सत्ता की फिक्र में घुल रही मोदी सरकार रख रही सारे जरूरी काम ताक पर : पुण्य प्रसून
वातावरण में जब जहर घुल रहा है, देश में हर मिनट 5 लोगों की मौत प्रदूषण से हो रही है, तो क्या मोदी सरकार इस चिंता से वाकई दूर है या फिर सत्ता गंवाने की चिंता ने कहीं ज्यादा जहर फैला दिया है...
वरिष्ठ टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी का विश्लेषण
सत्ता होगी तो ही काम करेंगे। सत्ता जा रही होगी तो फिर सत्ता बचाने के लिये काम करेंगे और सत्ता जब नहीं होगी तो जो सत्ता में है वह समझे यानी जिम्मेदारी ले। मानिये या न मानिये देश कुछ इसी मिजाज से चलता है। इसका ताजा उदाहरण है पर्यावरण या कहे प्रदूषण को लेकर मोदी सरकार की समझ।
संयोग ऐसा हुआ कि जिस दिन गुजरात में सरदार पटेल की दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा का अनावरण प्रधानमंत्री को "स्टेच्यू आफ यूनिटी" के नाम से करना था, उसी दिन जेनेवा में ग्लोबल एयर पोल्यूशन बैठक थी। और अगला संयोग यही था कि इसी दौर में दिल्ली गैस चैंबर में बदल रही थी और है भी। उससे भी बडा संयोग ये था कि मोदी सरकार और सत्ताधारी बीजेपी ने देशभर में इसी दिन "यूनिटी रन" रखा, यानी एकता दौड़।
तो हुआ क्या? एक तरफ जब पूरी दुनिया हवा में बढ़ते प्रदूषण से परेशान है, दुनिय़ा के कमोवेश हर देश के प्रतिनिधि जेनेवा पहुंचे। वहा विश्व स्वास्थ्य संगठन के हेडक्वाटर में बैठक में शिरकत की। अपने अपने विचार रखे, तो दूसरी तरफ भारत का कोई भी प्रतिनिधित्व इस सम्मेलन में शामिल होने जेनेवा में डब्ल्यूएचओ के हेडक्वाटर पहुंच नहीं पाया, क्योंकि सभी देश में यूनिटी रन को सफल बनाने में लगे थे।
चूंकि डब्ल्यूएचओ पहली बार वायु प्रदूषण को लेकर इस तरह का सम्मेलन कर रहा था और दुनियाभर की रिपोर्ट में जब ये आया कि दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 14 शहर भारत के हैं तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तीन केंद्रीय मंत्रियों, पर्यावरण मंत्री हर्षवर्धन, स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा और पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान को निमंत्रण भेजा। खासकर भारत की मुश्किलों को लेकर भारत के प्रतिनिधि क्या कहते हैं इस पर डब्ल्यूएचओ ही नहीं, बल्कि दुनिया के तमाम देशों की नजर थी।
विकासशील देश भारत बिजनैस के लिये एक बाजार के तौर पर उभर रहा है और आईएमएफ तथा विश्व बैक भी चाहते हैं कि भारत पर्यावरण को लेकर संयुक्त राष्ट्र और पेरिस समझौते में जो चिंता जता रहा है वह पहली बार वायु प्रदूषण को लेकर होने वाले सम्मेलन में भी उभरे, लेकिन सरदार के लिये सत्ता की एकता दौड यानी 'यूनिटी रन' ही इतनी महत्वपूर्ण हो गई कि कोई भी सम्मेलन में शामिल होने गया ही नहीं।
भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिये ग्लोबल एयर पाल्यूशन के सम्मेलन में कोई नहीं पहुंचा। देश के पर्यावरण मंत्री हर्षवर्धन दिल्ली में "रन फार यूनिटी" में व्यस्त हो गये, तो स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा गुवाहाटी में यूनिटी रन कराने लगे और पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान भुवनेश्वर में यूनिटी रन को झंडा दिखाने पहुंच गये। यानी एक तरफ प्रदूषण से लेकर भारत का हाल कितना बुरा है ये इससे भी समझा जा सकता है कि 2016 में पांच बरस से कम के एक लाख बच्चों की मौत प्रदूषण की वजह से हो गई।
आंकड़े बताते हैं कि हर मिनट 5 लोगों की मौत देश में सिर्फ प्रदूषण से हो जाती है। यानी साल भर में 25 लाख से ज्यादा लोग देश में प्रदूषण से मर जाते हैं और इससे निजात कैसे मिले इस पर जब दुनियाभर के विशेषज्ञ और स्कालर वायु प्रदूषण पर चर्चा कर रहे थे। खासकर पहली बार वायु प्रदूषण के मद्देनजर प्रकृति के मल्टी-डायमेशनल दोहन की वजह से होने वाले प्रदूषण पर चर्चा हो रही थी।
उसके बाद दुनियाभर के देशों के प्रतिनिधि इसलिये जुटे की जो भी रिजल्ट निकले उसमें वह अपने अपने देश लौटने के बाद उन कदमों को उठायें जिसे जेनेवा में पास किया गया, पर भारत की तरफ से आखिरी दिन दो नौकरशाहों की मौजूदगी रही, जो कहते क्या या सुनते क्या, ये भी हर कोई जानता है।
देश तो चुनावी मोड में चला गया है तो सत्ता को फिक्र सत्ता बरकरार रखने की ज्यादा है। सारे काम चुनावी जीत के मद्देनजर ही हो रहे हैं। सच भी यही है कि पीएमओ से लेकर नीति आयोग तक में बैठे नौकरशाह सिर्फ रूटीन कार्य कर रहे हैं और कई मंत्रालयों में तो सारे काम ठप पडे हैं या कहे सारे सत्ता की चुनावी जीत बरकरार रखने में सिमट चुके हैं।
खास बात तो ये भी है कि पर्यावरण प्रदूषण ही नहीं बल्कि वायु प्रदूषण से निपटने के लिये भी भारत ने जितने कार्यक्रम बनाये हैं और दुनिया के तमाम देशों को जो सुझाव अपने प्रोग्राम के नाम के जरिये भारत देता है वह शानदार है। लेकिन भारत में ही कोई प्रोग्राम पूरा नहीं होता। मसलन देश के सौ शहरों के लिये नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम को निर्धारित वक्त में पूरा करना था। ये पूरा तो दूर कई शहरों में शुरू ही नहीं हो पाया।
जैसे सत्ता को लगता है वह अनंतकाल तक रहे, वैसे ही हर पालिसी भी अनंतकाल तक चलती रही। सोच यही है। असर इसी का है कि प्रदूषण के बोल बड़े—बड़े हैं, लेकिन उस लागू कोई करता। नहीं तो फिर हालात ये भी है कि देश में प्रर्यावरण मंत्रालय का कुल बजट ही 2675 करोड़ 42 लाख रुपये है।
जिस देश में प्रदूषण की वजह से हर मिनट 5 यानी हर बरस 25 लाख से ज्यादा लोग मर जाते हैं उस देश में पर्यावरण को ठीक रखने के लिये बजट सिर्फ 2675.42 हजार करोड़ है। 2014 के लोकसभा चुनाव में खर्च हो गये 3870 करोड़। औसतन हर बरस बैंक से उधारी लेकर न चुकाने वाले रईस 10 लाख करोड़ डकार रहे हैं। राजस्थान-मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ के चुनाव प्रचार में ही तीन लाख करोड़ से ज्यादा प्रचार प्रसार में फूंकने की तैयारी हो चुकी है।
देश के पर्यावरण के लिये सरकार का बजट है 2675.42 करोड़ और उस पर भी मुश्किल ये है कि पर्यावरण मंत्रालय का बजट सिर्फ पर्यावरण संभालने भर के लिये नहीं है, बल्कि दफ्तरों को संभालने में 439.56 करोड खर्च होते हैं। राज्यों को देने में 962.01 करोड खर्च होते हैं। तमाम प्रोजेक्ट के लिये 915.21 करोड़ का बजट है। नियामक संस्थाओं के लिये 358.64 करोड़ का बजट है। इस पूरे बजट में से अगर सिर्फ पर्यावरण संभालने के बजट पर आप गौर करेगंगे तो जानकर हैरत होगी कि सिर्फ 489.53 करोड़ ही सीधे प्रदूषण मुक्ति से जुड़ा है, जिससे दिल्ली समेत समूचा उत्तर भारत हर बरस परेशान हो जाता है।
प्रदूषण को लेकर जब हर कोई सेन्ट्रल पौल्यूशन कन्ट्रोल बोर्ड से सवाल करता है तो सीपीसी का कुल बजट ही 74 करोड 30 लाख का है। पर्यावरण को लेकर जब देश के पर्यावरण मंत्रालय के कुल बजट का हाल ये है कि देश में प्रति व्यक्ति 21 रुपये सरकार खर्च करती है। इसके बाद इस सच को समझिये कि एक तरफ देश में पर्यावरण मंत्रालय का बजट 2675.42 करोड़ है, दूसरी तरफ पर्यावरण से बचने का उपाय करने वाली इंडस्ट्री का मुनाफा 3 हजार करोड़ से ज्यादा का है।
पर्यावरण को लेकर इन हालातों के बीच ये सवाल कितना मायने रखता है कि देश के पर्यावरण मंत्री हर्षवर्धन पिछले बरस जब दिल्ली गैस चैबर बनी तब जर्मनी में थे और इस बार जब गैस चैबर से मुक्ति के उपाय के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जेनेवा आने को कहा तो इंडिगा गेट पर "रन फार यूनिटी" के लिये झंडा दिखाकर दौड रहे थे।
ऐसे में आखिरी सवाल जीने के अधिकार का भी है क्योंकि संविधान की धारा 21 में साफ साफ लिखा है जीने का अधिकार। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वस्थ वातावरण में जीवन जीने के अधिकार को पहली बार उस समय मान्यता दी गई थी, जब रूरल लिटिगेसन एंड एंटाइटलमेंट केंद्र बनाम राज्य, AIR 1988 SC 2187 (देहरादून खदान केस के रूप में प्रसिद्ध) केस सामने आया था।
यह भारत में अपनी तरह का पहला मामला था, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के तहत पर्यावरण व पर्यावरण संतुलन संबंधी मुद्दों को ध्यान में रखते हुए इस मामले में गैरकानूनी खनन रोकने के निर्देश दिए थे। वहीं एमसी मेहता बनाम भारतीय संघ, AIR 1987 SC 1086 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदूषण रहित वातावरण में जीवन जीने के अधिकार को भारतीय संविधान के अनु्छेद 21 के अंतर्गत जीवन जीने के मौलिक अधिकार के अंग के रूप में माना था।
फिर दिल्ली के वातावरण में जब जहर घुल रहा है, देश में हर मिनट 5 लोगों की मौत प्रदूषण से हो रही है, तो क्या सत्ता सरकार इस चिंता से वाकई दूर है या फिर सत्ता गंवाने की चिंता ने कहीं ज्यादा जहर फैला दिया है।