सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कहां मिल पाएगा मुस्लिम औरतों को बराबरी का हक

Update: 2017-09-12 14:45 GMT

मुस्लिम महिलाओं के लिए ईमानदारी से न्याय चाहने वालों के लिए तीन तलाक पर आए सुप्रीम कोर्ट का फैसले का महत्व एक जुमले और गलतफहमी से ज्यादा नहीं है...

स्वतंत्र पत्रकार मुनीष कुमार का विश्लेषण

शरीयत के नाम पर जारी तीन तलाक का प्रयोग बरकरार रखने के लिए मुस्लिम समाज के जरिए लगातार मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सरकार पर दबाव बना रहा है। दबाव इसलिए कि सुप्रीम कोर्ट ने त्वरित तलाक पर फैसला देने के बाद तलाक पर कानून बनाने का जिम्मा सरकार की ओर ढकेल दिया है।

कल 11 सितंबर को भोपाल के इकबाल मैदान में आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने जलसा कर बकायदा शरीयत के नाम पर जारी तीन तलाक के पक्ष में महिलाओं से हाथ उठवाए और मीडिया में बयान दिलवाया कि शरीयत के नाम पर जारी तीन तलाक जायज है, इसे  देश में लागू धार्मिक स्वतंत्रता के कानून के मद्देनजर बरकरार रखा जाए।

मुस्लिम मर्दों के संगठन आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का यह सिलसिलेवार और तैयारीशुदा विरोध तब है जबकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 22 अगस्त को 3 तलाक पर दिये गये फैसले के बाद भी देश से 3 तलाक की प्रथा समाप्त नहीं हुयी है। जो लोग सोचते हैं कि देश से सुप्रीम कोर्ट ने 3 तलाक की प्रथा समाप्त कर दी है तो यह उनकी गलतफहमी से ज्यादा कुछ नहीं है।

22 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुस्लिम मर्दों द्वारा पत्नी को तलाक देने को लेकर जारी 3 प्रथाओं में से एक तलाक-ए-बिद्दत को समाप्त किया है, जबकि मर्दों द्वारा एकतरफा 3 तलाक दिये जाने की दूसरी प्रथाएं तलाक-ए-हसन व तलाक-ए-अहसन पूर्ववत् जारी हैं।

तलाक-ए-अहसन के तहत पति द्वारा पत्नी को एक बार मौखिक तलाक बोलकर तलाक दे दिया जाता है। पति द्वारा तलाक बोले जाने के 3 माह बाद यह लागू होता है। तलाक-ए-हसन के तहत मर्द को तलाक देने के लिये उसे अपनी पत्नी को दो मासिक धर्म के बीच तलाक बोलना पड़ता है। मतलब यह है कि मर्द ने अपनी पत्नी को पहली बार 1 सितम्बर को तलाक बोला तो उसे अगले 1 अक्टूबर को पुनः तलाक बोलना पड़ेगा। तीसरे माह एक नबम्बर को तलाक बोलने के साथ ही तलाक की प्रक्रिया पूर्ण मानी जाएगी।

इस तलाक की प्रक्रिया को पूरा होने के बीच यदि पति-पत्नी में सुलह हो जाती है तो तलाक मान्य नहीं होता है।

तलाक-ए-बिद्दत के तहत मुस्लिम मर्द यदि एक बार में अपनी पत्नी को 3 तलाक बोल देता है तो तलाक मान्य हो जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में मात्र इसी पर रोक लगायी है।

जिस तलाक-ए-बिद्दत को सुप्रीम कोर्ट ने खत्म किया है उसके लिए न्यायालय में पक्षकार अखिल भारतीय मुस्लिम पसर्नल लाॅ बोर्ड पहले ही विगत अप्रैल माह में एडवायजरी जारी कर चुका था। बोर्ड ने न्यायालय के समक्ष भी कहा है कि निकाहनामे में दूल्हा-दुल्हन से यह शर्त रखने के लिए कहा जाएगा कि मर्द अपनी पत्नी को एक बार में 3 बार तलाक बोलकर तलाक नहीं देगा।  

इस फैसले से मात्र इतना फर्क पड़ेगा कि जो मर्द अपनी पत्नी को 3 बार तलाक बोलकर हाथोंहाथ तलाक दे दिया करते थे अब उन्हें इसके लिए दो से तीन माह इंतजार करना पड़ेगा। ऐसे में तलाक-ए-बिद्दत को खत्म करने को लेकर इस बात का प्रचार करना कि यह एक क्रांतिकारी फैसला है, उससे मुस्लिम महिलाओं के जीवन में परिवर्तन आ जाएगा, यह मुस्लिम महिलाओं के लिए एक नये युग की शुरुआत है, यह महिलाओं को बराबरी का अधिकार देगा, कोरे भ्रम के सिवा कुछ और नहीं है।

तलाक को लेकर हमारा देश हिन्दू माइंड सैट का शिकार है। हिन्दुओं में विवाह को 7 जन्मों का न टूटने वाला बंधन माना गया है। इस बात को कहा जाता है कि जिस घर में महिला की डोली जाती है, वहीं से उसकीे अर्थी निकलती है। पति-पत्नी में चाहे कितनी भी अनबन क्यों न हो जाए, तलाक को पाप माना जाता है। हिन्दुओं में पति-पत्नी के बीच का रिश्ता खराब होने व उनके एक दूसरे से अलग रहने पर भी तलाक आसानी से नहीं होता।

समाज वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि रिश्तों की गाड़ी नहीं चल पा रही है तो घुट-घुटकर साथ जीने से बेहतर है तलाक हो जाना। परन्तु समाज में तलाक का अधिकार महिलाओं व पुरुषों को बराबरी के साथ होना चाहिए। मुस्लिम समाज में विवाह एक अनुबंध है। जिसकी तीन शर्ते अहम् हैं। जिसके अंतर्गत पति अपनी पत्नी व बच्चों के भरण पोषण की जिम्मेदारी उठाएगा। पत्नी पति से मेहर पाने की हकदार होगी तथा विवाह को सामाजिक मान्यता प्रदान किया जाना इस अनुबंध में मूल रुप से शामिल है।

मुस्लिम समाज में तलाक के दो अन्य तरीके भी हैं। इसमें पति द्वारा पत्नी पर अत्याचार करने पर पत्नी तलाक-ए-खुला के तहत काजी के पास दरखास्त देकर तलाक ले सकती है। पति-पत्नी द्वारा आपसी सहमति से लिए गये तलाक को तलाक-ए-मुबारत कहा जाता है। पुरुष प्रधान समाज होने के कारण मुस्लिमों में तलाक की खुला व मुबारत जैसे तरीको की संख्या लगभग नगण्य है।

बहुपत्नी व निकाह हलाला व इससे सम्बंधित अन्य मामलों पर सुप्रीम कोर्ट ने अलग से डील करने की बात कहकर इन पर कोई फैसला नहीं दिया है।
सुप्रीम कोर्ट का 22 अगस्त का 3 तलाक को लेकर दिया फैसला दस दिन चले अढाई कोस से ज्यादा कुछ नहीं है।

5 जजों की बैंच के बहुमत के द्वारा दिये इस फैसले में महिलाओं के अधिकारों, स्वतंत्रता व समानता आदि को लेकर बड़ी-बड़ी बातें व दलीलें रखी गयी हैं, परन्तु इसे धरातल पर उतारने के लिए कुछ भी नहीं कहा गया है।

सुप्रीम कोर्ट में 3 तलाक को लेकर की गयी इस कवायद से भाजपा सरकार अपना साम्प्रदायिक एजेन्डा आगे बढ़ाने में कामयाब हुयी है। सरकार ने महिलाओं के मुद्दे को समग्रता में हल करने की जगह उसे मात्र मुस्लिम महिलाओं तक सीमित कर उसका साम्प्रदायिककरण करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। उसने इसकी आड़ में खासतौर से हिन्दू महिलाओं की समस्याओं व उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर पर्दा डालने का काम किया है।

देश में हिन्दू महिलाओं के तलाक का प्रतिशत मुस्लिम महिलाओं के मुकाबले ज्यादा है। 2011 की जनगणना के अनुसार देश की कुल तलाकशुदा महिलाओं में हिंदू महिलाएं 68 प्रतिशत थी, वहीं उसके मुकाबले तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं का प्रतिशत 23.3 ही था।

2011 की जनगणना यह भी बताती है कि 1000 विवाहित मुस्लिम महिलाओं में पति से अलग रहने वाली महिलाओं की संख्या मुस्लिमों में 6.7 प्रतिशत है, वहीं हिन्दुओं में इन महिलाओं की संख्या कहीं अधिक 6.9 प्रतिशत है।

2011 की जनगणना में महिला-पुरुष अनुपात में हिन्दुओं में 1000 पुरुषों के मुकाबले 939 महिलाएं थीं, वहीं मुसलमानों में 1000 पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या 951 दर्ज की गयी।
 
देश में मात्र मुस्लिम महिलाओं की ही नहीं, बल्कि सभी धर्मों की ज्यादातर महिलाओं की आर्थिक-सामाजिक स्थिति बेहद खराब है। महिला सशक्तीकरण इंडेक्स में भारत का विश्व के मुल्कों में 135वां स्थान है।

देश में 15 वर्ष से कम उम्र की शादीशुदा लड़कियों की संख्या 18 लाख से भी अधिक दर्ज की गयी है। इनमें से 4.5 लाख लड़कियां इस 15 वर्ष की उम्र में मां बन चुकी हैं। 15 वर्ष से कम उम्र की 3 लाख लड़कियों के दो बच्चे हैं।  देश में हर वर्ष 55 हजार महिलाएं गर्भावस्था के दौरान इलाज न मिल पाने के कारण मर जाती हैं। महिलाओं की आधी आबादी आज भी अशिक्षित है। समाज में महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर भी बेहद कम हैं।

सरकार महिला प्रश्न को मुस्लिम महिलाओं तक ही सीमित कर वास्तविक समाधान से मुंह मोड़ रही है। तलाक लेने-देने का अधिकार महिला और पुरुष को बराबरी के साथ मिलना चाहिए, परन्तु आर्थिक बराबरी के बगैर महिला पुरुष के बीच बराबरी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हमारे देश में महिलाएं पैदा होने पर पिता, विवाह होने के बाद पति तथा विधवा/बूढ़ी होने पर पुत्र पर निर्भर रहती हैं।

तलाक मिलने पर महिलाओं के समक्ष सबसे बड़ा संकट जीविका के रूप में आ खड़ा होता है। जो महिलाएं आत्मनिर्भर हैं वे तलाक होने पर जीविकापार्जन के लिए ठोकरें खाने के लिए मजबूर नहीं हैं।

आज भी हमारे देश में मान्यता है कि परिवार चलाने की जिम्मेदारी मुख्यतः पुरुषों की है। पत्नी की आय को परिवार में सहायक आय माना जाता है, इस कारण महिलाओं को बेहद कम तन्ख्वाह पर काम पर रखा जाता है। समाज की बहुलांश कामकाजी महिलाओं का न केवल पूंजीपति वर्ग बल्कि सरकार भी निर्मम शोषण करती है। महिलाओं को बराबरी व अधिकारों का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार भोजनमाता, आशा व आंगनबाड़ी वर्कर को न्यूनतम वेतन भी देने के लिए तैयार नहीं है।

महिलाओं के लिए एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई जैसी स्थिति है। कानून के दरवाजे पर पहुंची महिलाओं के लिए न्याय मिल पाना इस देश में आसान नहीं है, उन्हें न्याय मिलता नहीं है खरीदना पड़ता है, गुजारा-भत्ता व तलाक के मुकदमों के निर्णय आने में जिन्दगियां बीत जाती हैं।।

न्यायालय द्वारा महिलाओं को गुजारा भत्ता सुनिश्चित किए जाने के बाद भी महिलाओं को इस राशि को पाने के लिए तमाम तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। जो पति सम्पत्तिशाली हैं अथवा सरकारी नौकरियों में हैं उनकी तलाकशुदा पत्नियों को तो गुजारा भत्ता आसानी से मिल जाता है परन्तु शेष के हिस्से में ठोकरें ही आती हैं।  

महिलाओं के लिए स्वतंत्रता व समानता जैसी बातें संविधान व कानून की किताबों में लिख देने मात्र से संभव नहीं है। इसके लिए जरूरी है कि सरकार देश में प्रत्येक महिला के लिए सम्मानजनक रोजगार का इंतजाम करे। उनके लिए आवास शिक्षा, स्वास्थ्य की व्यवस्था की जाए।

महिलाओं की अपने पिता, पति, पुत्र पर निर्भरता समाप्त कर उन्हें आत्मनिर्भर इंसान बनाया जाए। सरकार उन्हें सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर प्रदान करे। तलाक हाने पर पति से गुजारा भत्ता पाने की पत्नी की निर्भरता हर हालत में समाप्त की जाए।

यदि वास्तव में ऐसा किया जाता है तभी पति-पत्नी के बीच एक बराबरीपूर्ण रिश्ता बन सकता है। ऐसे में यदि पति तलाक दे भी देगा तो पत्नी के सामने जीवन-मरण संकट खड़ा नहीं होगा।

(मुनीष कुमार, स्वतंत्र पत्रकार एवं समाजवादी लोक मंच के सहसंयोजक हैं।)

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