जनज्वार, दिल्ली। संसद भवन से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर दिल्ली के हिंदुस्तान टाइम्स मीडिया में काम करने वाले 45 वर्षीय रविंदर की 12 अक्टूबर की रात भूख से मौत हो गयी। रविंदर एचटी मीडिया में बंडल बांधने का काम करते थे। उन्हें 300 अन्य मजदूरों के साथ 2 अक्टूबर 2004 में हिंदुस्तान प्रबंधन ने नौकरी से निकाल दिया था।
हिंदुस्तान द्वारा निकाले गए 300 कर्मचारियों—मजदूरों ने 13 साल पहले 'हिंदुस्तान टाइम्स इंप्लाइज यूनियन' बनाकर संघर्ष की शुरुआत की। संघर्ष करने वाले मजदूरों में करीब 30 की मौत हो चुकी है और 20 अन्य किसी न किसी रूप में निष्क्रिय हो चुके हैं या उनका पता नहीं है। अब आंदोलनकारियों में सिर्फ 250 लोग बचे हैं।
हिंदुस्तान से 2004 में जो 300 लोग जब निकाले गए उनमें मशीन मैन रामकुमार सिंह भी शामिल थे। रामकुमार सिंह बताते हैं, 'रविंदर मेरे साथ काम किया है। मैं मशीन पर था और वह बंडल बांधता था। नौकरी जाने के बाद कुछ ही महीने बाद उसकी बीवी अपनी बेटी के साथ कहीं और लेकर चली गयी। उसके बाद से वह धरना स्थल पर ही रहने लगा।'
दिल्ली के केजी मार्ग पर हिंदुस्तान अखबार की बिल्डिंग के नीचे निकाले गए कर्मचारियों का धरना स्थल है। यहां एक टेंट लगा है। इसी टेंट में रविंदर रहते थे। पैसे का कोई स्रोत नहीं था इसलिए पैसे का हमेशा संकट रहता था। वह इधर—उधर मांग कर खा लेते थे, क्योंकि कंपनी न तो उनका बताया दे रही थी और न ही काम पर रख रही थी।
रविंदर के साथी रामकुमार सिंह कहते हैं, 'रविंदर की मौत भुखमरी के कारण हुई है। वह लंबे समय से भुखमरी का शिकार था। कई बार हमलोग चंदा जुटाकर उसे खाने को देते थे। पर हमलोग खुद किसी तरह अपना पेट पाल रहे हैं, ऐसे में लगातार मदद संभव नहीं हो पाती थी। दूसरा हमारी मुलाकात भी किसी आंदोलन के दिन होती थी।'
आंदोलन के दूसरे लोगों का कहना है कि पुलिस ने भुखमरी के इस केस को छुपाने के लिए हमारे आने से पहले ही उसे अपने कब्जे में ले लिया। हमें वह दिखा तक नहीं रही है। नाटक यह है कि जिससे उसका डीएनए मैच करेगा, उसे वह लाश देगी। जब उसकी बीवी छोड़कर चली गयी, भाइयों ने घर बेचकर उसे भगा दिया फिर डीएनए किससे मैच होगा।' इससे पहले महेंद्र नाम का एक मजदूर भी आत्महत्या कर चुका है।
आंदोलनकारी कर्मचारियों के मुताबिक उनका मुकदमा दिल्ली हाईकोर्ट में चल रहा है। अगली सुनवाई 23 अक्टूबर को 16 नंबर कोर्ट में है। दुखित कर्मचारी कहते हैं कि जो लोग आंदोलन छोड़कर अपना हिसाब मांगते हैं, प्रबंधन उनको भी भगा देता है। महेंद्र नाम के मजदूर ने भी इसीलिए आत्हत्या की थी क्योंकि प्रबंधन ने हिसाब देने की बजाए उसे धक्के मारकर बाहर करा दिया था।
आंदोलन के पहले साल प्रबंधन ने करीब 8—9 महीने सैलरी दी थी जिसे बाद में बंद कर दिया था। उसके बाद से अबतक 26 आंदोलनकारियों की मौत हो चुकी है पर कोई सुनवाई नहीं है।