पुण्य प्रसून बाजपेयी ने लगाया सांसदों, विधायकों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों की सेलरी का हिसाब
सरकारों ने इस मंत्र को बखूबी समझ लिया है कि पेट्रोल-डीजल पर जनता भले अभी रोए, लेकिन चुनावी बिसात पर वोट जाति-धर्म के आसरे ही पड़ेंगे। ऐसे में जनता को रोने दिया जाए या कभी कभार एक-दो पैसे का लॉलीपॉप पकड़ाकर पेट्रोल-डीजल की कीमतों को अपने आप स्थिर होने दिया जाए....
पुण्य प्रसून बाजपेयी, वरिष्ठ पत्रकार
देश के जितने भी सांसद, विधायक, मंत्री और जितने भी पूर्व सांसद, विधायक, मंत्री हैं उनपर हर दिन 3 करोड 33 लाख रुपये खर्च हो जाते हैं। इसमें पीएम और सीएम के खर्चे नहीं जोड़े गये हैं। 30 लाख रुपये प्रतिदिन देश के राज्यपालों की सुविधा पर खर्च हो जाते हैं और इन दोनों के बीच फंसा हुआ है एक पैसा, जो बुधवार को लगातार 17 दिन पेट्रोल डीजल की कीमतों के बढ़ने के बाद सस्ता किया गया।
कैसा होता है एक पैसा, लोग तो ये भी भूल चुके होंगे। पर मुश्किल तो ये भी है लोग नेताओं की रईसी भी भूल चुके हैं। क्योंकि जिस पेट्रोल-डीजल के जरिए अरबों-खरबों रुपये मोदी सरकार से लेकर हर राज्य सरकार ने बनाये। कंपनियों ने बनाये। उसकी मार से आहत जनता के लिये प्रति लीटर एक पैसा कैसे कम किया जा सकता है।
वाकई ये अजीबोगरीब विडंबना है कि जिस पेट्रोल की कीमतों के आसरे देश के 60 करोड़ लोगों की जिन्दगी सीधे प्रभावित होती हैं, उसकी कीमत में एक पैसे की कमी की गई। जिन्हें देश के लिये नीतियां बनानी होती हैं वह बरसों बरस से अरबो खरबों रुपये रईसी में उडाते हैं। मसलन आंकडों के लिहाज से समझे देश में कुल 4582 विधायकों पर साल में औसतन 7 अरब 50 करोड़ रुपए खर्च होते हैं।
इसी तरह कुल 790 सांसदों पर सालाना 2 अरब 55 करोड़ 96 लाख रुपए खर्च होते हैं। और अब तो राज्यपाल भी राजनीतिक पार्टी से निकल कर ही बनते हैं तो देश के तमाम राज्यपाल-उपराज्यपालों पर एक अरब 8 करोड रुपये सालाना खर्च होते हैं। खर्चों के इस समंदर में पीएम और तमाम राज्यो की सीएम का खर्चा जोड़ा नहीं गया है। फिर भी इन हालातों के बीच अगर हम आपसे ये कहे कि नेताओं को और सुविधा चाहिये। कैसी सुविधा इससे जानने से पहले जरा खर्च को समझे जो एक दिन में उड़ा दी जाती है या कमा ली जाती है।
एक दिन में पेट्रोलियम पदार्थों पर एक्साइज ड्यूटी भर से केंद्र सरकार के खजाने में 665 करोड़ रुपए आ जाते हैं। राज्य सरकारों को वैट से 456 करोड़ की कमाई होती है। पेट्रोलियम कंपनियों को एक दिन में पेट्रोल-डीजल बेचने से 120 करोड़ रुपए का शुद्ध मुनाफा होता है। प्रधानमंत्री के एक दिन के विदेश दौरे पर 21 लाख रुपए खर्च होते हैं, तो केंद्र सरकार का विज्ञापनों पर एक दिन का खर्च करीब 4 करोड़ रुपए है।
कितने उदाहरण दें। सिर्फ एक दिन में मुख्यमंत्रियों के दफ्तर में चाय-पानी पर 25 लाख रुपए खर्च होते हैं। प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम एक संदेश में 8 करोड 30 लाख रुपये खर्च हो जाते हैं। जिस अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों का हवाला देकर सरकार महंगे पेट्रोल का बचाव करती रही-उसका नया सच यह है कि बीते पांच दिन में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में पांच डॉलर प्रति बैरल की कमी आ चुकी है।
जब कच्चा तेल महंगा था-तब पेट्रोल उसकी वजह से महंगा था, और अब सस्ता हो रहा है तो क्यों पेट्रोल-डीजल सस्ता नहीं हो रहा-इसका जवाब किसी के पास नहीं है। अलबत्ता-खजाने पर चोट न पड़ जाए-इसकी चिंता राज्य सरकारों से लेकर पेट्रोलियम कंपनियों और केंद्र सरकार तक सबको है। ऐसे में सवाल दो हैं। पहला, क्या पेट्रोल-डीजल के दामों में और कमी की अपेक्षा बेमानी है? दूसरा, अगर पेट्रोल-डीजल के दाम अब और नहीं बढ़ेंगे तो क्या अब जीएसटी में लाने से लेकर वैट या एक्साइज ड्यूटी कम करने जैसे कदम अब जनता भूल जाए?
सरकारों ने इस मंत्र को बखूबी समझ लिया है कि पेट्रोल-डीजल पर जनता भले अभी रोए, लेकिन चुनावी बिसात पर वोट जाति-धर्म के आसरे ही पढ़ेंगे और चुनावी खेल जीतने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति ही अपनानी होगी। ऐसे में जनता को रोने दिया जाए या कभी कभार एक-दो पैसे का लॉलीपॉप पकड़ाकर पेट्रोल-डीजल की कीमतों को अपने आप स्थिर होने दिया जाए।
जनता के लालीपाप के एवज में नेताओं को तमाम सुविधायें किस तरह चाहिये, उसका एक नजारा ये भी है कि एक वक्त दिल्ली को राष्ट्र्रकवि दिनकर ने तो रेशमी नगर कहा था। जेठ का अनूठा सच यही है कि जितनी बड़ी दिल्ली है उसे अगर खाली कराकर देश के नेताओं के हवाले कर कर दिया जाये, तो हो सकता है दिल्ली छोटी पड जाये।
रईसी और ठाटबाट होते क्या हैं चलिये ये भी समझ लीजिये। लोकसभा राज्यसभा के 790 सांसद। देशभर के 4582 विधायक। देश के 35 राज्यपाल-उपराज्यपाल। देशभर के सीएम और एक अदद पीएम। देश भर हारे हुये या कहे पूर्व सीएम। नेताओं के नाम चलने वाले ट्रस्ट। यह फेहहिस्त लंबी भी हो सकती है।
पर जरा समझ ये लीजिये कि इन्हें तमाम सुविधाओं के साथ जो रहने के लिये बंगला मिला हुआ है, उस बंगले की जमीन को अगर जोड दें तो दिल्ली की साढ़े तीन लाख एकड जमीन भी छोटी पड़ सकती है। क्योंकि यूपी में मायावती, अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव, राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह, नारायण दत्त तिवारी।
बिहार में राबड़ी देवी, जीतनराम मांझी, जगन्नाथ मिश्र। झारखंड में बाबू लाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, शिबू सोरेन, मधु कोड़ा, हेमंत सोरेन। राजस्थान में अशोक गहलोत, स्व जगन्नाथ पहाड़िया। मध्यप्रदेश में उमा भारती, दिग्विजय सिंह, कैलाश जोशी, बाबूलाल गौर। जम्मू कश्मीर में उमर अब्दुल्ला, गुलाम नबी आजाद।
असम में तरुण गोगोई, प्रफुल्ल कुमार। मणिपुर में ओकराम इबोबी सिंह ये तो चंद नाम हैं उन पूर्व मुख्यमंत्रियों के जो सत्ता जाने के बाद भी सरकारी भवनों पर काबिज रहे और अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी इनमें से कई उन सरकारी भवनों में जमे रहने का रास्ता ढूंढ रहे हैं।
कब्जे के इस खेल में न दलों का भेद है न दिलों का। और बात सिर्फ पूर्व मुख्यमंत्री के नाम पर बंटे बंगलों की ही नहीं। तमाम नेताओं ने ट्रस्ट बनाकर भी सरकारी भवनों पर कब्जों का जाल फैलाया हुआ है । अकेले उत्तर प्रदेश में ऐसे 300 ट्रस्ट और संस्थाएं हैं जिनके नाम पर सरकारी भवन बांटे गए हैं।
ये सवाल आपके जेहन में होगा कि नेता तो करोड़पति होते हैं, फिर भी ये सरकारी सुविधा क्यों चाहते हैं। मुलायम सिंह व अखिलेश यादव जिनकी संपत्ति 24 करोड 80 लाख है, वह भी सुप्रीम कोर्ट ये कहते हुए पहुंच गये कि फिलहाल बंगला रहने दिया जाये, क्योंकि उनके पास दूसरी कोई छत नहीं है। वैसे रईस समाजवादियों के पास छत नहीं, ऐसा भी नहीं है। मुलायम सिंह के नाम लखनऊ के गोमती नगर में करीब 71 लाख का बंगला है। इटावा में 2.45 करोड़ की कोठी है, तो अखिलेश के पास लखनऊ में ही करीब डेढ़ करोड़ का प्लॉट है।
सवाल सिर्फ बंगले का नहीं। सवाल तो ये है कि कमोवेश हर राज्य में नेताओं के पौ बारह रहते हैं। सत्ता किसी की रहे, रईसी किसी की कम होती नहीं। नेताओं ने मिलकर आपस में ही यह सहमति भी बना ली कि नेता जीते चाहे हारे, उसे जनता का पैसा मिलते रहना चाहिये।
जी, अगर आपने किसी सांसद या विधायक को हरा दिया, तो उसकी सुविधा में कमी जरूर आती है पर बंद नहीं होती। मसलन सासंद हार जाये तो भी हर सांसद को 20 हजार रुपए महीने पेंशन मिलती है। दस एयर टिकट तो सेकेंड क्लास में एक साथी के साथ यात्रा फ्री में। टेलीफोन बिल भी मिल जाता है।
हारे हुये विधायकों के बारे राज्य सरकारें ज्यादा सोचती हैं। हर पूर्व विधायक को 25 हजार रुपए की पेंशन जिंदगी भर मिलती रहती है। सालाना एक लाख रुपये का यात्रा कूपन भी मिलता है। सफर हवाई हो या रेल या फिर तेल भराकर टैक्सी सफर। महीने का 8 हजार तीन सौ रुपये।
और अगर कोई पूर्व सांसद पहले विधायक रहा तो उसे दोनों की पेंशन यानी हर महीने 45 हजार रुपए मिलते रहेंगे। यानी जनता जिसे कुर्सी से हटा देती है, जिसे हरा देती है, उसके उपर देश में हर बरस करीब दो सौ करोड़ रुपये से ज्यादा जनता का पैसा लुटाया जाता है। जो सत्ता में रहते हैं उनकी तो पूछिये मत। दिन में होली, रात दीवाली हमेशा रहती है।