वो दिन जब कश्मीर का इतिहास हमेशा के लिए बदल गया

Update: 2019-11-13 12:28 GMT

जब से भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर को प्रदान विशेष दर्जे को रद्द किया है, संचार नाकाबंदी लागू की है और स्थाई-औपनिवेशिक परियोजना के डर को और बड़ा दिया है, तब से दुनिया के सबसे सैन्यीकृत क्षेत्र का अभूतपूर्व तरीके से अंतर्राष्ट्रीयकरण हुआ है...

हफ़्सा कंजवाल, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर

22 अक्टूबर को यूएस हाउस की एशियाई मुद्दों पर काम कर रही उपसमिति ने एशिया में मानव अधिकारों की स्तिथि पर एक ऐतिहासिक सुनवाई की। हालांकि सुनवाई में श्रीलंका, पाकिस्तान और भारतीय राज्य असम में मानवाधिकारों की स्तिथि को लेकर उठ रही चिंताओं पर भी बातचीत हुई मगर चर्चा का एक बड़ा हिस्सा भारत अधिकृत कश्मीर में चल रही घेराबंदी पर था। यह पहली बार है जब अमेरिकी कांग्रेस ने अपनी चर्चाओं में कश्मीर के मुद्दे पर इतना ध्यान और समय दिया है।

ब से भारत सरकार ने क्षेत्र को प्रदान विशेष दर्जे को रद्द किया है, संचार नाकाबंदी लागू की है और स्थाई-औपनिवेशिक परियोजना के डर को और बड़ा दिया है, तब से दुनिया के सबसे सैन्यीकृत क्षेत्र का अभूतपूर्व तरीके से अंतर्राष्ट्रीयकरण हुआ है।

मेरिका की सुनवाई नीतिगत मंडलियों में कश्मीर पर हो रहीं चर्चाओं में एक अत्यंत महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत देती है।

वाहों ने कश्मीर में हो रहे भयानक राजकीय दमन को उजागर किया, और केवल 5 अगस्त के बाद से किया जा रहा दमन ही नहीं बल्कि उसके पहले से जो शोषण का सिलसिला चला आ रहा है, उस पर भी प्रकाश डाला। एमनेस्टी इंटरनेशनल के प्रतिनिधि, फ्रांसिस्को बेनकोस्मे ने, प्रतिबंधों, प्रेस की स्वतंत्रता में कमी और भारत में धार्मिक स्वतंत्रता पर चिंताजनक हमलों की बात कही।

कांग्रेस के सदस्यों ने संचार नाकाबंदी के औचित्य के बारे में मुश्किल सवाल पूछे। जैसा कि पेन्सिलवेनिया की एक प्रतिनिधि सुज़न वाइल्ड ने कहा: "मेरे अनुसार अगर कोई पारदर्शिता नहीं है तो इसका मतलब कुछ ऐसा है जिसे छिपाया जा रहा है।" निताशा कौल और अंगना चैटर्जी सहित कश्मीर के विशेषज्ञ विद्वानों ने हिंदू बहुसंख्यकवाद में वृद्धि और नाज़ीवाद के साथ इसके संबंध के बारे में बात की, और साथ ही कश्मीर में हो रहे प्रवर्तित गुमशुदगी, बलात्कार, न्यायेतर हत्याओं और प्रताड़नाओं के बारे में बताया।

ह स्वीकारते हुए कि 5 अगस्त के बाद से अमेरिकी राजनयिकों को कश्मीर में घुसने की अनुमति नहीं दी गई, राज्य विभाग के अधिकारियों, जिनमें दक्षिण और मध्य एशियाई मामलों के सहायक सचिव एलिस वेल्स और लोकतंत्र, मानवाधिकार और श्रम ब्यूरो के सहायक सचिव रॉबर्ट डेस्ट्रो शामिल थे, ने भारत के साथ अमेरिका के संबंधों के महत्व पर बल देते हुए कश्मीर पर भारत के चर्चा बिन्दुओं का खुल कर विरोध नहीं किया।

हरहाल, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कश्मीर के लिए रातों-रात वह कर दिया जो कि कश्मीरी आत्मनिर्णय का आंदोलन सात दशकों से भी अधिक समय के संघर्ष से करने की कोशिश में था।

पिछले महीने, 50 वर्षों में पहली बार, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने एक ख़ास व निजी सत्र आयोजित किया जो पूर्णतः कश्मीर-केंद्रित था। मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान, ह्यूस्टन और न्यूयॉर्क में कश्मीर को लेकर प्रदर्शन हुए जो कि कश्मीर पर अमेरिका में अब तक के सबसे बड़े विरोध प्रदर्शन रहे। अमेरिका में दर्जनों निर्वाचित अधिकारियों ने मानवतावादी संकट के ख़िलाफ़ बात की।

मोदी की कार्रवाइयों ने राजनीतिक रूप से सुस्त पड़े कश्मीरी प्रवासी समुदाय के अन्दर ऊर्जा भर दी है और वे अब हिंदू राष्ट्रवादी सरकार के तहत अपने परिवारों के समक्ष मौजूदा खतरों से पूरी तरह अवगत हैं। वे अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर कश्मीरी दृष्टिकोण और आकांक्षाओं को केंद्र में रखने और इस मुद्दे को केवल भारत-पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय विवाद के नज़रिये से ना देखने पर ज़ोर दे रहे हैं।

दुनिया भर के सैकड़ों शहरों में विरोध, जागरण, मार्च और उपदेश-प्रदर्शन हुए हैं। जिन लोगों ने शायद 5 अगस्त से पहले कश्मीर के बारे में सुना भी नहीं होगा वे भी अब लामबंद हो गए हैं और कार्रवाई करना चाहते हैं। प्रगतिशील और अंतर-धार्मिक गठबंधन कश्मीर और विश्व में चल रहे अन्य फ़ासीवाद-विरोधी, उपनिवेशवाद-विरोधी, कब्ज़े-विरोधी और युद्ध-विरोधी संघर्षों के बीच जुड़ाव से अवगत हो रहे हैं।

बसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत का ग़लत आकलन कश्मीरी आत्मनिर्णय के अधिकार को उजागर करने में कामयाब हुआ है, ख़ासकर यह एहसास कि कश्मीर वास्तव में एक विवादित क्षेत्र है जो राजनीतिक समाधान का इंतज़ार कर रहा है।

र्षों से, भारत तथाकथित आतंक पर युद्ध की बयानबाज़ी के पीछे छिपता आया है, और कश्मीर के मुद्दे को 'आंतरिक' क़ानून और सुरक्षा चिंता का विषय बताता फिरता है। एक तरफ़ तो भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का बखान करता है और दूसरी ही तरफ़ कश्मीरी लोगों की स्वतंत्रता-समर्थक भावनाओं को इस क्रूरता से दबा रहा है।

ह देखते हुए कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने पहले कई बार कश्मीर में हो रहे दमन पर चुप्पी साधी है - चाहे जब दर्जनों कश्मीरियों को मार दिया गया या उन पर पेलेट गोलियाँ चलीं या जब मानवाधिकार संगठनों द्वारा अत्याचार और मानव अधिकारों के उल्लंघन की रिपोर्टें जारी की गईं - कहीं ना कहीं भारत सरकार ने सोचा कि इस बार भी ऐसी राज्य आक्रामकता को लेकर अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया कुछ अलग नहीं होगी।

गर ऐसा नहीं हुआ। बर्नी सैंडर्स जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति पद के दावेदार कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों को लागू करने का आह्वान कर रहे हैं और चाहते हैं कि 'कश्मीरी लोगों की इच्छाओं का सम्मान' हो। इंग्लैंड की लेबर पार्टी ने भी कश्मीर पर एक आपातकालीन प्रस्ताव पारित किया है, जिसमें पार्टी के नेता जेरेमी कोर्बिन का आह्वान करते हुए यह कहा है कि वे अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों को इस क्षेत्र में 'प्रवेश' करने और वहाँ के लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग करें।

पने सर्वश्रेष्ठ प्रयासों के बावजूद, भारत की हिंदू राष्ट्रवादी सरकार अंतर्राष्ट्रीय निंदा का मुकाबला करने में झूझ रही है। हालांकि, उन्होंने निश्चित रूप से राजनयिक आक्रामकता का रवैय्या अपनाया है, वे अस्सी लाख से भी अधिक लोगों को जबरन चुप करने के लिए सुसंगत जवाब देने में असमर्थ रहे हैं। उन्हें केवल पाकिस्तानी हस्तक्षेप और आतंकवाद की सदियों पुरानी दलीलों का सहारा लेते हुए देखा गया है।

घेराबंदी इस क्षेत्र के लोगों के हित में लागू की गयी है, इसे सही ठहराना भारत के सबसे मुखर सहयोगियों के लिए भी मुश्किल हो गया है। एमनेस्टी के बेनकोसमे ने सुनवाई के दौरान जो कहा वह बहुत कुछ बताता है: "यह पूरी तरह से अकल्पनीय है कि किसी क्षेत्र में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए आप बच्चों, राजनीतिक नेताओं और युवाओं को बंद कर देंगे, सभी संचार बंद कर देंगे, और लोगों को कर्फ्यू में रखेंगे।"

हरहाल, भारतीय लॉबी और उसके समर्थक कभी भी पाकिस्तान का हौआ खड़ा करने में नाकाम नहीं रहते। अब तक तो कश्मीर पर भारत के चर्चा बिंदु हमेशा बड़े पैमाने पर किये गए नागरिक प्रतिरोध को 'पाकिस्तान से निकटता' के रूप में प्रस्तुत करते रहे हैं, लेकिन अब कश्मीर के बाहर जुटने वालों के बारे में भी यही बातें बोली जा रहीं हैं। भारतीय पत्रकार आरती टिकू सिंह, जिन्होंने सुनवाई में भारत की कार्रवाई के पक्ष में दलीलें दीं, ने कश्मीरी प्रवासी नेतृत्व वाले ज़मीनी स्तर के एकजुटता समूह 'स्टैंड विद कश्मीर' को 'पाकिस्तान की आईएसआई टीम' कहा है।

स तरह का रवैया, और कश्मीर के कोने-कोने से उभरते स्पष्ट संकेतों को देखने में असक्षम रहना या फिर उन्हें सरासर नज़रंदाज़ कर देना, यह कश्मीर पर भारत की समझ को दर्शाता है। लेकिन इस समझ का खुलासा एक नए आंदोलन के लिए रास्ता बना रहा है - जो कि अब रोका नहीं जा सकेगा।

(हफ़्सा कंजवाल संयुक्त राज्य अमरीका के लाफ़या कॉलेज में साउथ एशियन हिस्ट्री की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। यह आलेख अल-जज़ीरा में 24 अक्टूबर 2019 को प्रकाशित हुआ था, इसका हिंदी अनुवाद कश्मीर खबर ने किया है।)

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