सुनवाई टालकर सुप्रीम कोर्ट ने नहीं होने दिया अपना राजनीतिक इस्तेमाल
वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट
जनज्वार। अयोध्या चुनावी माहौल बनाने की भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कोशिश उस समय धूल—धूसरित हो गयी जब उच्चतम न्यायालय ने अपने दो लाइन के आदेश से अयोध्या के जमीन विवाद का मामला जनवरी 19 के लिए टाल दिया।
दरअसल जिस तरह राम मन्दिर का मुद्दा जोर—शोर से उठा कर 19 के लोकसभा चुनाव में भुनाने की बेशर्म कोशिश चल रही है, उसमें उच्चतम न्यायालय ने अपना राजनीतिक इस्तेमाल नहीं होने दिया। पूरे देश के सामने यह तथ्य छिपा नहीं है कि यदि मनमाफिक फैसला आता है तो संघ परिवार उसे न्यायालय का आदेश बताकर अपनी पीठ ठोकता है और यदि विपरीत फैसला आता है तो उसे आस्था से जुड़ा बताकर उसे मानने से इंकार कर देता है, जैसा कि सबरीमाला मामले में उच्चतम न्यायालय के फैसले को मौखिक चुनौती संघ परिवार और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष खुलेआम दे रहे हैं।
दरअसल उच्चतम न्यायालय के सामने राम जन्मभूमि विवाद दो पक्षों का जमीन विवाद है। यह जमीन की प्राइवेट ओनरशिप का मामला है। प्राइवेट प्रॉपर्टी से जुड़े विवाद पर सरकार अध्यादेश नहीं ला सकती है। प्राइवेट जमीन केंद्र या राज्य की जमीन नहीं होती है। ऐसा तभी किया जा सकता है जब सरकार जमीन का अधिग्रहण करना चाहती हो। लेकिन किसलिए? एक समुदाय विशेष के लिए मंदिर बनाने के लिए? इसकी अनुमति ही नहीं मिलेगी।
सोमवार 29 अक्टूबर को अयोध्या राम मंदिर-बाबरी मस्जिद जमीन विवाद मामले में उच्चतम न्यायालय ने सुनवाई जनवरी तक के लिए टाल दी है। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस संजय कृष्ण कौल और जस्टिस के.एम.जोसेफ की पीठ ने कहा कि जनवरी में उपयुक्त पीठ इस मामले की सुनवाई करेगी।
उन्होंने इस मामले पर तुरंत सुनवाई की पक्षकारों की मांग को खारिज कर दिया। सरकार की तरफ से पेश वकील तुषार मेहता ने उच्चतम न्यायालय से पूछा कि इस मामले की जनवरी में कब से सुनवाई शुरू होगी। इस पर पीठ ने कहा कि यह सब फैसला नई पीठ करेगी। न्यायालय के इस आदेश के बाद अब सुनवाई कब से होगी, रोजाना होगी या नहीं, इस पर नयी पीठ ही फैसला लेगी।
गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अब्दुल नजीर की पीठ ने आदेश दिया था कि विवादित भूमि के मालिकाना हक वाले दीवानी मामले की सुनवाई तीन जजों की पीठ 29 अक्टूबर से करेगी। पीठ ने नमाज के लिए मस्जिद को इस्लाम का अनिवार्य अंग नहीं मानने वाले इस्माइल फारूकी मामले में 1994 के फैसले के अंश को पुनर्विचार के लिए सात जजों की पीठ को भेजने से इनकार कर दिया था।
न्यायालय में क्या क्या हुआ
उच्चतम न्यायालय में दोनों पक्षकारों ने दलील थी कि नंवबर में सुनवाई शुरू हो जाए, लेकिन चीफ जस्टिस ने कहा कि इस मामले को जनवरी के लिए पहले हफ्ते के लिए टाला जाता है। तभी यह तय होगा कि कौन सी पीठ मामले की सुनवाई करेगी और सुनवाई की तारीख क्या होगी। न्यायालय ने कहा कि पीठ जनवरी में तय करेगी कि सुनवाई जनवरी में हो कि फरवरी या मार्च में। जल्द सुनवाई की दलील पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हमारी अपनी प्राथमिकता है, यह उचित पीठ तय करेगा कि सुनवाई कब से हो।
उच्चतम न्यायालय में तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर की पीठ ने दो बनाम एक के बहुमत से कहा था कि मामले की सुनवाई तीन न्यायाधीशों की पीठ 29 अक्टूबर से करेगी। 27 सितंबर के फैसले में कहा गया था कि नई पीठ दोनों पक्ष, हिंदू और मुस्लिम हितधारकों द्वारा दायर याचिकाओं 29 अक्टूबर से सुनवाई करेगी।
मुस्लिम याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर पांच जजों की संविधान पीठ द्वारा सुनवाई करने की मांग की थी, क्योंकि न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के 1994 के फैसले पर विश्वास किया था कि इस्लाम में नमाज अदा करने के लिए मस्जिद आवश्यक नहीं है। पीठ ने इस्लाम में मस्जिद की अनिवार्यता का सवाल संविधान पीठ के पास भेजने से मना कर दिया था।
अयोध्या विवाद में हाईकोर्ट का फैसला क्या था?
उच्चतम न्यायालय में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए याचिका दाखिल की गई है। अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद आपराधिक केस के साथ साथ जमीन के मालिकाना हक को लेकर भी मुकदमा चला। 8 साल पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एतिहासिक फैसला दिय़ा।
हाईकोर्ट ने 2.77 एकड़ विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बराबर बांटने का फैसला दिया। राम मूर्ति वाला पहला हिस्सा राम लला विराजमान को मिला। राम चबूतरा और सीता रसोई वाला दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को मिला। जमीन का तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को देने का फैसला सुनाया गया। हाईकोर्ट के फैसले को हिंदू और मुस्लिम पक्षों ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। तीनों ही पक्षों ने पूरी विवादित जमीन पर अपना अपना दावा ठोका।
क्या है अयोध्या विवाद?
अयोध्या में जमीन विवाद सत्तर सालों से चला आ रहा है। अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद मामले में विवादित स्थल पर मूर्ति देखे जाने के बाद 1949 में पहली बार मामला कोर्ट पहुंचा। पिछले 69 सालों से लंबित यह मामला फैजाबाद की निचली अदालत से होते हुए पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट और अब उच्चतम न्यायालय में चल रहा है।
दावा है कि 1530 में बाबर के सेनापति मीर बाकी ने मंदिर गिराकर मस्जिद बनवाई थी। 90 के दशक में राम मंदिर के मुद्दे पर देश का राजनीतिक माहौल गर्मा गया था। अयोध्या में 6 दिसंबर 1992 को कार सेवकों ने विवादित ढांचा गिरा दिया था। अयोध्या में विवादित जमीन पर अभी रामलला की मूर्ति विराजमान है।
संसद को मंदिर निर्माण पर क़ानून बनाने का अधिकार नहीं
इस मामले में क़ानून के जानकार लोगों का मानना है कि तमाम अधिकार हासिल होने के बावजूद संसद को मंदिर निर्माण जैसे मुद्दों पर क़ानून बनाने का अधिकार नहीं है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज और संविधान के जानकार जस्टिस गिरधर मालवीय का मानना है कि संसद मंदिर निर्माण के लिए कानून नहीं बना सकती। उसे ऐसा करने का अधिकार भी नहीं है, क्योंकि कानून बनाने के भी कुछ नियम हैं और उन नियमों के तहत कम से कम मंदिर निर्माण के लिए क़ानून तो नहीं बनाया जा सकता।