जम्मू—कश्मीर हाईकोर्ट ने 2002 में दिया था फैसला, राज्य के बाहरी व्यक्ति से विवाह करने वाली महिला के नागरिक अधिकार बरकरार रहेंगे, उनकी नागरिकता समाप्त नहीं की जा सकती
जम्मू कश्मीर में लागू धारा 35 ए के नाम पर भाजपा जिस तरह का दुष्प्रचार कर रही है, उससे निपटने के लिए जरूरी है पहले लोगों को यह तो पता चले कि आखिर 35 ए है ही क्या
मुनीष कुमार, स्वतंत्र पत्रकार
देश का हिमालयी राज्य जम्मू-कश्मीर एक बार फिर सुर्खियों में है। संविधान की धारा 35 ए को लेकर देश की सर्वाच्च अदालत में 5 जजों की बैंच द्वारा आगामी सितम्बर माह में सुनवाई की जाएगी।
35 ए को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में दो जनहित याचिकाएं विचाराधीन है।
वर्ष 2014 में ‘वी द सिटिजन’ नामक एनजीओ ने जम्मू-कश्मीर के निवासियों के अधिकारों को परिभाषित करने वाली संविधान की धारा 35 ए को चुनौती दी है। याचिकाकर्ता ने इसे देश के संविधान की भावना के खिलाफ बताते हुए इसे रद्द करने की मांग की है।
‘वी द सिटिजन’ का कहना है कि 35 ए देश के संविधान की धारा 14 कानून के समक्ष सभी को बराबरी, धारा 19 भारत के किसी भी भाग में रहने बसने का अधिकार तथा धारा 21 किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अथवा नहीं के खिलाफ है।
‘वी द सिटीजन’ का कहना है कि कश्मीर का अलगाववादी आंदोलन मात्र 4 जिलों तक ही सीमित है। गुर्जर, पहाड़ी, कश्मीरी सिख, पंडित, बौद्ध, डोगरा, सिया, राष्ट्रवादी मुस्लिम व लद्दाख के लोग उसमें भागीदारी नहीं करते है।
याचिकाकर्ता ने कहा है कि 1954 में एक अध्यादेश के द्वारा भारत के राष्टपति ने 35 ए को देश के संविधान में जोड़ दिया गया। तथा 35 ए को लागू करवाने के लिए भारत के संविधान की धारा 368 के तहत देश की संसद के दोनों सदनों में इसे पारित नहीं करवाया गया।
35 ए के तहत जम्मू-कश्मीर का वही व्यक्ति निवासी हो सकता है जो 1954 के पूर्व से वहां पर रह रहा हो। 35 ए के तहत किसी भी ऐसे व्यक्ति को जो राज्य का मूल निवासी नहीं है, उसे राज्य सरकार के आधीन रोजगार पाने का अधिकार नहीं है।
उसके तहत वह न तो राज्य में स्थाई रूप से बस सकता है और न ही वह अचल सम्पत्ति रखने का अधिकारी होगा। बाहरी व्यक्ति राज्य सरकार सरकार द्वारा दी जाने वाली स्काॅलरशिप आदि लेने का भी हकदार भी नहीं होगा। जम्मू-कश्मीर में बाहरी व्यक्ति को राज्य विधानसभा व स्थानीय चुनावों में वोट डालने का अधिकार भी नहीं है वह केवल लोक सभा के लिए ही वोट कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट में एक और याचिकाकर्ता चारुवली खन्ना ने भी संविधान की धारा 35 ए को रद्द करने की मांग की है। याचिकाकर्ता का कहना है कि संविधान की धारा 35 ए महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव करता है।
भारत के संविधान ने महिला-पुरुष दोनों को बराबरी के अधिकार दिये हैं। यदि कोई पुरुष राज्य के बाहर की महिला से विवाह करता है तो उसे जम्मू-कश्मीर की नागरिकता मिल जाती है और जो बेटी जम्मू-कश्मीर में पैदा हुयी है वह राज्य के बाहर विवाह करे तो वह राज्य की नागरिकता खो बैठती।
चारुवली खन्ना का कहना है कि वह विदेश में व भारत में सम्पत्ति खरीद सकती हैं, परन्तु अपने ही राज्य में वह इस अधिकार से वंचित हो गयीं है।
संविधान की धारा 35 ए को लेकर पक्ष व विपक्ष में तलवारे खिंच चुकी हैं। जम्मू-कश्मीर की सरकार व विपक्षी नेशनल कांफ्रेस आदि दल जहां इस कानून को जारी रखने के लिए पैरवी कर रही है, वहीं केन्द्र सरकार ने इस मामले को लेकर न्यायालय में अभी अपना मुंह नहीं खोला है।
जम्मू-कश्मीर में भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाने वाली पीडीपी की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने अपनी सहयोगी भाजपा को धमकी दी है कि धारा 35 ए के साथ छेड़छाड़ करने पर जम्मू-कश्मीर में कोई तिरंगा उठाने वाला भी नहीं मिलेगा।
प्रथमदृष्ट्या कोई भी व्यक्ति याचिकाकर्ता ‘वी द सिटिजन’ व चारुवली खन्ना के तर्कों से सहमत हो सकता है। परन्तु वास्तविकता को समझने के लिए मामले की तह में जाना जरूरी है।
जम्मू-कश्मीर भारत में विलय के समय से ही विवादास्पद रहा है। धारा 370 व जम्मू-कश्मीर की जनता को आत्मनिर्णय का अधिकार उसके विलय की शर्तों में शामिल है। देश की संविधान सभा में जम्मू-कश्मीर का कोई भी प्रतिनिधि शामिल नहीं था। देश में संविधान बनने के बाद भारत सरकार तथा जम्मू-कश्मीर के प्रतिनिधियों के बीच कई दौर की वार्ताओं के बाद 26 जुलाई 1952 को एक लिखित समझौता अस्तित्व में आया, जिसे देहली एग्रीमेंट के नाम से जाना जाता है।
इसी समझौते के तहत तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद द्वारा देश के संविधान में वर्ष 1954 में 35 ए जोड़ा गया जो कि जम्मू-कश्मीर के मूल निवासियों के अधिकारों को परिभाषित करता है।
जम्मू-कश्मीर के मसलों में भारत सरकार को केवल रक्षा, विदेश व संचार के मामलों में ही दखल का अधिकार था। इसके अतिरिक्त मसले पर कानून बनाने में केन्द्र सरकार के लिए राज्य विधानसभा का अनुमोदन आवश्यक है।
जम्मू-कश्मीर का अपना झंडा, सविधान, प्रधानमंत्री व सदर ए रियासत होने का प्रावधान था। वहां की विधानसभा का कार्यकाल भी 6 वर्ष के लिए होता है। संविधान की धारा 356 के तहत जम्मू-कश्मीर की सरकार को बर्खास्त भी नहीं किया जा सकता था। भारत के सर्वाेच्च न्यायालय को भी जम्मू-कश्मीर के मसलों पर सुनवाई का अधिकार नहीं था।
जम्मू-कश्मीर में डोगरा राजशाही ने 1927 से ही नौकरियों और सम्पत्ति को लेकर राज्य के बाहर के लोगोंं पर प्रतिबंध लगाया हुआ था।
वर्ष 2002 में जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट की बैंच ने डॉ. सुशीला साहनी बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य के मामले में दिए गये फैसले में कहा है कि राज्य के बाहरी व्यक्ति से विवाह करने वाली महिला के नागरिक अधिकार बरकरार रहेंगे, उनकी नागरिकता समाप्त नहीं की जा सकती। इसके बाद महिलाएं अपने अधिकारों से वंचित नहीं की जा सकती हैं।
भारत विभिन्न राष्ट्रीयताओं का समूह है। देश के संविधान की धारा 370 व 35 ए के तहत राज्य के मूल निवासियों को विशेष प्रकार के अधिकार केवल जम्मू कश्मीर में ही नहीं लागू हैं। जम्मू-कश्मीर के पड़ौसी हिमाचल प्रदेश में वहां के टीनेसी एक्ट की धारा 118 के तहत कोई भी गैर हिमाचली व्यक्ति राज्य मे कृषि भूमि नहीं खरीद सकता।
देश के संविधान की धारा 371 के तहत मणिपुर, नागालैंड, मिजोरम, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश में कोई भी बाहरी व्यक्ति जमीन नहीं खरीद सकता। केन्द्र सरकार इन राज्यों की संस्कृति, सामाजिक मान्यताओं व भूमि हस्तांतरण आदि के बारे में वहां की विधानसभा की अनुमति के बगैर कानून नहीं बना सकती है।
जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान व अन्य स्थानों से पलायन कर आकर बसे लोगों को यदि 35 ए के कारण नागरिक अधिकार नहीं मिले हैं तो इसके लिए भी कांग्रेस-भाजपा जैसे दल ही जिम्मेदार हैं।
भारत सरकार ने कभी भी जम्मू-कश्मीर का सर्वमान्य हल निकालने का प्रयास नहीं किया। भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर की जनता से जनमत संग्रह कर उसे आत्मनिर्णय का अधिकार देने का जो बायदा किया था उसे पूरा करने की जगह वहां की जनता के दमन का रास्ता अख्तियार किया है। जिस कारण जम्मू-कश्मीर का विवाद आज तक सुलझ नहीं पाया है।
जम्मू-कश्मीर में 35 ए को समाप्त करने का मतलब होगा जम्मू-कश्मीर की जनसांख्यकी में परिवर्तन। जिसके लिए जम्मू-कश्मीर के बहुलांश नागरिक तैयार नहीं हैं।
भारत सरकार का कहना है कि जिस तरह से बड़ी संख्या में लोग लोकसभा व विधानसभा चुनावों में मतदान कर रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि वहां के लोग भारत के साथ ही रहना चाहते हैं। याचिकाकर्ता ‘वी द सिटीजन’ का भी मानना है कि अलगाववादी आंदोलन कश्मीर के 4 जिलों तक ही सीमित रह गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि भारत सरकार जम्मू-कश्मीर में जनमत करवाने से क्यों घबरा रही है।
भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर को धारा 370 के तहत मिले विशेषाधिकार एक के बाद एक करके समाप्त कर दिये हैं। 35 ए भी इसी की कड़ी के रुप में देखा जा रहा है। अब वहां पर प्रधानमंत्री नहीं मुख्यमंत्री चुना जाता है। जम्मू-कश्मीर में सदर-ए-रियासत की जगह नई दिल्ली अब राज्यपाल नियुक्त करती है। भारत सरकार धारा 356 के तहत राज्य सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा सकती है। 1966 के बाद से भारत के सर्वाच्च न्यायालय में भी जम्मू कश्मीर के मुकदमे की अपीलें सुनी जाने लगी हैं।
जम्मू-कश्मीर में रह रहे 20 हजार रिफयूजी परिवारों को बराबरी का हक मिलना चाहिये। परन्तु उनके अधिकार के नाम पर धारा 35 ए को खत्म करने की पैरवी करने वाले लोग पहले इस बात का जवाब दे कि देश के जिन हिस्सों में 35 ए लागू नहीं है वहां के लोगों को क्या देश की सरकारों ने मूलभूत अधिकार दे दिये है।
उत्तराखंड का ही उदाहरण लें। उत्तराखंड में 200 से भी अधिक गांवों में बसे हजारों-हजार लोग जो वर्षों से यहां के निवासी हैं परन्तु वन भूमि पर बसे होने के कारण सरकारों ने उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर रखा हुआ है। वन भूमि पर बसे हुए लोग लोकसभा व विधानसभा में तो वोट दे सकते हैं परन्तु पंचायत चुनावों में उन्हें चुनने व चुने जाने का अधिकार नहीं है।
इतना ही नहीं वन भूमि पर बसे लोगों को सरकार ने स्थाई निवास प्रमाणपत्र जारी नहीं करके सरकारी नौकरियों से वंचित किया हुआ है। ग्रामीण क्षेत्रों को दी जाने वाली विभिन्न प्रकार की सामाजिक, आर्थिक योजनाओं व विकास कार्यो से भी वनग्राम के निवासियों को वंचित रखा हुआ है। ऐसे में भाजपा से यह उम्मीद करना की वह जम्मू-कश्मीर में रहने वाले रिफयूजियों को बराबरी का अधिकार देगी कोरी गप के सिवा कुछ नहीं है।
याचिकाकर्ता ‘वी द सिटिजन’ के अध्यक्ष संदीप कुलकर्णी आरएसएस से जुड़े बताए जाते हैं। भाजपा अपने साम्प्रदायिक एजेन्डे को न्यायपालिका के माध्यम से आगे बढ़ाना चाहती है। यदि मामला एक देश एक विधान का है तो मात्र जम्मू-कश्मीर की ही बात क्यों हो रही है। पूर्वोत्तर व अन्य राज्यों के मामले पर चुप्पी क्यों है।
(स्वतंत्र पत्रकार मुनीष कुमार आर्थिक मसलों के जानकार हैं और वह उत्तराखंड में समाजवादी लोक मंच के सहसंयोजक हैं।)