स्मार्टफोन और सोशल मीडिया से बच्चों में बढ़ रहा डिप्रेशन

Update: 2017-11-05 10:49 GMT

दिन में तीन घंटे या ज्यादा समय स्मार्टफोन और इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस के साथ बिताने वाले बच्चों को कम से कम एक बार आत्महत्या संबंधित विचार आने की आशंका 34 फीसदी ज्यादा होती है...

मरखम हीड

16 साल की नीना लैंग्टन केवल इसलिए डिप्रेशन में थी क्योंकि सोशल मीडिया पर उसके दोस्तों की तरह कोई उसकी बुलिंग नहीं कर रहा था। कनेक्टिकट में उसके दोस्तों की तरह नीना भी अपना अधिकांश खाली समय स्मार्टफोन पर बिताती थी।

थोड़े दिनों बाद जब उसने आत्महत्या की कोशिश की तो इलाज के दौरान पता चला कि वह बॉडी इमेज इनसिक्योरिटी का शिकार थी। वह देर रात तक जगी रहती, इंस्टाग्राम पर घंटों मॉडल्स को देखती और इसके लिए चिंतित होती कि खुद कैसी दिखती है।

मां क्रिस्टीन लैंग्टन बताती हैं कि नीना खुशमिजाज थी, उन्हें डिप्रेशन का अंदाजा भी नहीं था। लेकिन उन्होंने स्मार्टफोन के चलते उसके स्वाभिमान पर चोट की भी कल्पना नहीं की थी। उनके मन में यह खयाल भी नहीं आया कि रात को उसके पास फोन नहीं रहने दें।

अभिभावकों की हर पीढ़ी को बच्चों द्वारा नई तकनीकों के इस्तेमाल से चिढ़ रही है। टेलीविजन और वीडियो गेम इसके उदाहरण हैं, लेकिन आजकल लोकप्रिय हो रहे मोबाइल डिवाइसेस पुराने स्क्रीन-आधारित मीडिया से अलग हैं। इनके साथ सोशल मीडिया तक बच्चों की आसान पहुंच उनके एक-दूसरे से बातचीत और खाली समय बिताने के तरीके को प्रभावित कर रहा है।

कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अभी हालात ऐसे नहीं हैं कि स्मार्टफोन के असर की चिंता की जाए, लेकिन दूसरे लोगों का मानना है कि बच्चों के भावनात्मक और मानसिक विकास को देखते हुए इस पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है।

बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के मौजूदा आंकड़े भी इस बहस को हवा देते हैं। डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ एंड ह्यूमन सर्विसेस के अनुसार 2010 से 2016 के बीच डिप्रेशन का शिकार हुए किशोरों की संख्या में 60 फीसदी का इजाफा हुआ है।

डिपार्टमेंट के 2016 के सर्वे में बताया गया था कि करीब 13 फीसदी किशोरों को कम से कम एक बार डिप्रेशन की गंभीर समस्या का सामना करना पड़ा। 2010 में यह आंकड़ा 8 फीसदी था। 10 से 19 साल तक के लोगों द्वारा आत्महत्याओं में भी वृद्धि हुई है।

सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के मुताबिक कम उम्र की लड़कियों में आत्महत्या की दर पिछले 40 वर्षों में सबसे ज्यादा के स्तर पर है। जबकि 1990 और 2000 के दशक में किशोरों में डिप्रेशन और आत्महत्या की दर या तो स्थिर रही थी या इसमें कमी आई थी।

सैन डिएगो यूनिवर्सिटी में साइकोलॉजी की प्रोफेसर जीन ट्वेंज ने अपनी किताब आईजेन में इसकी चर्चा की है। वे बताती हैं कि मोबाइल डिवाइसेस से लैस आजकल के बच्चे पहले के बच्चों के मुकाबले कम खुश हैं और वयस्क होने के लिए कम तैयार भी हैं। अपने अध्ययन में उन्होंने बताया है कि 2010 के बाद डिजिटल डिवाइस पर ज्यादा समय बिताने वाले बच्चों को पहले के मुकाबले मानसिक समस्याएं ज्यादा होने की आशंका है।

दिन में तीन घंटे या ज्यादा समय स्मार्टफोन और इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस के साथ बिताने वाले बच्चों को कम से कम एक बार आत्महत्या संबंधित विचार आने की आशंका 34 फीसदी ज्यादा होती है। दिन में पांच घंटे से ज्यादा समय इन डिवाइसेस के साथ बिताने वाले किशोरों के मामले में यह अनुपात 48 फीसदी है।

हालांकि, ट्वेंज स्मार्टफोन और डिप्रेशन के बीच सीधे संबंध का दावा नहीं करतीं। यूनिवर्सिटी ऑफ पेन्सिलवेनिया में न्यूरोलॉजी के चेयर फ्रांसिस जेनसिन बताते हैं कि बच्चों की मौजूदा पीढ़ी तकनीक के क्षेत्र में लगातार नए प्रयोगों को देख कर रही है। इससे संबंधित वैज्ञानिक सोच अभी ज्यादा मौजूद नहीं है, लेकिन किशोरों के मानसिक विकास की जो जानकारी पहले से मौजूद है, वह यही बताता है कि पूरे दिन इंटरनेट के इस्तेमाल की छूट बेहद खतरनाक हो सकता है।

किशोर अवस्था में मस्तिष्क लगातार विकसित होता है। कुछ रिसर्च में बताया गया है मल्टीटास्किंग जैसे एक साथ मैसेज करने, सोशल मीडिया और एप का इस्तेमाल करने से मस्तिष्क के भावनाओं की प्रोसेसिंग और निर्णय लेने की क्षमता कमजोर होती है।

जेनसिन कहते हैं कि वयस्कों के मुकाबले किशोरों के आकलन और खुद पर नियंत्रण की क्षमता कमजोर होती है। इससे इंटरनेट पर मौजूद खराब कंटेंट की ओर आकर्षित होने और उसका अभ्यस्त बनने की संभावना बढ़ती है। कुछ रिसर्च में यह भी बताया गया है कि स्मार्टफोन और सोशल मीडिया के इस्तेमाल से बच्चों को मिलने वाली खुशी डोपामाइन हॉर्मोन जैसी होती है। यही कारण है कि इससे दूर होने पर वे अशांति, थकान और चिड़चिड़ाहट महसूस करते हैं।

यूनिवर्सिटी ऑफ कैन्सस में साइकोलॉजी के प्रोफेसर पॉल एश्ले कहते हैं कि मस्तिष्क का एक हिस्सा जो ध्यान केंद्रित करने और भावनाओं को समझने से संबंधित है, का पूरा विकास 20 साल की उम्र के बाद ही होता है। मौजूदा दौर के किशारों में इसकी कमी देखने को मिल रही है।

वे ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते और दूसरों की भावनाओं के प्रति कम संवेदनशील हैं। वहीं, ड्यूक यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर कैंडिस ओजर्स का तर्क है कि मोबाइल डिवाइसेस के चलते किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य या सामाजिक व्यवहार पर असर पड़ने का सबूत फिलहाल मौजूद नहीं है।

इस बहस के बीच बच्चों को पहली बार स्मार्टफोन मिलने की उम्र तेजी से कम हो रही है। फिलहाल इसकी औसत उम्र 10 वर्ष है। किशोरों में डिप्रेशन बढ़ने के कई कारण हो सकते हैं। एक्स्ट्रा करिकुलर गतिविधियों में बेहतर प्रदर्शन से लेकर अच्छे कॉलेज में एडमिशन का दबाव उनके ऊपर है। लेकिन स्मार्टफोन का विरोध नहीं करने वाले विशेषज्ञ भी मानते हैं कि इसकी बड़ी भूमिका हो सकती है और इसलिए युवाओं द्वारा इसके इस्तेमाल पर बंदिशें होनी चाहिए।

ऐसे स्मार्टफोन से दूर रहेंगे बच्चे

— बेडरूम में उपयोग की इजाजत न दें। रात में स्मार्टफोन के उपयोग से नींद की कमी जैसी समस्याएं होती हैं जबकि बच्चों को ज्यादा नींद की जरूरत होती है।

ऑनलाइन फायरवॉल लगाएं, डेटा खर्च पर नजर। फायरवॉल बच्चों को खराब कंटेंट देखने से रोक सकता है। उनके डेटा उपयोग पर भी नजर रखें।

नियम-कायदे बनाएं। जैसे बच्चे डिनर के समय फोन का उपयोग नहीं करेंगे या स्कूल के बाद एक घंटे से ज्यादा सोशल मीडिया पर नहीं बिताएंगे।

खुद पर नियंत्रण। बच्चों के सामने खुद भी खाना खाते हुए या कोई महत्वपूर्ण काम करते हुए स्मार्टफोन उपयोग नहीं करें। सोशल मीडिया पर भाषा का ध्यान रखें।

(दैनिक भास्कर से साभार)

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