इमरजेंसी के 43 बरस बाद धर्म पर खुलकर सियासत, हिन्दुत्व चुनावी जुमला

Update: 2018-07-30 10:24 GMT

संघ और भाजपा धर्म और राष्ट्र के साथ-साथ जातीय समीकरण की विभिन्न संभावनाओं द्वारा अपनी चुनावी जीत के लिए बनाते हैं राजनीतिक रणनीति (photo : social media)

आज धर्म के नाम पर सियासत खुलकर होती है। हिन्दुत्व चुनावी जुमला है। सरकारी लाभ उठाना सामान्य सी बात है, क्योंकि समूची सरकार ही जब चुनाव जीतने में लग जाती हो और सत्ताधारी पार्टी गर्व करती हो कि उसके पास मोदी सरीखा प्रचारक है...

वरिष्ठ टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी का विश्लेषण

1975 से लेकर 2018 तक। दर्जन भर प्रधानमंत्रियों की कतार। इंदिरा गांधी से लेकर मोदी तक। इमरजेन्सी से लेकर अब तक और 43 बरस पहले आज की तारीख यानी 25 जून को ही देश पर इमरजेन्सी थोपी गई। पर इन 43 बरस में देश का विस्तार कितना हुआ। देश कितना बदल गया। और कैसे 75 की इमरजेन्सी 2018 तक पहुंचते पहुंचते अपनी परिभाषा तक बदल चुकी है, ये आज की पीढ़ी को जानना चाहिये।

क्योंकि हिन्दुस्तान का एक सच ये भी है 1975 में भारत की आबादी 57 करोड़ थी और 2018 में भारत की आबादी 125 करोड़ पार कर चुकी है। तो इस दौर में देश में संवैधानिक व्यवस्था हो या संविधान में दर्ज हक या अधिकार की बात। वह कैसे वक्त के साथ सत्ता की हथेलियों पर नाचने लगे। जो सवाल न्यायापालिका के सामने 1975 में उठे और इलाहबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को कठघरे में खड़ा कर दिया, वही सवाल अब सत्ता- व्यवस्था का हिस्सा बन चुके हैं, तो देश भी अभ्यस्त हो चुका है।

यानी 1975 के सवाल बीतते वक्त के साथ कैसे महत्व खो चुके हैं या फिर सिस्टम का हिस्सा बना दिये गये, इसे देश में कोई महसूस कर ही नहीं पाता है क्योंकि संविधान की जगह पार्टियों के चुनावी मेनिफेस्टो ने ले ली है। कैसे अदालत के कठघरे में खड़ी इंदिरा सत्ता 43 बरस पहले खुद को सही ठहराने के लिये कौन से प्रचार और किस तरह जनता के प्रयोजित हुजूम को हांक रही थी।

43 बरस बाद कैसे प्रचार प्रसार के वहीं तरीके सिस्टम का हिस्सा बन गये या फिर राजनीतिक सत्ता की जरूरत बनते चले गये और जनता अभ्यस्त होती चली गई। इस एहसास को इसलिये समझे क्योंकि 1975 के बाद जन्म लेने वाले भारतीय नागरिकों की तादाद मौजूदा वक्त में दो तिहाई है। यानी 80 करोड़ लोगों को पता ही नहीं कि इमरजेन्सी होती क्या है। याद कीजिये 26 जून की सुबह 8 बजे आकाशवाणी से इंदिरा गांधी का संदेश, राष्ट्रपति ने इमरजेन्सी की घोषणा की है। इसमें घबराने की जरूरत नहीं है..."

हर सत्ता हर हालात को लेकर कुछ इसी तरह कहती है। घबराने की जरूरत नहीं है। आपके जेहन में नोटबंदी या सर्जिकल स्ट्रइक आये या कुछ और मुद्दे उससे पहले याद कीजिये। 12 जून 1975 को इलाहबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद से लेकर 25 जून 1975 तक देश में हो क्या रहा था और वह कौन से सवाल थे, जिसे अदालत सही नहीं मानता था औऱ इंदिरा गांधी ने सत्ता छोडने की जगह देश पर इमरजेंसी थोप दी।

12 जून 1975 को इलाहबाद हाईकोर्ट के जस्टिस सिन्हा ने जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 [7] के तहत दो मुद्दो पर इंदिरा गांधी को दोषी माना। पहला, रायबरेली में चुनावी सभाओं के लिये मंच बनाने और लाउडस्पीकर के लिये बिजली लेने में सरकारी अधिकारियों का सहयोग लेना।

दूसरा, भारत सरकार के अधिकारी जो पीएमओ में थे यशपाल कपूर की मदद चुनाव प्रचार में लेना। अब चुनाव में क्या क्या होता है और बिना सरकारी सहयोग के क्या सत्ता कोई भी चुनाव लड़ती है ये कम से कम वाजपेयी-मनमोहन-मोदी के दौर को याद करते हुये कोई भी सवाल तो कर ही सकता है।

इस दौर ने तो पीवी नरसिंह राव का सत्ता बचाने के लिये झाझुमो घूस कांड भी देख लिये। मनमोहन के दौर में बीजेपी का संसद में करोडों के नोट उडाने को भी परख लिया। यानी आप ठहाका लगायेंगे कि क्या वाकई देश में एक ऐसा वक्त था जब पीएमओ के किसी अधिकारी से चुनाव के वक्त पीएम मदद ले और चुनावी प्रचार के वक्त सरकारी सहयोग से मंच और लाउडस्पीकर के लिये बिजली ले जाये तो अपराध हो गया।

इतना ही नहीं आज के दौर में जब चुनाव धन-बल के आधार पर ही लड़ा जाता है तो 1971 के चुनाव को लेकर अदालत 1975 में ये भी सुन रही थी कि क्या इंदिरा गांधी ने तय रकम से ज्यादा प्रचार में खर्च तो नहीं किये। वोटरों को रिश्वत तो नहीं दी। वायुसेना के जहाज-हेलीकाप्टर पर सफर कर चुनावी प्रचार तो नहीं किया। चुनाव चिन्ह गाय-बछड़े के आसरे धार्मिक भावनाओं से खेल कर लाभ तो नहीं उठाया।

43 बरस में भारत कितना बदल गया, ये सत्ता के चुनावी मिजाज से ही समझ जा सकता है। जहां धर्म के नाम पर सियासत खुल कर होती है। हिन्दुत्व चुनावी जुमला है। सरकारी लाभ उठाना सामान्य सी बात है, क्योंकि समूची सरकार ही जब चुनाव जीतने में लग जाती हो और सत्ताधारी पार्टी गर्व करती हो कि उसके पास मोदी सरीखा प्रचारक है। फिर अधिकारियों की कौन पूछे। फिर अब के वक्त तो खर्च की कोई सीमा ही नहीं है।

हर चुनाव के बाद चुनाव आयोग के आंकड़े सबूत हैं। और 2014 तो रिकार्ड खर्च के लिये जाना जायेगा, जिसमें चुनाव आयोग ने ही इतना खर्च किया जितना 1998, 1999, 2004 और 2009 मिलाकर खर्च हुआ उससे भी ज्यादा। फिर अब तो वोटरों को रिश्वत बांटना सामान्य सी बात है।

आखिरी कर्नाटक विधानसबा चुनाव में ही दो हजार करोड पकड में आये जो वोटरों में बांटे जाने थे। तो क्या 43 बरस में चुनावी लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल गई है। या कहे इमरजेन्सी के दौर में जो सवाल संविधान के खिलाफ लगते या फिर गैरकानूनी माने जाते थे,वही सवाल सियासी तिकड़मों तले 43 बरस में ऐसे बदलते चले गये कि भारत के नागरिक ही हालातों से समझौता करने लगे।

12 जून को इलाहबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द किया था। छह बरस तक प्रतिबंध लगाया था। तब इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट से फैसला अपने हक में कराया और सत्ता में बने रहने के लिये इमरजेंसी थोप दी। फिर 1975 में 12 से 25 जून तक जो दिल्ली की सडक से लेकर जिस सियासत की व्यूहरचना तब एक सफदरजंग रोड पर होती रही, उसे इतिहास में काले अक्षरों में लिखा जाता है।

पर वैसी ही तिकड़में उसके बाद सियासत का कैसे हिस्सा बनते बनते लोगों को अभ्यत कराते चली गई। इस पर किसी ने ध्यान दिया ही नहीं। क्योंकि याद कीजिये 20 जून 1975। कटघरे में खडी इंदिरा गांधी के लिये काग्रेस का शक्ति प्रदर्शन। सत्ता के इशारे पर बस ट्रेन सबकुछ झोक दिया गया। चारों दिशाओं से इंदिरा स्पेशल ट्रेन-बस दिल्ली पहुंचने लगी। लोगों को ट्रक्टर कार बस ट्रक में भरभरकर बोट क्लब पहुंचाया गया। पूरी सरकारी अमला जुटा था। संजय गांधी खुद समूची व्यवस्था देख रहे थे। इंदिरा की तमाम तस्वीरों से सजे 12 फुट उंचे मंच पर जैसे ही इंदिरा पहुंचती है गगनभेदी नारे गूंजने लगते हैं।

माइक संभालते ही इंदिरा कहती हैं..""-देश के भीतर-बाहर कुछ शक्तिशाली तत्व उनकी सत्ता पलटने का षडयंत्र रच रहे हैं। इन विरोधी दलों को समाचारपत्र का समर्थन प्रप्त है और तथ्यों को बिगाडने और सफेद झूठ फैलाने की इन्हें अनोखी आजादी प्रप्त है। सवाल ये नहीं है कि मै जीवित रहूं या मर जाती हूं। सवाल राष्ट्र के हित का है।" 25 मिनट के भाषण को दिल्ली दूरदर्शन लाइव करता है। आकाशवाणी से सीधा प्रसारण होता है।

यानी अब का दौर होता तो क्या क्या होता ये बताने की जरुरत नहीं है क्या क्या होता। कैसे सैकड़ों चैनलों से लेकर डिजिटल मीडिया तक सत्तानुकुल हो जाते हैं और कैसे किसी भी चुनाव रैली को सफल दिखाने के लिये ट्रेन-बस-ट्रकों में भर-भरकर लोगों को लाया जाता है।

चुनावी बरस में सरकारी खर्च पर प्रचार प्रसार किसी से छुपा नहीं है। अब याद कीजिये रामलीला मैदान की 25 जून 1975 की तस्वीर जब जेपी की रैली हुई। लाखों की तादाद में लोग सिर्फ जेपी के एक ऐलान पर चले आये और जेपी ने अपने भाषण में कहा, छात्र स्कल कालेजों से निकल आयें और जेलों को भर दें। पुलिस और सेना गैरकानूनी आदेशों का पालन ना करें।

और जेपी को लोग नजरअंदाज कर दें उनके भाषण को ना सुनें। रामलीला मैदान से निकलकर पीएमओ तक ना निकलें। आकाशवाणी-दूरदर्शन पर शाम के समाचारों के बाद ये ऐलान किया जाता है कि आज फिल्म "बाबी" दिखायी जायेगी, तो सत्ता अपने विरोध को दबाने के लिये या कहे जनता का ध्यान बांटने के लिये कौन कौन सी मोहक व्यूहरचना भी करती है और कानून का इस्तेमाल भी करती है।

सुरक्षाकर्मियों को उकसाने के लिये जेपी के खिलाफ राष्ट्द्रोह का मामला दर्ज होता है। 24 जून की रातभर 400 वारण्टों पर हस्ताक्षऱ हुये, जिसके बाद विरोधी नेताओं की गिरफ्तारी के आदेश 25 की सुबह 10 बजे तक भेजे भी जा चुके थे। यानी कैसे देश इमरजेन्सी की तरफ बढ रहा था और कैसे इंदिरा सत्ता एडवांस में ही हर निर्णय ले रही थी औऱ इसमें समूची सरकारी मशीनरी कैसे लग जाती है । यह हो सकता है आज कोई अजूबा न लगे, क्योंकि हर सत्ता ने हर बार कहा कि जनता ने उसे चुना है तो उसे गद्दी से कोई कानून उतार नहीं सकता। ये बात इंदिरा गांधी ने भी तब कही थी।

(यह लेख prasunbajpai.itzmyblog.com से साभार)

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