वैज्ञानिकों ने कंकालों की झील रूपकुंड के रहस्य से पर्दा उठाया, कहा सभी कंकाल नहीं भारतीयों के

Update: 2019-09-05 13:16 GMT

रूपकुंड अपने में बहुत सारे रहस्य समेटे हुए है और जब तक इन रहस्यों से पर्दा नहीं हटता, तब तक इसे पूरी तरीके से संरक्षित रखने की आवश्यकता है...

महेंद्र पाण्डेय की रिपोर्ट

त्तराखंड के चमोली जिले में हिमालय के त्रिशूल (7120 मीटर) और नंदा देवी (6310 मीटर) शिखरों के बीच स्थित रूपकुंड को कंकालों की झील भी कहा जाता है, क्योंकि इसके किनारे और यहाँ तक की पानी के नीचे भी लगभग 300 नर-कंकाल बिखरे पड़े हैं। जब गर्मियाँ तेज होती हैं और आसपास की बर्फ पिघलती है, तभी ये कंकाल नजर आते हैं।

रूपकुंड की गहराई 2 मीटर है। समुद्रतल से इसकी ऊंचाई 5020 मीटर है। वैज्ञानिकों के एक अंतरराष्ट्रीय दल ने अभी हाल में ही इन कंकालों का विस्तृत अध्ययन कर उनके रहस्य को उजागर करने का प्रयास किया है।

ब तक यही माना जाता रहा है कि ये सभी कंकाल एक साथ इकट्ठा लोगों के हैं, जो किसी धार्मिक उत्सव में एक साथ रूपकुंड तक गए और फिर युद्ध या महामारी या तेज तूफ़ान या भीषण बर्फबारी के चपेट में आने से सबकी मृत्यु एक साथ हो गयी। कुछ लोग तो इसे सामूहिक-आत्महत्या भी मानते हैं। पर नए अध्ययन से स्पष्ट है कि ये कंकाल अलग-अलग समय के हैं और लोग भी अलग-अलग नस्ल के थे। इस नए अध्ययन को “नेचर कम्युनिकेशंस” नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है।

स अध्ययन के लिए 38 कंकालों के डीएनए का विस्तृत अध्ययन किया गया है। इसमें 15 कंकाल महिलाओं के थे। इसके अनुसार तीन विशिष्ट नस्ल के लोग थे और इनकी मृत्यु 800 इस्वी से 1800 इस्वी के बीच अलग-अलग समय पर हुई है।

कुल 23 कंकाल दक्षिण एशिया के लोगों के हैं, जिन्हें स्थानीय या भारतीय कहा जा सकता है, जबकि चार कंकाल पूर्वी मेडिटरेनीयन (ग्रीस के आसपास) के निवासियों के हैं। एक कंकाल पूर्वी या दक्षिण पूर्वी एशिया के निवासी का है। संभव है यह भारत के किसी हिस्से का हो सकता है या फिर भारत के किसी पड़ोसी देश का। सबसे अंत में यानी वर्ष 1800 के आसपास मृत्यु पूर्वी मेडिटरेनीयन निवासियों की ही हुई थी।

स अध्ययन के सदस्य रहे बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ़ पैलीओसाइंसेज के वैज्ञानिक नीरज राय के अनुसार इस अध्ययन से इतना स्पष्ट है की ये सभी लोग अलग-अलग जगह से भिन्न समय पर आये थे और इनमें आपस में कोई सम्बन्ध नहीं था।

स बर्फीली झील की खोज सबसे पहले अंग्रेजों ने 19वीं शताब्दी में किया था और उस समय माना गया था की यह इस रास्ते से आ रहे जापानी सैनिकों की टोली के कंकाल हैं। फिर 1942 में नंदा देवी गेम रिज़र्व के रेंजर हरिकृष्ण मेधवाल ने इस झील को दुबारा खोजा। कुछ वर्ष पहले सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी के वैज्ञानिकों ने अध्ययन कर बताया था कि इन कंकालों ने 30 प्रतिशत भारतीयों के 70 प्रतिशत कंकाल वर्तमान ईरान के आसपास के लोगों के हैं और इनकी मृत्यु 9वीं शताब्दी में हुई होगी।

कुछ स्थानीय कथाओं के अनुसार बहुत पहले कन्नौज के राजा जसधवल अपनी गर्भवती पत्नी, सैनिकों और दरबारी नर्तकियों के साथ इस झील के किनारे प्रवास कर रहे थे, तभी भारी बर्फबारी के कारण इन लोगों की मृत्यु हो गयी। ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्%

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