गाय के नाम पर देश भर में गुंडई कर रहे संघ और भाजपा के लंपट क्या जानते हैं कि हिंदुत्ववादियों के सबसे बड़े नेता वीर सावरकर का गाय के बारे में क्या था विचार, उनकी सोच कितनी वैज्ञानिक और तार्किक थी...
सुभाष रानडे, वरिष्ठ पत्रकार
विनायक दामोदर सावरकर हिंदुत्व की राजनीती के एक प्रवर्तक माने जाते हैं। गैरमराठी भाषियों में उनकी यही पहचान हैं। लेकिन महाराष्ट्र में उनकी पहचान सिर्फ एक हिंदूवादी की नहीं बल्कि एक क्रन्तिकारी , साहित्यकार, समाज सुधारक और कट्टर बुद्धिवादी के रूप में भी है।
अपनी युवावस्था में वे इंग्लैंड पढ़ने गए थे और वहां उन्होंने देश की आजादी के लिए अन्य युवकों को साथ लेकर क्रांतिकारी समूह बनाया। उनके इतालवी और रुसी क्रांतिकारियों से भी संबंध थे। क्रांतिकारी गतिविधियों के चलते अंग्रेजी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर दो उम्रकैद की सजा सुनाई। वे 12 वर्ष अंदमान की जेल में रहे।
राजनीति में भाग नहीं लेने की शर्त पर उन्हें अंदमान की जेल से रिहा कर रत्नागिरी में नजरबन्द रख गया। वहां भी वे 12 वर्ष रहे । इन वर्षों में सावरकर ने विपुल साहित्य सृजन किया। उन्होंने उपन्यास, नाटक, कविता, निबंध आदि विधाओं में लगातार लेखन किया।
अपनी नजरबंदी के दौरान हिन्दू समाज में व्याप्त धार्मिक अंधविश्वासों पर निर्मम प्रहार करने वाल े उनके लेखों ने एक जमाने में धूम मच दी थी। उन्होंने जातिप्रथा,यज्ञ, हवन, व्रत-अनुष्ठानों, गाय- पूजा आदि की जमकर खिल्ली उड़ाई। इन लेखों को यदि आदित्यनाथ, गिरिराज सिंह, साक्षी महाराज जैसे आज के हिंदूवादी पढ़ लें तो वे सावरकर को भी मरणोंपरांत पाकिस्तान भेजने की मांग करने लगेंगे।
गोमाता की आजकल काफी चर्चा है, इसलिए मिसाल के तौर पर सावरकर का गाय पर लेख देखिए।
गोपालन, गोपूजन नहीं' शीर्षक से लिखे इस लेख में वे कहते हैं 'गाय को सिर्फ एक उपयोगी पशु के रूप में ही देखा जाना चाहिए। गोपालन पर जरूर जोर दिया जाना चाहिए लेकिन गाय देवता है,गोरक्षा धर्म है वगैरह बातें अन्धविश्वास हैं। यदि कोई यह समझता है की गाय को देवता मानने से लोग उसका पालन अच्छी तरह से करने लगेंगे, तो यह सिर्फ भोलापन नहीं बल्कि समाज की बुद्धिहत्या का कारण भी है। इसलिए सभी गोरक्षक संस्थाओं को गोपालक बनना चाहिए और वैज्ञानिक साधनों का उपयोग करते हुए यह देखना चाहिए की मानव के लिए यह पशु किस तरह उपयोगी हो सकता है।
गाय के गले में प्यार से घंटी जरूर बांधिए, लेकिन उसी भावना से जिस भावना से आप कुत्ते के गले में पट्टा बांधते हैं। उस भावना से नहीं जिस भावना से आप देवता को पुष्पहार पहनाते हैं। यहाँ सवाल सिर्फ एक अन्धविश्वास का नहीं बल्कि उन तमाम सैकड़ों अंधविश्वासों का है का भी है जो अपने समाज की बुद्धिहत्या कर रहे हैं।
सावरकर के लिखते हैं, गाय में तैंतीस करोड़ देवता रहते हैं, आदि भौंडी अवधारणाओं पर कविताएं रचकर, इसे ही हिन्दू धर्म बताया गया तो इससे गाय की रक्षा नहीं होगी, बल्कि इससे अंधविश्वास की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है। जिसमें साधारण मनुष्य से अत्यधिक सद्गुणों, सद्शक्ति और सद्भावना का विकास होता है वही देवता कहलाता है, लेकिन पशु तो मानव से भी अधिक हीन दर्जे का है। जिस प्राणी में किसी बुद्धिहीन मानव जितनी भी बुद्धि नहीं, ऐसे किसी पशु को देवता मानना, मानवता का अपमान है।
सावरकर ने गाय की पूजा का मखौल उड़ाते हुए लिखा, '' .. बाड़े में खड़े होकर चारा खाती गाय वहीँ पर खाते खाते मल- मूत्र विसर्जन करती है और उसी गन्दगी में बैठकर अपनी पूछ फटकारते हुए अपने ही शरीर पर उसे उड़ाती है। मौका मिलते ही वह रस्सी तोड़कर भाग जाती है और गन्दगी में मुँह मारती है । उसे पकड़कर फिर बाड़े में बांधा जाता है। ऐसी गन्दगी में सराबोर गाय को निर्मल व् श्वेत वस्त्र परिधान किए कोई ब्राह्मण और महिला हाथों में पूजा पात्र लिए पूजते हैं, फिर चांदी के प्याले में उसका गोबर और मूत्र लेकर पीते हैं । इस कर्मकांड के बाद वे अपने आप को अधिक निर्मल व पवित्र अनुभव करते हैं । यह वही पवित्रता है जो आम्बेडकर जैसे महान धर्मबंधू की छाया मात्र से अपवित्र हो जाती है । वाह .. पशु को देवता बना दिया और आम्बेडकर जैसे देवतातुल्य महामानव को पशु । पशु को देवता मानने से मानवता का जो अवमूल्यन होता है , वह सिर्फ सांकेतिक भी होता तो इतना बुरा नहीं लगता लेकिन ' गाय देवता है .. वह गोमाता है ' जैसे वाक्यों को सिर्फ अलंकारिक भाषा न मानते हुए , उसे धर्म मानकर प्रत्यक्ष व्यवहार में गोपूजा की वेदी पर मानव हित की भी बलि दी जाती है , तो ऐसी गोभक्ति का विरोध राष्ट्रीय कर्तव्य बन जाता है । ''
गोबर और गोमूत्र का महिमा मंडन करने वालों को कड़ी फटकार लगाते हुए सावरकर ने लिखा है,
''..... गाय को पवित्र मानकर उसका मूत्र और गोबर समारोहपूर्वक पीना, यह आचार है या अत्याचार ? कहते हैं गोमूत्र से फलाने रोग अच्छे होते है और गोबर अच्छी खाद है। यदि ऐसा है तो उस रोगी को गोमूत्र पीने दीजिए । घोड़े का मूत्र, गधी का मूत्र और मुर्गी का मल भी उपयोगी औषधियां हैं । मानव मूत्र में भी कुछ उपयोगी पशु गुण हैं । कुछ ख़ास रोगों में उसे लेते भी है । इसी तरह गोमूत्र भी लीजिए ।.... गोबर यदि खाद है तो खेत में डालिए, पेट में क्यों ? ... गोभक्त, गोबर और गोमूत्र पर की महिमा पर चाहे जितने लेख प्रकाशित करवाएं, वे उस रोगी को भले ही लाभ पहुंचाए, लेकिन गोबर व गोमूत्र का सेवन पुण्य कैसे हो सकता है ?
भारत में गोपालन की दुर्दशा की तुलना में अमेरिका में की स्थिति का उल्लेख करते हुए सावरकर लिखते हैं,
''..... भारत की तरह अमेरिका के कुछ कृषिप्रधान क्षेत्रों में गोधन की जरूरत है, लेकिन वे गाय को सिर्फ एक उपयोगी मानते हैं इसलिए गोपालन को अपना कर्त्तव्य समझते हैं। वे इसके लिए वैज्ञानिक तरीके अपनाते हैं । भागवत कथा में जिस तरह के गोकुल का वर्णन किया गया है, वे यदि कहीं है तो गोमांस भक्षक अमेरिका में। वहां गाय को उपयोगी पशु मानकर उसका संवर्धन किया जाता है और गाय को देवता मानकर पूजने तथा उसके गोबर - गोमूत्र सेवन को पुण्य कर्म समझने वाले भारत में कौन सी गोरक्षक संस्थाएं है - कसाई खाने और पिंजरा पोल।'
उपयोगिता की दृष्टि से भी गाय के महिमामंडन के अतिरेक को गलत बताते हुए वे लिखते है , 'घोड़ा और कुत्ता, ये दो पशु तो गाय के भी पहले से, मानव के प्रति अत्यन्त निष्ठावान सेवक रहे हैं । कृषियुग और गोपालनयुग से पहले आखेट युग में, जब मानव भटक रहा था, तब भी घोडा और कुत्ता ही उसके साथी थे। स्वामी की प्राणरक्षा के लिए हिंसक पशु पर भी झपटने वाला, चोर - लुटेरों से दिन - रात घर की रक्षा करने वाला और स्वामी के सोने पर अपलक पहरादेने वाला कुत्ता क्या हमारे लिए किसी अन्य पशु से कम उपयोगी है ? दरवाजे के पास पड़ा रहता है, रोटी के टुकड़े खाता है और कई बार फटकारा भी जाता है। ऐसे विनम्र कुत्ते का कितना सम्मान है ? उसका नाम भी गाली है और जात अछूत।
उपयोगिता की दृष्टी से घोड़े की योग्यता भी किसी अन्य पशु से कम नहीं है। युद्ध में राजाओं का जीवन - मरण कई बार उनकी अश्व- शक्ति पर ही निर्भर रहा हैं । गाय तो उपयोगी है ही, लेकिन उसके दूध की किल्लत भी कुछ खास महसूस नहीं होती, भैंस उसके अभाव को काफी हद तक पूरा करती है... कई देशों में गधा भी उतना ही उपयोगी है जितनी हमारे देश में गाय।
जब ईसा मसीह यरुशलम में अपना पहला विजय प्रवेश कर रहे थे तब उन्होंने धर्म और ईश्वरीय कार्य के लिए उपयुक्त वाहन के रूप में गधे को चुना। शुभ्र- श्वेत गधे पर सवार होकर देवदूत ईसा मसीह ने यरुशलम में प्रवेश किया। कई देशों में आज भी गधे कई सवारी कई जाती है। सिंध में भी गधे की सवारी का उपयोग होता रहा है। कई जातियों की जीविका ही गधे पर निर्भर है। घर के सदस्य की तरह वह बेचारा अपने स्वामी के लिए परिश्रम करता है, बोझ ढ़ोता है। बेचारा घूरे को खंगालकर जो मिल जाए, उसी पर गुजर करता है।
इतना ईमानदार और सहनशील होने के बावजूद आज तक किसीने उसे देवता नहीं माना या गर्दभ गीता रचकर गधा पूजने वाले संप्रदाय की स्थापना नहीं की। कुम्हार भी गधा पालन को अपना कर्तव्य समझता है, उसकी पूजा नहीं करता । घोडा उपयोगी पशु है इसलिए किसी ने उसे अश्वदेव के रूप में पूजकर प्रतिवर्ष चौमासे में खुद घोड़े पर सवार होने के बजाय घोड़े को ही अपना सवार बनाने का व्रत प्रचलित नहीं किया । कुत्ता तो बहुत उपयोगी है इसलिए किसीने कुत्ते को देवता मानकर श्वानहत्या को पाप नहीं कहा।
गाय उपयोगी पशु है, इसलिए उसे देवता मानकर जो पागलपन हम करते है, क्या उसे सिर्फ मूर्खता नहीं कहा जाना चाहिए? उपयोगी पशु के रूप में घोडा, कुत्ता, गधा आदि पशुओं का पालन हो रहा है, उसी तरह गाय का भी, देवता नहीं मानने के बावजूद,पालन होगा। हमारी महान हिन्दू संस्कृति का यदि कोई मजाक उड़ाता है तो वे हैं पुण्यकर्म के नाम पर गोमूत्र पीने और गोबर का सेवन करने जैसी रूढ़ियां।
(सुभाष रानडे ने यह लेख मराठी में प्रकाशित सावरकर के लेखों के संकलन 'क्ष किरण' के चैप्टर 'गोपालन, गोपूजन नाहे' से लिया है। सावरकर ने यह पुस्तक 1924 से 1936 के बीच लिखी थी।)