आज जब मुंबई स्टॉक एक्सचेंज की हालत पतली हो गई है तो उसे कवर करने के लिए कोरोना वायरस को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है...
सेंसेक्स में लगातार गिरावट पर अबरार खान की टिप्पणी
आज हर तरह की मीडिया में चारों तरफ सिर्फ एक ही तरह की चर्चा है 1- कोरोना वायरस 2- बीएसई सेंसेक्स। बीएसई सेंसेक्स बहुत तेजी से नीचे लुढ़का है, पिछले 2 हफ्ते से लगातार नीचे ही जा रहा है। प्रतिदिन औसतन 1000 पॉइंट से ज्यादा की गिरावट आ रही है जिसके कारण अब तक निवेशकों का लाखों करोड़ रूपया डूब गया है। इसी कारण यह विषय मीडिया की चर्चा का केंद्र बिंदु है।
मगर क्या सच में मीडिया निवेशकों के डूब जाने को लेकर के चिंतित हैं, क्या मीडिया सच में भारतीय बाजार और अर्थव्यवस्था को लेकर के चिंतित है मुझे इसमें संदेह है। क्योंकि मीडिया की चर्चा से यह प्रतीत हो रहा है कि वह इस गिरावट को इस मंदी को कोरोना वायरस से और ग्लोबल रिसेशन से जोड़ करके प्रस्तुत कर रहा है। एक प्रोपेगेंडा के तहत यह स्थापित करने में लगा है कि मार्केट के टूटने का कारण कोरोना वायरस है तथा वैश्विक कारण है।
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भारत सरकार से भी जब गिरती जीडीपी के बारे में पूछा जाता, जब भी बेरोज़गारी के बारे में सवाल किया जाता तब वह भी सेंसेक्स की ऊंची इमारत दिखा करके कहती थी कि यदि भारत में मंदी का दौर होता, अर्थव्यवस्था खतरे में होती तो बॉम्बे स्टाक एक्सचेंज इतनी बुलंदी पर ना होता और आज जब मुंबई स्टॉक एक्सचेंज की हालत पतली हो गई है तो उसे कवर करने के लिए कोरोना वायरस को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है जो कि सही नहीं है। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था कैसी है इसे मापने का तरीका शेयर मार्केट क़तई नहीं होता।
देश की अर्थव्यवस्था का आकलन इस आधार पर किया जाता है कि किस सरकार के पास सरप्लस बजट कितना है, उसकी लायबिलिटीज कितनी है। जो उसकी देनदारी है, क्या वह उनका भुगतान कर पा रही है अथवा नहीं। जब हम इस पर गौर करेंगे तो पाएंगे अब तक इस सरकार ने जितने भी राजस्व का अनुमान लगाया साल के अंत तक उतना राजस्व सरकार को नहीं मिला। यदि अनुमान के मुताबिक राजस्व की प्राप्ति नहीं होती तो उसका असर आपके बजट पर पड़ता है आपको अपना खर्चा हटाना पड़ता है, देनदारियां रोकनी पड़ती है।
यदि देश की अर्थव्यवस्था अच्छी होती तो इन कंपनियों को बेचने की नौबत नहीं आती। लायबिलिटीज की बात करें तो भारत सरकार पर बिजली कंपनियों का ढेर सारा बकाया है। इसी बकाये या देर से भुगतान के कारण ही वह जनता को मंहगी बिजली बेचती हैं। इसके बावजूद कई बिजली कंपनियाँ घाटे में हैं और दिवालिया होने के कगार पर खड़ी हैं। गन्ना किसानों का बकाया अलग है वो भी तब जब हम विश्वभर में चीनी निर्यात करते हैं। इसके अलावा किसानों की उपज का कोई खरीदार नहीं है। सरकार एमएसपी तो तय कर देती है मगर खरीदने की हालत में नहीं है। ख़रीद भी ले तो समय पर भुगतान नहीं कर पाती जिसके कारण किसान आत्महत्या तक कर लेते हैं या फिर उनकी अगली फसल का उत्पादन प्रभावित हो जाता है।
किसी देश की अर्थव्यवस्था को मापने का एक पैमाना है उस देश की बैंकों की व्यवस्था कैसी है। हमारी बैंकिंग व्यवस्था की बात की जाए तो उनका एनपीए लगभग 10 लाख करोड़ रूपया है। 2014 में यह एनपीए लगभग 265000 करोड रुपए था, पिछले 6 साल में इस सरकार ने दो लाख करोड़ से अधिक एनपीए राइट ऑफ कर दिया मगर उसके बावजूद बैंकों के हालात नहीं सुधरे। अभी ताजा मामला यस बैंक का हमारे सामने है जिसे खरीदने की जिम्मेदारी एसबीआई पर है, और इसकी खबर मिलते ही शेयर मार्केट में एसबीआई के शेयर भी धड़ाम हो गए।
यह तय है एसबीआई अगर यस बैंक का भार अपने ऊपर लेती है तो वह स्वयं डूब जाएगी और एसबीआई अगर यस बैंक को नहीं संभालती तो यस बैंक के ग्राहक डूब जाएंगे। अर्थव्यवस्था मापने के कई और तरीके हैं जिनमें एक पैमाना भ्रष्टाचार भी है। भ्रष्टाचार की बात करें तो ब्यूरोक्रेसी, बैंक, बैंकों के कर्मचारी, बैंकों से कर्ज लेने वाले व्यापारी और सत्ता में बैठे लोग सब के सब भ्रष्टाचार के आकंठ में गले तक डूबे हुए हैं।
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अर्थव्यवस्था को मापने के कुछ और तरीके हैं जिन पर फिर कभी रोशनी डालेंगे। मगर आज जो शेयर मार्केट धड़ाम हो रहा है उसका कारण सिर्फ कोरोना वायरस हो मुझे ऐसा नहीं लगता क्योंकि मेरी नजर शेयर मार्केट से ज्यादा जीडीपी पर होती है, देश की अर्थव्यवस्था पर होती है, सरकार की नीतियों पर होती है। देश की अर्थव्यवस्था की बात करें तो नोटबंदी के बाद सबसे अधिक प्रभावित होने वाला जो सेक्टर था वह था खुदरा बाज़ार और असंगठित क्षेत्र की कंपनियां। नोटबंदी के बाद से सरकार ने असंगठित क्षेत्र का कोई डाटा पेश नहीं किया कि वह किस हाल में है उनका कितना नुकसान हुआ, कितना फायदा हुआ, उन्हों ने कितना ग्रो किया, कितना रोज़गार दिया, कितनी छटनी की सरकार इसे बताने से बच रही है।
महंगाई दर जीडीपी से काफी ऊपर है। यदि कृषि उत्पादन को छोड़ दिया जाए तो देश में हर तरह का उत्पादन घटा है, निर्यात घटा है। टूरिज्म कम हुआ है। तेल और बिजली की खपत भी कम हुई है। यह घटी हुई खपत और घटा हुआ उत्पादन इस बात का सुबूत है कि हमारी अर्थव्यवस्था की हालत बहुत ही खराब है। खराब अर्थव्यवस्था की इसी सच्चाई को छुपाने के लिए मुंबई स्टॉक एक्सचेंज और कोरोना वायरस को मुद्दा बनाया जा रहा है।
चीन में कोरोना वायरस का प्रकोप पिछले कई महीनों से है जिसके कारण चाइना का निर्यात घटा है। चीन का उत्पादन घटा है। विश्व बाजार में उसकी भागीदारी कम हुई है जिसकी भरपाई करने का हमारे पास सुनहरा मौका था। हम चाइना के द्वारा छोड़ी गई जगह को भर सकते थे, अपने उत्पादन को बढ़ा सकते थे। मगर ऐसा तब होता है जब हम इसके लिए पहले से तैयार होते हैं क्योंकि उत्पादन बढ़ाने के लिए तीन मुख्य चीजों की ज़रूरत पड़ती है एक तकनीक और दूसरी मशीनरी तीसरा है मैन पॉवर। हमारे पास मैन पावर खूब है मगर तकनीक और मशीनरी हमारे पास नहीं और ना ही हम इस बारे में सोचते हैं।
इसका खामियाजा यह हुआ कि हम विश्व बाजार में सबसे छोटे खिलाड़ी माने जाते हैं जबकि हमारे पास जितना सस्ता मैन पावर है, उस बुनियाद पर हम अगर चीन से आगे ना होते तो चीन के बाद दूसरे नंबर पर जरूर होते और आज जब चीन ने खुद ही खुद को कोरोना वायरस के कारण आइसोलेट कर लिया था तो हमारे पास बेहतरीन मौका था कि उसकी जगह को भर लेते। परंतु हम ऐसा करने में पूरी तरह नाकाम रहे। नाकाम तो तब होता जब हम कोशिश करते हमने कोशिश भी नहीं की।
चीन वायरस के प्रकोप से अब उबर रहा है। जैसे-जैसे चीन वायरस के प्रकोप से बाहर आ रहा है वैसे-वैसे पूरी दुनिया कोरोना की चपेट में आ रही है। हम भारतीय भी उससे अछूते नहीं। हमारे देश में भी 60-70 मरीज कोरोना वायरस से संक्रमित पाए गए जिसमें से सिर्फ एक बूढ़े व्यक्ति की मृत्यु इस वायरस के कारण हुई है। यानी एक तरह से देखा जाए तो कोरोना वायरस भारत में पूरी तरह से बेअसर रहा है जबकि हमारी सीमाएं चीन से लगी हुई हैं। इसका कारण है हम भारतीयों की जीवन शैली और हमारा इम्यून पावर।
इम्यून पावर की बात इसलिए कर रहा हूं क्योंकि स्वाइन फ्लू का असर भी हम भारतीयों पर बहुत कम हुआ था। मगर इसके बावजूद आज मीडिया में हर जगह सिर्फ और सिर्फ कोरोना वायरस की बात हो रही है तो मुझे लगता है कि कोरोना वायरस की आड़ में सरकार की नाकामी को छुपाने की कोशिश की जा रही है। कोरोना वायरस जितना खतरनाक है इसका जो प्रभाव हम चीन, इटली, जापान आदि देशों में देख रहे हैं यदि इस तरह का प्रकोप हमारे भारत में हुआ होता तो अबतक हमारी आधी आबादी साफ हो गई होती। इसका भी कारण हमारी जीवन शैली है। हम भारतीयों को आइसोलेट नहीं किया जा सकता।
इतने बड़े देश को पूरी तरह से लॉकडाउन भी नहीं किया जा सकता। हम भारतीय मिलनसार होते हैं। घर से निकलते हैं बस स्टॉप तक पहुंचते-पहुंचते 10 से 15 लोगों से हाथ मिला लेते हैं। ऐसे में या संक्रमण तेजी से फैलता है। हम अन्य देशों की तरह इलाज करने में भी सक्षम नहीं हैं, ना ही हमारे पास उतना इंफ्रास्ट्रक्चर, ना ही उसने डॉक्टर हैं ऐसे में लाखों लोग मर गए होते।
यदि देश की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी, देश में खपत होगी तो डिमांड होगी। लोगों की जेब में खरीदने के लिए पैसे होंगे तो मांग होगी तो विदेशी पूंजी भी आएगी। विदेशी निवेश भी आएगा और मुंबई स्टॉक एक्सचेंज भी ऊपर जाएगा। मगर आंकड़ों में तमाम तरह की तोड़-मरोड़ करने के बावजूद सब कुछ अच्छा दिखाने की लाख कोशिशों के बावजूद जीडीपी विकास दर 4.5% के आसपास है।
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अनुमान है कि इस वित्तीय वर्ष में 6% की जीडीपी विकास दर रहेगी। मगर ऐसा तब होगा जब महंगाई दर घटेगी। मगर महंगाई दर फिलहाल जीडीपी से दुगनी है। ऐसे में भले ही कच्चे तेल का भाव $10 प्रति बैरल पहुंच जाए, सरकार का फिजिकल डिफिसिट कुछ कम हो जाए या उसे दो लाख करोड़ का विनिवेश ना करना पड़े और दो लाख करोड़ से अधिक वह महंगे दामों पर डीजल-पेट्रोल बेचकर बटोर ले, मगर उसके बावजूद जब तक हमारे देश की नीति बेहतर नहीं होगी तब तक जीडीपी विकास दर ऊपर नहीं आएगी।
तब तक रोजगार का सृजन नहीं होगा तब तक लोगों की जेब में पैसे नहीं आएंगे, वह खर्च करने की हालत में नहीं होंगे, तब तक हमारे देश में उत्पादन भी नहीं होगा निवेश भी नहीं आएगा। मोदी को एक बार फिर से मीडिया के सामने आकर कहना चाहिए कि मेरे भाग्य से तेल के दाम सस्ते हो गए हैं। लगे हाथ उन्हें सऊदी अरब का शुक्रिया भी कर देना चाहिए क्योंकि इससे उनका फेलियर कुछ हद तक छुप जाएगा क्योंकि सस्ते में तेल खरीदकर महंगे में बेचने से उनका फिजिकल डिफिसिट काफी हद तक कंट्रोल हो जाएगा।