मोदी सरकार की 2500 गांवों को आदर्श गांव बनाने की योजना हुई टांय-टांय फिस्स
सांसदों की जिम्मेदारी थी कि वह अपने संसदीय क्षेत्र में आदर्श गांव बनाने हेतु गांव का चयन करें। उनके लिए योजनाएं बनाने, फंड जुटाने व माॅनीटरिंग की जिम्मेदारी भी सांसदों के लिए निर्धारित की गयी...
मुनीष कुमार की तल्ख टिप्पणी
इन लोकसभा चुनावों में राजनीतिक दलों के लिए प्रधानमंत्री मोदी की देश के गांवों को आदर्श गांव बनाने की योजना की असफलता मुद्दा नहीं है। 543 लोकसभा व 253 राज्यसभा के सांसदों द्वारा वर्ष 2019 तक 2500 गांवों को चरणबद्ध तरीके से गोद लेकर आदर्श गांव बनाने की योजना टांय टांय फिस्स हो गयी है।
इस योजना के तहत लोकसभा व राज्यसभा के मिलाकर 796 सांसदों को पहले चरण में 1 गांव व दूसरे व तीसरे चरण में दो-दो गांव गोद लेकर अपने संसदीय क्षेत्र के तीन गांवों को आदर्श गांव बनाना था।
11 अक्टूबर 2014 को प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा की थी कि देश के 6 लाख गांवों में से 2500 गांव 2019 तक आदर्श गांव बनाए जाएंगे। योजना बनायी गयी कि आदर्श गांव में कमजोर व गरीब लोगों को अच्छी तरह जीवन जीने के लिए सक्षम बनाया जाएगा।
गांवों में सफाई, स्वच्छता व श्रम की गरिमा होगी। महिलाओं को सम्मान व लैंगिक समानता, शांति, समानता जैसी बातें दस्तावेजों में दर्ज की गयी। बुनियादी सुविधाओं में सुधार, उत्पादकता में वृद्धि व असमानता कम करना आदि को उद्देश्य घोषित किया गया।
इसके तहत सांसदों की जिम्मेदारी थी कि वह अपने संसदीय क्षेत्र में आदर्श गांव बनाने हेतु गांव का चयन करें। उनके लिए योजनाएं बनाने, फंड जुटाने व माॅनीटरिंग की जिम्मेदारी भी सांसदों के लिए निर्धारित की गयी।
इस योजना पर यदि देश के कर्णधार माननीय सांसद ईमानदारी व निष्ठा के साथ काम करते तो देश के सभी 6 लाख गांवों को आदर्श गांव बनने में 12 सौ वर्ष का वक्त लग जाता, मगर हमारे माननीय की हालत तो यह है कि वे 12 वर्षों में भी देश के गांवों की स्थिति बदलने के लिए काम करने को तैयार नहीं हैं।
आदर्श गांव योजना के पहले चरण (2014-16) में लोकसभा के 543 माननीयों में से 500 ने तथा राज्यसभा के 253 में से 203 माननीयों ने एक एक गांव गोद लिया। दूसरे चरण (2016-18) में गांव गोद लेने वाले माननीयों की लोकसभा में संख्या घटकर लोकसभा में 326 व राज्यसभा में 121 रह गयी। तीसरे चरण (2017-19) में तो माननीयों की हालत और भी बुरी हो गयी।
फरवरी 2018 में आयी रिपोर्ट के अनुसार आदर्श ग्राम बनाने हेतु लोकसभा के मात्र 97 व राज्यसभा के मात्र 27 माननीयों ने गोद लेने के लिए गांवों को चयन किया था।
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हालत यह कि आज 5 वर्षों बाद भी सरकार की 12 सौ वर्षाें में पूरी होने वाली आदर्श ग्राम योजना खून के आंसू रो रही है। जनता के इन 796 कथित जनप्रतिनिधियों की हालत आज हमारे सामने है। हमाम में नंगे देश के राजनेता व दल इस अहम सवाल पर आपराधिक चुप्पी साधे हुए हैं।
आदर्श ग्राम योजना के सूत्रधार मोदी ने वाराणसी संसदीय क्षेत्र का जयापुर गांव गोद लिया था। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने आजमगढ़ का तमौली, मायावती ने लखनऊ का माल गांव, कांग्रेस नेत्री सोनिया गांधी ने रायबरेली का उडवा गांव, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अमेठी का दीह, क्रिकेटर से राजनेता बने सचिन तेंदुलकर ने आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले का गांव गोद लिया था। देश के खजाने से लाखों रुपए की तन्ख्वाह व सुख-सुविधाएं लेने वाले इन माननीयों के गोद लिए गये गांवों के वासी आज भी अपने सांसदों का इंतजार कर रहे हैं।
देश के इन 796 माननीयों को घर बैठे सारी सुख-सुविधाएं चाहिए, मुफ्त में हवाई व रेल यात्राएं चाहिए। विदेशों में सैर करने के लिए बजट चाहिए और जेड श्रेणी की सुरक्षा भी चाहिए। ऐसे लोगों के लिए शास्त्रों में कहा गया है कि वे पृथ्वी पर बोझ हैं तथा मनुष्य की योनी धारण करके भी जानवर जैसे विचरण करते हैं।
देश में 6 चरणों में होने वाले 17वीं लोकसभा चुनावों में 50 हजार करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं। राजनीतिक दलों के दमघोंटू प्रचार में कोई भी दल का कोई भी नेता के पास प्रधानमंत्री आदर्श गांव योजना की असफलता पर बोलने के लिए एक शब्द भी नहीं है।
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देश में यह चुनाव इसलिए नहीं हो रहा है कि देश की जनता अपना योग्य प्रतिनिधि संसद में चुनकर भेजेगी और वह वहां पर जनहित में नीतियां बनाएगा और गरीब-मेहनतकश जनता के लिए काम करेगा। यह चुनाव इस बात को लेकर हो रहा है कि लुटेरों का कौन सा गिरोह देश की जनता पर शासन करेगा।
कहने को तो हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, मगर इस लोकतंत्र में सारी ताकत लोक के हाथ में नहीं बल्कि एक तंत्र के हाथ में हैं जो जन सरोकारों से पूर्णतः कटा हुआ है।
प्रधानमंत्री की 12 सौ वर्षों में देश के गांवों को आदर्श गांव बनाने की योजना की असफलता से साफ है कि सत्ता में बैठे दल व गठबंधनों के पास जनता को देने के लिए मात्र जुमले ही हैं और कोई ठोस योजना नहीं है। वे देश के गांवों का कायाकल्प कर देगें अब देश में इस बात की तो अब कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
आदर्श गांव योजना के रुप में भी देश की विधायिका व कार्यपालिका की अक्षमता देश के सामने है। 2013 में उत्तराखंड में आयी आपदा के दौरान देखा गया कि केदारघाटी के गांवों में फंसे तीर्थयात्रियों का पेट भरने के लिए ग्रामीणों ने अपने कनस्तर खाली कर दिये, बेहद सीमित संसाधनों में भी उनको सुरक्षा प्रदान की।
वहीं दूसरी ओर राजनेता व अफसरों ने आपदा प्रभावितों के लिए आया पैसा, राशन व अन्य सामान अपनी जेबों व अपने घरों में भर लिया। सरकारी सहायता जब तक मौके पर पहुंची हजारों लोगों के जीवन का अंत हो चुका था।
ऐसे में यदि संसाधनों का नियंत्रण जनता के हाथों में होते तो आपदा के दौरान स्थिति कुछ और होती। हजारों तीर्थ यात्रियों का जीवन बचाया जा सकता था। 21वीं सदी में देशवासियों को देश चलाने के लिए एक नये माॅडल के बारे में सोचने की सख्त जरुरत है।
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