हर बात में उस संविधान की दुहाई देना बंद करो माननीय! जिसे चट कर चुके हो दीमक की तरह

Update: 2019-11-26 04:39 GMT

न्यू इंडिया के चुने हुए जनप्रतिनिधि किसी कृषि उत्पाद की तरह मंडी में सजते हैं और पार्टियां इन्हें खरीदती हैं फिर कभी पांच-सितारा होटल में तो कभी रिसोर्ट में ठहराती हैं....

संविधान दिवस पर महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

ब देश 1947 में आजाद हुआ तब बड़े तामझाम से इसे लोकतंत्र, प्रजातंत्र या जनतंत्र कहा गया था, पर देश का नसीब देखिये, आजादी के समय पैदा हुई एक पीढ़ी भी नहीं गुजरी पर लोकतंत्र विलुप्त हो गया। तंत्र और अधिक उलझ गया, पर इसका लोक मर गया। आपने कभी गौर किया है, देश की जो संस्थाएं तथाकथित जनप्रतिनिधियों को पनाह देती हैं, वे सभी देश की सबसे बड़ी मंडी में तब्दील हो चुकी हैं।

रकारें भले ही जीएसटी को लागू करते हुए एक देश एक टैक्स का दावा करे पर यह मंडी तो देश से भी अलग है, यहाँ केवल कैश पर खरीद-फरोख्त होती है और जीएसटी भी नहीं लगता।

न्यू इंडिया के चुने हुए जनप्रतिनिधि किसी कृषि उत्पाद की तरह मंडी में सजते हैं और पार्टियां इन्हें खरीदती हैं फिर कभी पांच-सितारा होटल में तो कभी रिसोर्ट में ठहराती हैं। राजनीति कभी समाजसेवा रही होगी, आज के दौर में यह विशुद्ध व्यवसाय है। एक ऐसा व्यवसाय जिसमें केवल मुनाफा ही मुनाफा है। अब राजनीति में कोई भी मुद्दा नहीं है, कोई भी सिद्धांत नहीं है, बस मोलभाव है। जो ज्यादा कीमत देगा, उसी के मुद्दे और सिद्धांत सर-आँखों पर।

ब तो हरेक चुनाव के बाद जनता यही प्रश्न पूछती है, उसे तो किसी ने वोट दिया ही नहीं फिर वो चुनाव कैसे जीता? अब तो चुनाव जादू हो गया है और सरकार का गठन दुनिया का सबसे बड़ा व्यापार। जीतता कोई और है और रातोंरात सरकार किसी और की बनती है। जनता के वोट की कोई कीमत ही नहीं बची है। जनता स्तब्ध रहती है।

सा लगता है जैसे एक महान देश के महान संविधान को दीमकों ने चट कर डाला है। इसके अवशेष भी नहीं बचे हैं। अगर कुछ बचा है तो केवल दीमक जो सब कुछ चट कर जाने को उतावली है। मीडिया, संवैधानिक संस्थान और न्यायपालिका सब दीमक से डर गए हैं। इन दीमकों ने पहले खेत-खलिहानों पर धावा बोला, फिर रोजगार को खा डाला। इसके बाद अर्थव्यवस्था के सभी पहलुओं पर सेंध लगा दी और अब तो पूरे देश को ही खोखला कर चुके हैं।

न दीमकों को देखकर वास्तविक दीमकों में भी खलबली मच गयी है। वास्तविक दीमकों में आज तक केवल श्रम के आधार पर विभाजन था, पर अब तो उनमें भी जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर विभाजन होने लगा है। अधिकतर दीमकों ने तो श्रम करना भी छोड़ दिया है और कुछ दीमक तो दिनभर भाषण ही देते रहते हैं और बात-बात में उसी संविधान की दुहाई देते हैं, जिसे वे वर्षों पहले चट कर चुके हैं।

नता असमंजस में है, दीमकों के इस काफिले को कैसे रोके। चुनाव कहीं भी हों, कोई भी जीते उससे फर्क नहीं पड़ता क्योंकि रात बीतने के पहले ही दीमक सत्ता के गलियारों में अपना कब्ज़ा कर लेते हैं। इस दीमकों की सबसे बड़ी खासियत है, ये सब कुछ खाते जाते हैं पर विपक्षी नेताओं के कारनामों की फाइलें हमेशा संभालकर रखते हैं।

विपक्षी नेताओं में से अधिकतर तो इन दीमकों का दामन थाम चुके हैं, पर यदि किसी नेता ने बात नहीं मानी तो उसकी फ़ाइल मिनटों में कभी सीबीआई तो कभी ईडी से निकलवा लेते हैं। इन दीमकों में ईमानदारी भी गजब की है, जैसे ही कोई नेता इनका साथ देने को तैयार हो जाता है, उसके काले कारनामों की फाइलों को उसी समय सारे दीमक मिलकर खा डालते हैं।

दीमकों ने तो एक उत्तरी राज्य पर इस कदर धावा बोला कि इसे अब धरती का स्वर्ग नहीं, बल्कि धरती की सबसे बड़ी जेल के नाम से जाना जाता है। इन दीमकों को सोशल मीडिया से बहुत लगाव है और अपने विरूद्ध एक भी शब्द देखते ही ये उसे भेजने वाले पर धावा बोल देते हैं। गांधी, नेहरु और कुछ अन्य नामों से जुड़ी सभी यादों को दीमकों ने नष्ट कर दिया है।

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