करोड़ की सहायता देने का मैसेज वायरल करता नजर आया, तो कहीं धर्म विशेष के मतदाताओं से आने वाले लोकसभा चुनाव में वोट की अपील करते हुए एक असंवेदनशीलता का उदाहरण पेश करता नजर आया।
जेहन में सवाल आता है कि शहीदों के परिवार की चिंता किसे है? वो जो रैलियां निपटा रहे हैं या वो जो उन्मादी पोस्ट साझा करने में लगे हैं!
राष्ट्र और राष्ट्रवाद की बहस भारत में ही नहीं, विश्व के हर एक कोने में चलती आयी है और यह सालों पुरानी है। लेकिन इन बहस में कृपया सेना और उसके बलिदान की राजनीति मत कीजिये। और यह नहीं कर सकते तो सैनिक के परिजनों को अपना परिजन मानकर सोचिए कि उनके आंसू पर राजनीति होने की कितनी गुंजाइश है?