प्रमोशन में आरक्षण मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया ये निर्णय

Update: 2020-04-23 15:54 GMT

उच्चतम न्यायालय ने उड़ीसा प्रशासनिक सर्विस के एससी एसटी अधिकारियों को प्रोन्नति में आरक्षण और परिणामी वरिष्ठता के मामले में यह अहम फैसला सुनाया है...

जेपी सिंह की टिप्पणी

जनज्वार। उच्चतम न्यायालय ने एससी/एसटी को प्रोन्नति में आरक्षण और परिणामी वरिष्ठता पर एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है। पदोन्नति पदों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व की जांच के बिना पदोन्नति में आरक्षण नहीं दिया जा सकता है, के सिद्धांत का पालन करते हुए उच्चतम न्यायालय ने उड़ीसा सरकार द्वारा वर्ष 2002 में पारित उस प्रस्ताव को रद्द कर दिया, जिसमें उड़ीसा प्रशासनिक सेवा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए परिणामी वरिष्ठता के साथ पदोन्नति पदों में आरक्षण प्रदान किया था।

स प्रस्ताव को मुख्य रूप से उड़ीसा उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया गया था कि, इसे संविधान के अनुच्छेद 16 (4 ए) के तहत राज्य की शक्ति को सक्षम करने की कवायद में एक कानून के रूप में नहीं कहा जा सकता है, और न ही यह उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित मापदंडों को पूरा करता है।

च्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाते हुए कहा है कि राज्य सरकार पर्याप्त प्रतिनिधित्व जांचे बगैर प्रोन्नति में आरक्षण के साथ परिणामी वरिष्ठता नहीं दे सकती। उच्चतम न्यायालय ने एम नागराज और जनरैल सिंह के मामले में संविधान पीठ के पूर्व फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि प्रोन्नति में आरक्षण के साथ परिणामी वरिष्ठता देने से पहले पर्याप्त प्रतिनिधित्व जांचना होगा।

च्चतम न्यायालय ने उड़ीसा प्रशासनिक सर्विस के एससी एसटी अधिकारियों को प्रोन्नति में आरक्षण और परिणामी वरिष्ठता के मामले में यह अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने प्रोन्नति में आरक्षण के साथ परिणामी वरिष्ठता देने के राज्य सरकार के रिज्यूलूशन (निर्देश) को सही ठहरा रहे अधिकारियों की याचिकाएं खारिज कर दीं। यह निर्णय जस्टिस मोहन एम शांतनगौडर और जस्टिस आर सुभाष रेड्डी की पीठ ने उड़ीसा हाईकोर्ट के फैसले पर अपनी मुहर लगाते हुए दिया है।

ड़ीसा हाईकोर्ट ने उड़ीसा एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस के एससी एसटी अधिकारियों को प्रोन्नति में आरक्षण के साथ परिणामी वरिष्ठता देने का राज्य सरकार का 20 मार्च 2002 का रिजोल्यूशन (निर्देश) रद्द कर दिया था। हाईकोर्ट ने इसके साथ ही ओडीशा एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस के क्लास वन (जूनियर ब्रांच)अधिकारियों की ग्रेडेशन लिस्ट भी रद कर दी थी। सुप्रीम ने आदेश को सही ठहराते हुए उसमें दखल देने से इनकार कर दिया।

पीठ ने कहा कि 85वें संविधान संशोधन में जुड़े अनुच्छेद 16 (4ए) के मुताबिक अगर राज्य सरकार को लगता है कि एससी एसटी का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो राज्य सरकार को अधिकार है कि वह प्रोन्नति में आरक्षण के साथ परिणामी वरिष्ठता के प्रावधान कर सकती है।

पीठ ने कहा कि एम नागराज के मामले में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने संविधान संशोधन कर जोड़े गए इस प्रावधान की वैधानिकता परखी थी और उस फैसले में संविधान पीठ ने कहा था कि राज्य सरकार एससी एसटी को प्रोन्नति में आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं हैं।इसके बावजूद अगर राज्य अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल करते हुए प्रोन्नति में आरक्षण देना चाहते हैं तो राज्य सरकार को इसके लिए पिछड़ेपन के आंकड़े जुटाने होंगे, साथ ही सरकारी नौकरियों में उनके पर्याप्त प्रतिनिधित्व की जांच करनी होगी और अनुच्छेद 335 के मुताबिक कार्यकुशलता का भी ध्यान रखना होगा।

स्टिस रेड्डी ने पीठ की ओर से फैसला लिखते हुए कहा है कि वर्ष 2018 में एम नागराज के फैसले को सात जजों की संविधान पीठ को पुनर्समीक्षा के लिए भेजे जाने की मांग ठुकराते हुए जनरैल सिंह मामले में संविधान पीठ ने कहा था कि एम नागराज फैसले को पुनर्समीक्षा के लिए भेजने की जरूरत नहीं है।

स फैसले में एससी एसटी वर्ग के पिछड़ेपन के आंकड़े एकत्र करने की कही गई बात सही नहीं है, क्योंकि फैसले का यह अंश इंदिरा साहनी (आरक्षण मामले में मंडल कमीशन पर फैसला) मामले में नौ न्यायाधीशों द्वारा दी गई व्यवस्था के खिलाफ है। हालांकि जनरैल सिंह के फैसले में संविधान पीठ ने यह भी कहा था कि अनुच्छेद 16(4ए) के मुताबिक राज्य सरकार को प्रोन्नत पदों के बारे में पर्याप्त प्रतिनिधित्व का आकलन करना होगा।

पीठ ने बीके पवित्रा फैसले का भी उदाहरण दिया जिसमें प्रोन्नति में आरक्षण के साथ वरिष्ठता के मामले में पिछड़ेपन और संपूर्ण कार्य कुशलता का ध्यान रखने के साथ कैचअप रूल लागू करने की बात कही गई है।

पीठ ने कहा कि मौजूदा मामले में उड़ीसा सरकार ने संविधान के प्रावधान के मुताबिक क्लास वन सर्विस को प्रोन्नति में आरक्षण और परिणामी वरिष्ठता के बारे में न तो कोई कानून बनाया और न ही इस बारे में कोई कार्यकारी आदेश जारी किया था। राज्य सरकार के वकील ने यह बात स्वीकार भी की है।

राज्य सरकार ने 20 मार्च 2002 का रिज्यूलूशन पर्याप्त प्रतिनिधित्व की जांच किये बगैर सिर्फ केन्द्र सरकार के निर्देश पर जारी कर दिया था। कोर्ट ने कहा कि ये रिज्यूलूशन न तो अनुच्छेद 16(4ए) के मुताबिक है और न ही ये सुप्रीम कोर्ट के पूर्व फैसलों में तय व्यवस्था के अनुरूप है। इस रिज्यूलूशन का कोई कानूनी आधार नहीं है।

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