उत्तर प्रदेश में गठबंधन अपने वोट अंकगणित को भुनाने में क्यों रहा असफल

Update: 2019-05-26 13:50 GMT

सपा और बसपा को पिछले चार पांच सालों में आक्रामक तरीके से सक्रिय होना चाहिए था, मगर वो ऐन चुनाव के दौरान हुए सक्रिय, कमजोर प्रत्याशियों को टिकट दिए जाने से भी माहौल नहीं बन पाया गठबंधन के पक्ष में...

वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट

उत्तर प्रदेश में गठबंधन अपने वोट की अंकगणित भुनाने में पूरी तरह असफल रहा। यह प्रयोग इसलिए असफल हुआ, क्योंकि गठबंधन का वोट एक दूसरे को पूरी तरह से ट्रांसफर नहीं पाया और नयी सपा में पुरानों को दरकिनार किये जाने से सपा कार्यकर्ता पार्टी नेतृत्व से नाराज थे।

सपा और बसपा को पिछले चार पांच सालों में आक्रामक तरीके से सक्रिय होना चाहिए था, मगर वो ऐन चुनाव के दौरान सक्रिय हुए। कमजोर प्रत्याशी तथा करोड़ों रुपये लेकर टिकट दिए जाने से माहौल भी गठबंधन के पक्ष में नहीं बन पाया। दोनों दलों के नेताओं को खुशफहमी हो गयी थी कि अंकगणित में उनका गठबंधन अजेय है।नतीजतन आखिरी समय तक प्रत्याशियों की घोषणा होती रही।

सपा ने तो प्रयागराज, फूलपुर और बलिया जैसे और कई जगह ऐसे प्रत्याशी उतारे जिन्हें उनके संसदीय क्षेत्र के बहुसंख्य मतदाता पहचानते तक नहीं थे। फिर ऐसे भी आरोप हैं कि चुनाव प्रबंधन में भी वे भाजपा के सामने फेल हो गये, क्योंकि उनके बूथ प्रबंधकों और विलेज बैरिस्टरों ने दूसरों से पैसा पकड़ लिया था।

मायावती ने चुनाव पूर्व ही अपने को अघोषित प्रधानमंत्री मान लिया था, मगर वे भूल गयी थीं कि उत्तर प्रदेश की जनता मायावती को न केवल तानाशाह शासक के रूप में याद करती है, बल्कि उनके शासनकाल को भ्रष्टाचार के नए कीर्तिमान कायम करने के लिए भी याद किया जाता है। कानून व्यवस्था पर उनकी मजबूत पकड़ के आगे विकास शून्य पर चला जाता था, जो विकास दिखता भी था उसमें भ्रष्टाचार झलक जाता था।

दूसर तरफ विपक्ष के रूप में पिछले लगभग सात सालों के दौरान प्रदेश से बसपा गायब रही। खुद मायावती प्रदेश के बड़े से बड़े मसले पर चुप्पी साधे रहीं। उनकी पार्टी के ज्यादातर नेताओं को बोलने की आजादी नहीं है। पहले 2012 के विधानसभा चुनावों में पराजय, फिर बसपा का लिए 2014 के लोकसभा चुनावों में सफाया हो गया था। फिर बसपा पर टिकट बेचने के आरोप सर्वकालिक हैं। उस कलंक से भी मायावती उबर नहीं पायीं।

मायावती ने बसपा को पूरे प्रदेश की पार्टी बनाने के बजाय कभी दलित-ब्राह्मण गठजोड़ तो कभी दलित-मुस्लिम गठजोड़ तो इस बार यादव, दलित, मुस्लिम गठजोड़ के सहारे नैया पार करने की कोशिश की, लेकिन वे अपने मतदाताओं को यह विश्वास ही नहीं दिला पायीं कि चुनाव जीतने पर क्या वे भाजपा की गोद में नहीं बैठेंगी? इस अस्पष्टता के कारण मतदाताओं ने उन्हें नकार दिया। पिछली बार सर्व समाज को इकट्ठा करने के लिए बसपा ने स्थानीय स्तर पर भाईचारा कमेटियां बनाई थीं, लेकिन इस बार इसका मौका ही नहीं मिला।

इसके अलावा सपा का पारंपरिक वोट बैंक खिसक गया है। मुलायम सिंह के अध्यक्ष रहने तक समाजवादी पार्टी से पिछड़ा और मुस्लिम वोटर जुड़ा रहा। अखिलेश के अध्यक्ष बनने और सपा के अंतरकलह के चलते कहीं न कहीं पिछड़े और गरीब तबके ने अखिलेश में अपना नेतृत्व नहीं देखा। वहीं सपा का पारंपरिक वोटर माने जाने वाला मुस्लिम समाज भी सपा से नाराज दिखा।

मुलायम सिंह को मुल्ला मुलायम कहलाये जाने से परहेज नहीं था, लेकिन अखिलेश में वो बात मुसलमानों को नहीं दिखती। भाजपा ने सपा के बैकवर्ड वोट बैंक में बड़ी सेंधमारी का काम करते हुए शाक्य, मौर्य, लोध, राजभर, गुर्जर और जाट नेताओं को अपने पाले में करने में सफलता पाई। सपा के युवा समर्थकों में भी अखिलेश के मुख्यमंत्रित्व कल में हुये नौकरी घोटालों से भी बड़ी निराशा है, जिसके मुकदमे हाईकोर्ट नें लम्बित हैं और सीबीआई जाँच चल रही है। नयी सपा बनाने की चाह में अखिलेश ने पार्टी के बड़े नेताओं को किनारे लगा दिया है, जिसका खामियाजा 2017 के विधानसभा चुनाव में और अब 2019 के चुनावों में सपा को उठाना पड़ा है।

सपा के कमजोर प्रत्याशी अपने अपने चुनाव क्षेत्रों में सभी पोलिंग बूथ पर अपना बस्ता तक नहीं लगवा पाये, जबकि करोड़ों देकर बसपा प्रत्याशियों ने चुनाव में भी पानी की तरह पैसा बहाया। नतीजतन बसपा 10 सीटें जितने में सफल रही और सपा केवल 5 सीटें ही जीत सकी। यहाँ तक की अखिलेश की पत्नी डिम्पल, भाई धर्मेन्द्र और अक्षय यादव चुनाव हार गये। अखिलेश यादव खुद अपने पारिवारिक झगड़े को हल नहीं कर पाए। भाजपा ने एक बहुत सीमित जनाधार वाली पार्टी अपना दल को दो सीटें दीं, जबकि सपा बसपा ने कांग्रेस के लिए यहां दो सीटें ही देना चाहती थी, इसे कहीं से भी समझदारी नहीं कहा जा सकता।

सपा-बसपा का वोट पूरी तरह से एक दूसरे को ट्रांसफर नहीं पाया, जिस लोकसभा क्षेत्र की सीट सपा के खाते में थी और वहां पर बसपा के मनमुताबिक प्रत्याशी नहीं उतारा गया, तो वहां पर बसपा कार्यकर्ताओं ने भाजपा को वोट करना बेहतर समझा, ताकि उस सीट पर प्रत्याशी हारेगा, तो अगली बार उनके चहेते को टिकट मिल सकता है। इसी तरह से जहां पर समझौते में बसपा को सीट मिली और कोई पैराशूट प्रत्याशी लाया गया, तो वहां पर समाजवादियों ने अंदर ही अंदर उसका जमकर विरोध किया।

जनता खुद कहती है कि कई जगहों पर ऐसा देखा गया कि सपा नेता बसपा प्रत्याशियों को हराने के लिए अकेले प्रचार में निकलते थे और जाकर यह कहते थे कि हम यह नहीं कहने आए हैं कि आप बसपा के इस प्रत्याशी को वोट दीजिए। आपको जो अच्छा लगे आप उसे वोट कीजिए।

राजनीतिक विश्लेषकों की राय में भाजपा के बरक्स मायावती और अखिलेश यादव के चुनाव प्रचार में भी बहुत अधिक दम नहीं देखा गया। ये नेता जनता के बीच अपनी बात सही तरीके से नहीं रख पाये। इनकी भाषण शैली में कनविंसिंग पॉवर का अभाव था। यहां तक अपने कार्यकर्ताओं में भी जोश नहीं भर पाये, लिहाजा कार्यकर्ता बेमन से पोलिंग बूथ तक गए और वोट देकर चले आए।

चुनाव कवर कर रहे पत्रकारों ने भी कहा कि अखिलेश यादव के भाषण में परिपक्वता का अभाव रहता है। उनके अंदर वो समझ नहीं आई है कि किस तरह के भाषण से वोट अपने पक्ष में आता है। गठबंधन के नेता केंद्र सरकार की वादा खिलाफी और उसकी नाकामियों को जनता तक पहुंचाने में नाकाम रहे। इनके अंदर अति आत्मविश्वास पैदा हो गया कि हमारा वोट भाजपा को पिछली बार मिले वोट से कहीं अधिक है और हम चुनाव जीत जाएंगे।

चुनाव परिणामों से स्पष्ट हो गया है कि मायावती और अखिलेश यादव जिस मकसद से पुरानी दुश्मनी भुलाते हुए अजीत सिंह को साथ लेकर चुनाव लड़े, उसमें ये नेता पूरी तरह असफल साबित हुए। दरअसल भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का चुनावी प्रबंधन के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की करिश्माई शख्सियत बुआ-बबुआ के गठजोड़ पर भारी पड़ी। भाजपा का दावा है कि 2014 के चुनाव की तरह इस बार के चुनाव में भी उत्तर प्रदेश में जाति की जकड़न टूट गयी, वंशवाद की हार हुई है। चुनाव से पहले गठबंधन को लेकर जो दावे किए जा रहे थे, वो पूरी तरह फेल रहे।

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