आतंकी घटनायें या सरहद पर तनाव तभी क्यों बढ़ता है जब दिल्ली या कराची की सरकार किसी स्कैम में फंसती है या फिर तब जब चुनाव सिर पर हों और सरकार अपने कार्यकाल में पूरी तरह विफल हो चुकी हो। क्या राफेल के दाग़ जवानों के खून से धुलेंगे...
सुशील मानव
ये सिर्फ़ मोदी सरकार के ही समय में हुआ है कि सोये हुए जवानों पर हमला किया गया है। पहले पठानकोट, फिर उरी और अब पुलवामा में सोये हुए जवानों को निशाना बनाया गया है। इससे पहले तो जवान सिर्फ सीमा पर लड़ते हुए ही मारे जाते थे।
सरकार जब भी राफेल जैसे स्कैम में फंसती है, या चुनाव नजदीक होते हैं बलि के बकरे की तरह जवान राष्ट्रवाद के देवता के आगे चढ़ा दिये जाते हैं। ये केवल इसी सरकार के समय में हुआ है कि जवान सो रहे हैं और उन्हें बड़ी संख्या में कथित आतंकी मारकर भाग जाते हैं।
अभी पिछले ही महीने पुलवामा को कश्मीर का पहला आतंकवाद मुक्त जिला घोषित किया गया था। ऑपरेशन ऑलआउट के तहते पिछले चार साल में हजारों आतंकियों और वर्ष 2018 में 257 आतंकियों को मारने का दावा किया गया था।
भारत के 2018-2019 रक्षा बजट में बढ़ोतरी की गई थी। देश का रक्षा बजट 5.89 प्रतिशत बढ़ाकर 46.16 अरब डॉलर कर दिया गया था, जो पिछले साल 43.59 अरब डॉलर था। भारत का 2017 का रक्षा बजट कुल बजट का 12.77 फीसदी था। ये कुल 2 लाख 74 हजार 114 करोड़ रुपए का बजट था।
स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे ज़रूरी मदों के बजट से कटौती करके रक्षा बजट में हर साल 4-6 प्रतिशत बढ़ोत्तरी के बावजूद अगर जवान सुरक्षित नहीं हैं तो सवाल उठता है कि रक्षा बजट बढ़ाने को हर सरकार इतनी तत्परता से व्याकुल क्यों रहती है? इतने बड़े रक्षा बजट के बावजूद घर सुरक्षा एजेंसियां लगातार चूक रही हैं तो क्या सच में रक्षा बजट का पूरा पैसा सेना और सुरक्षा एजेंसियों को मिलता भी है या नहीं?
क्या राफेल स्कैम, ताबूत स्कैम, बोफर्स स्कैम, अगस्ता वेस्टलैंड घोटाले चुनावी खर्च निकालने के लिए ही किये गये थे। क्या रक्षा सौदों की बड़ी डील में भी बड़ी कमीशन कंपनियां पार्टियों को चंदे के तौर पर नहीं देती। रक्षा सौदों और इससे जुड़े स्कैम की सारी कहानी चुनावी गणित के बिना नहीं समझी जा सकती।
नोटबंदी ने कश्मीर में आतंकवादियों की कमर तोड़ दी, हम एक के बदले दस सिर ले आयेंगे, और हमने पाकिस्तान के हाथ में कटोरा पकड़ा दिया है जैसे जुमले लोगों का इंटरटेनमेंट तो कर सकते हैं, पर असल समस्या का हल नहीं कर सकते।
उरी, पठानकोट और सर्जिकल स्ट्राइक को चुनावी मंच तक ले जाकर उसका फायदा उठा लेने के बाद क्या अब हर चुनाव से पहले पुलवामा के दर्द दोहराये जायेंगे?
सवाल ये भी उठता है कि इस तरह की आतंकी घटनायें या सरहद पर तनाव तभी क्यों बढ़ता है जब दिल्ली या कराची की सरकार किसी स्कैम में फँसती है या फिर तब जब चुनाव सिर पर हों और सरकार अपने कार्यकाल में पूरी तरह विफल हो चुकी हो, और जनाक्रोश आंदोलन के रूप में तमाम सड़कों पर दिखने लगता हो? क्या राफेल के दाग़ जवानों के खून से धुलेंगे?