संविधान को दो कौड़ी का नहीं समझते संघी और शिवसैनिक

Update: 2018-11-25 03:56 GMT

प्रतीकात्मक तस्वीर

देश साम्प्रदायिकता के खिलाफ उसी समय जंग हार गया था जब एक मस्जिद को अख़बारों ने विवादित ढांचा लिखना शुरू कर दिया था....

सामाजिक कार्यकर्ता गुफरान सिद्दीकी की टिप्पणी

अयोध्या एक बार फिर सांप्रदायिक संगठनों का अखाड़ा बन गया है। 6 दिसंबर 1992 के बाद से जिस तरह से एक आपराधिक कृत्य को समाज में मान्यता मिली, उससे यह कहना उचित होगा कि देश साम्प्रदायिकता के खिलाफ उसी समय जंग हार गया था जब एक मस्जिद को अख़बारों ने विवादित ढांचा लिखना शुरू कर दिया था।

विहिप के साथ ही अन्य संगठनों द्वारा अयोध्या में विराट धर्मसभा बुलाये जाने के लिए आखिर नवम्बर की 25 तारीख का ही चुनाव क्यों किया गया, हमें यह समझना होगा आखिर 25 नवम्बर ही क्यों? अगर दिमाग पर थोड़ा जोर डालेंगे तो पता चलेगा कि इसके ठीक एक दिन बाद 26 नवम्बर को संविधान दिवस है।

चूँकि संविधान से बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर का नाम जुड़ा हुआ है इसलिए विहिप या संघ हमेशा ऐसे समय को अपने निशाने पर रखते हैं जब इस देश का दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक साथ साथ नज़र आते है। यह ठीक वैसे ही है जैसे बाबा साहब का महा परिनिर्वाण दिवस 6 दिसंबर का दिन चुना गया था अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिराने के लिए।

6 दिसंबर को कोई काला दिवस तो कोई शौर्य दिवस के रूप मे मनाता है, जिसके शोर में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर का महापरिनिर्वाण दिवस कहीं छुप जाता है। जब हम इसका सामाजिक विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि बाबा साहब अम्बेडकर की विचारधारा को मानने वालों के लिए ये एक मुश्किल काम है कि वो महा परिनिर्वाण दिवस और शौर्य दिवस के इस बहस से दलित, आदिवासी और पिछड़े समाज को कैसे बाहर निकालें, क्योंकि बाबरी मस्जिद पर हमला सिर्फ मुसलमानों पर हमला नहीं बल्कि बाबा साहब के व्यक्तित्व पर भी हमला था।

ज़्यादातर लोग 25 नवम्बर को होने वाली धर्मसभा की खबरों को एक ऐसे आंदोलन की सफलता की तरह देख रहे हैं, जो अपने मंज़िल पर पंहुच चुका है। सत्ताधारी दल के कई नेता और विधायक खुले तौर पर यह बोल रहे हैं कि अगर ज़रूरत पड़ी तो 6 दिसंबर फिर से दोहराया जा सकता है या फिर सीधे माननीय उच्चतम न्यायालय को ही कटघरे में खड़ा कर दे रहे हैं। यहां शिवसेना के संजय राउत का बयान कि “हमने 17 मिनट में मस्जिद गिरा दी थी तो मंदिर बनाने में हमें कितना समय लगेगा।” यह बताता है कि यह लोग किस तैयारी के साथ अयोध्या में एक लाख लोगों को एकजुट कर रहे हैं।

किसी राष्ट्र को बर्बाद करना हो तो लोगो को धर्म के नाम पर लड़ा दीजिए, राष्ट्र अपने आप बर्बाद हो जायेगा - लियो टालस्टाय

यह एक समाज के विकृत और घृणित होने का सफर भी है और भारतीय मीडिया का संक्रमणकाल भी 25 नवम्बर को विहिप क्या करेगी, यह यहां आने वाले अधिकतर लोगों को पता होगा। बिल्कुल वैसे ही जैसे 6 दिसंबर 1992 में जुटी भीड़ के एक-एक व्यक्ति को लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी रथयात्रा के माध्यम से बता दिया था कि क्या करना है।

भीड़ किसी की नही होती, भीड़ की कोई शक्ल नहीं होती, इस तरह की बातों से सिर्फ कानून को धोखे में रखा जा सकता है। भीड़ की परिभाषा को थोड़ा समझने की ज़रूरत है। अगर भीड़ किसी व्यक्ति, जाति, लिंग या धर्म विशेष के खिलाफ बुलाई जाये या फिर उसको बुलाने का कोई खास उद्देश्य हो और उस उद्देश्य को पूरा करने के लिए ढेरों संसाधन के माध्यम से हजारों लोगों को जुटाया जाए, तो इस भीड़ की अपनी पहचान होती है।

लोगों को एकजुट करने वाले इसके ज़िम्मेदार लेकिन जैसा की सांप्रदायिक हिंसा, डायन प्रथा या लिंचिंग जैसे मामले में देखने को मिलता है कि कानूनन ऐसे मामले को भीड़ द्वारा हिंसा बताकर दोषियों को राहत दे दी जाती है। मगर इस बात को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है कि यह एक तरह के हिंसा के उद्देश्य से जमा लोग होते हैं। जो उस उद्देश्य को पूरा करते हैं लेकिन उनको यह पता होता है कि इस गैरकानूनी कृत्य से उनको बचा लिया जायेगा, जैसा कि बाबरी मस्जिद गिराए जाने और उसके बाद मुस्लिमों के खिलाफ हुई हिंसा में दोषियों को आज तक सजा नहीं हो पाई। यहाँ तक कि इस पूरे मामले में नामज़द आरोपियों को सांसद, विधायक, मंत्री और उप प्रधानमंत्री तक बनाया गया।

धर्मसभा बुलाने वालों को भली भांति यह पता है कि यह अकेला ऐसा मुद्दा है, जिसमें वह आरक्षण विरोधी और समर्थक दोनों को साध सकते हैं और मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाकर चुनाव में इसका लाभ ले सकते हैं, लेकिन हैरानी की बात यह है कि जब खुलेआम संविधान की धज्जियाँ उड़ाने की बात सत्ताधारी दल के विधायक कर रहे हैं तब कानून व्यवस्था कैसे बनी रहेगी।

अगर अयोध्या के मुसलमान इससे भयभीत हैं और पलायन कर रहे हैं तो राज्य और नहीं केंद्र सरकार इस पर कोई कदम उठा रही है और नहीं इस राज्य के माननीय राज्यपाल की तरफ से ही कोई बयान आया है। ऐसे माहौल में माननीय उच्चतम न्यायालय भी संज्ञान नहीं ले रहा, अगर किसी तरह की हिंसा होती है तो इसकी ज़िम्मेदारी किसकी होगी?

विपक्ष की भूमिका इस पूरे मामले पर बेहद निराशजनक है। कांग्रेस के सीपी जोशी और राजबब्बर का बयान कि मंदिर निर्माण कांग्रेस ही करा सकती है, इस पूरे जनविरोधी आन्दोलन को अपना समर्थन देता हुआ दिखाई पड़ रहा है। वहीं समाजवादी पार्टी की तरफ से अभी सिर्फ एक बयान आया है कि सरकार अयोध्या में सेना लगाये। बाबा साहब अम्बेडकर और समाजवाद की वकालत करने वाले राजनीतिक दलों की रहस्यमयी ख़ामोशी आम जनता को सोचने पर मजबूर कर रही है कि क्या वास्तव में यह राजनीतिक दल जनता के पक्ष में हैं।

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