न बंद आयोजकों को जनता की परेशानी से कुछ लेना-देना, और न सरकार को। सब अपने स्वार्थ की राजनीति में लगे हैं। काश! किसी ने जनता की परेशानी के बारे में सोचा होता....
दार्जिलिंग से डाॅ. मुन्ना लाल प्रसाद
दार्जिलिंग पार्वत्य क्षेत्र में अलग राज्य गोरखालैंड की मांग को लेकर बेमियादी बंद ने अपने पिछले सारे रिकार्ड को तोड़ते हुए एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। अभी भी बंद को लेकर अनिश्चितता की स्थिति बरकरार है। सभी की नजरें बंद की ओर लगी हुई हैं। बंद और खुलने के सभी अलग—अलग कयास लगा रहे हैं, लेकिन बंद है कि अपने रफ्तार को बनाये हुए है, रूकने का नाम ही नहीं ले रहा है। लोग सोचने लगे हैं कि आखिर कब समाप्त होगा यह बेमियादी बंद। सबकी सांसें टंगी हुई हैं।
व्यवसाय चौपट हो रहा है। व्यवसायी परेशान हैं। विशेषकर सिलीगुड़ी के। यहां की रौनक गायब है। दुर्गा पूजा सामने है। सभी के चेहरे पर चिंता की लकीर है। सोच रहे हैं, अगर बंद इसी तरह चलता रहा, तो पूजा का बाजार ही चौपट हो जायेगा। बंद के कारण पर्यटकों ने इधर से मुंह मोड़ लिया है।
पर्यटन उद्योग तो चौपट हो ही गया है, इसके साथ जुड़े सारे कारोबार दम तोड़ रहे हैं और सरकार है कि लगता है निश्चिंत हा कुंभकर्णी निद्रा में खर्राटे भर रही है। जो सरकार इसे स्वीटजरलैंड बनाने की घोषणा कर रही थी, इसके हंसने का दंभ भर रही थी, आज ऐसा लगता है कि इनसे कुछ लेना-देना नहीं है। न बंद आयोजकों को जनता की परेशानी से कुछ लेना-देना, और न सरकार को। सब अपने स्वार्थ की राजनीति में लगे हैं। काश! किसी ने जनता की परेशानी को सोचा होता।
यह सामान्य समझ की बात है कि इतनी लंबी अवधि तक बंद में सामान्य जन की अवस्था दयनीय हो जायेगी। प्रतिदिन मजदूरी कर परिवार का भरण-पोषण करने वाले, खोमचे वाले, ठेले वाले फेरीवाले की क्या दशा होगी, किसी ने विचार तक नहीं किया।
वे किस दशा में हैं? कहां हैं? क्या कर रहे हैं? कैसे जी रहे हैं? भोजन कहां से मिल रहा है? इतना ही नहीं, इतनी लंबी अवधि के बंद में यहां रहने वाले जो भी हैं, अगर ईमानदारी से देखा जाए तो यह सोचने वाली बात है कि वे कैसे दैनंदिनी की जरूरतें पूरी करेंगे? क्या उनके राशन पानी के लाले नहीं पड़ेंगे? यह संभव है कुछ लोग ऐसे हों जो इस बंद में भी अपनी जरूरत पूर्ति के रास्ते खोल लिए हों।
लेकिन वैसे लोग सामान्य नहीं होंगे। वे या तो नेता हो सकते हैं या बहुत पहुंच वाले। सबके लिए ऐसा करना संभव नहीं। यह संभव नहीं कि इतनी लंबी अवधि तक के लिए अपनी हर जरूरत की पूर्ति के लिए घर में सामान मौजूद रहे। फिर जब सब बंद ही हो तो कहां से काम चलेगा? यह विचारणीय है? दो-चार दिन के बंद में जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है तो इतने लंबे समय के बंद में यहां की अवस्था क्या होगी?
यहां तो सबकुछ बंद है ही, साथ ही साथ शिक्षण संस्थान भी बंद हैं। ऐसे छात्र जो राष्ट्र के भविष्य हैं, उनका अध्ययन-अध्यापन बंद। उनका भविष्य ही अधर में लटका हुआ है। ऐसे में अनेक प्रतियोगी परीक्षाओं से तो वे वंचित हो ही रहे हैं, कई जगह उच्च शिक्षण संस्थानों में नामांकन लेने तक से वंचित हो गये। इनका क्या होगा?
क्या यह समय जो उनके जीवन के लिए महत्वपूर्ण है, पुनः लौटकर आयेगा? फिर ऐसे बच्चे आगे चलकर क्या बनेंगे? देखा जाय तो ऐसे यहां बहुत सारे सवाल हैं जो अनुत्तरित हैं। फिर भी बंद जारी है।
इधर, 29 अगस्त को नवान्न में आंदोलनकारी नेताओं एवं राज्य सरकार के बीच बैठक से सबको लगा कि अब बंद समाप्त हो जायेगा। सबकी निगाहें बैठक पर टिकी हुई थी, लेकिन बैठक में सरकार और आंदोलनकारी नेताओं के दांव-पेंच ने सबकी आशाओं पर पानी फेर दिया। मामला सुलझने की जगह और उलझ गया।
न मालूम कौन ऐसी बात हुई कि नवान्न की बैठक के बाद आंदोलनकारी नेता जो एकजुट होकर आंदोलन कर रहे थे, आपस में ही बंट गये। यहां तक कि एक दूसरे के दुश्मन बन गये एवं आपस में ही आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलने लगा।
एक ने कहा कि 12 सितंबर को सिलीगुड़ी में उत्तरकन्या में राज्य सरकार से वार्ता होने तक बंद स्थगित रहेगा तो आंदोलन के मुख्य नायक ने भड़कते हुए कहा कि जब तक गोरखालैंड की बात नहीं होगी, तब तक बंद जारी रहेगा। जब नवान्न में गोरखालैंड पर बात ही नहीं हुई, तो बंद वापस लेने का सवाल ही नहीं उत्पन्न होता।
स्थिति यह हो गई कि इस वार्ता के बाद विनय तामांग और बिमल गुरूंग दोनों ही बंद के मुद्दे पर आपस में भिड़ गये। विनय तामांग ने बंद वापस लेने के लिए सभा शुरू कर दी। ऐसा लगता है कि अब तामांग बिमल गुरूंग के विकल्प के रूप में सामने आयेंगे, लेकिन सभा में ही भगदड़ मची। विरोध शुरू हुआ।
विनय तामांग के विरूद्ध जुलूस निकलने लगा। विनय तामांग के लाख प्रयास के बाद भी बंद वापस नहीं हो सका, बदस्तूर जारी रहा। आश्चर्य है कि बिमल गुरूंग के भूमिगत होने के बाद जिस विनय तामांग ने आंदोलन की कमान संभाली थी, जो बिमल गुरूंग के विश्वस्त थे, जनता के बीच लोकप्रिय थे न मालूम नवान्न बैठक में कौन ऐसा करिश्मा हुआ कि बिमल गुरूंग के विरोध में खड़े हो गये। उनका दुश्मन बन बैठे।
दोनों एक दूसरे को ताल ठोक कर चुनौती देने लगे। एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप शुरू कर दिया। नवान्न बैठक से आने के बाद जैसे ही विनय तामांग ने बंद वापस लेने की घोषणा की, गोरखा जन मुक्ति मोर्चा सुप्रीमो बिमल गुरूंग बंद वापस लेने की घोषणा करने के लिए नेताओं पर बरसने लगे। उन्होंने आक्रोश व्यक्त करते हुए कहा कि कुछ नेताओं ने खुद को बंगाल सरकार के सामने गिरवी रख दिया है। इसे हिल्स की जनता नहीं मानने वाली है।
यहां तक कि बंद वापस लेने के लिए उतारू विनय तामांग और अनित थापा को गोरखालैंड विरोधी स्टैंड लेने के लिए पार्टी से निकालने की भी घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि गोरखालैंड आंदोलन अब जनता द्वारा संचालित हो रहा है। जनता गोरखालैंड मिलने के बाद ही बंद वापस के पक्ष में है। कोई नेता अपने स्तर से बंद वापस नहीं ले सकता।
उन्होंने यह भी इशारा किया कि गोजमुमो का प्रतिनिधि मंडल दिल्ली जाकर केन्द्र सरकार से बातचीत करेगा। वहां से बातचीत के बाद ही बंद वापस लेने पर विचार होगा।
इधर, विनय तामांग का कहना है कि राज्य सरकार के साथ हिल्स के नेताओं की सौहार्दपूर्ण बैठक हुई। इसमें शांति बहाली के लिए बंद खोलने तथा 12 सितंबर को सिलीगुड़ी में गोरखालैंड समेत अन्य मुद्दों पर बैठक बुलायी गयी। इसलिए बंद वापस लेने की घोषणा की गयी है।
अब तो बंद रखने और बंद वापस लेने के मुद्दे पर दोनों के बीच टकराव इतना बढ़ गया है कि दोनों एक दूसरे के दुश्मन लगने लगे हैं। विनय तामांग ने तो बिमल गुरूंग एवं रोशन गिरी पर आरोप लगाते हुए यहां तक कह डाला कि ये दोनों मुझे जान से मारने की साजिश कर रहे हैं। इसके लिए बाहर से शूटर बुलाए गये हैं। इसका पुख्ता सबूत होने का भी उन्होंने दावा किया है।
उन्होंने बंद पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हुए कहा कि दुकानों, स्कूलों, काॅलेज एवं वाहनों को बंद रखने की धमकी दी जा रही है। यह बंदी आतंक के कारण है न कि जनता की इच्छाशक्ति से। विनय तामांग के बयान से गोरखालैंड के लिए आहूत बंद पर तो सवाल खड़ा होता ही है, लेकिन स्वयं वे भी ऐसे कई सवालों के घेरे में आ जाते हैं।
सवाल है कि विनय तामांग द्वारा ऐसा सवाल अब क्यों खड़ा किया जा रहा है? ऐसा सवाल नवान्न बैठक के पहले क्यों नहीं उठाया गया? अब जब दोनों में विवाद हो गया तब ऐसा सवाल उठाना स्वयं उनकी ईमानदारी पर संदेह पैदा करता है। क्या जब तक वे बिमल गुरूंग के साथ थे तब तक यह बंद जनता की इच्छाशक्ति से था? उस समय बंद के लिए किसी को धमकी नहीं दी जा रही थी? नवान्न बैठक के बाद ही जब बिमल गुरूंग से अलग हुए तब धमकी दी जा रही है?
यह भी सत्य है कि कभी भी किसी बंद या हड़ताल में पूरी तरह सबका समर्थन नहीं होता। अधिकतर लोग भय और आतंक के कारण ही ऐसा करने को मजबूर होते हैं। अब इस तरह की बात करने का क्या है?
नवान्न में बैठक के बाद बिमल गुरूंग और विनय तामांग के बीच 36 का आंकड़ा तो हो ही गया है, दोनों ने एक दूसरे के विरोध में मोर्चा संभाल लिया है। दोनों की राहें अलग-अलग हो गई हैं। फिलहाल आंदोलनकारी बिमल गुरूंग के साथ खड़े हैं।
इन दोनों के बीच बढ़ती रार के कारण पर्वतीय क्षेत्र में अशांति की संभावना के मद्देनजर पुलिस की सक्रियता बढ़ गई है। गोजमुमो नेताओं की लगातार गिरफ्तारी हो रही है। साथ ही गिरफ्तारी के लिए जगह-जगह छापेमारी जारी है। बिमल गुरूंग, रोशन गिरी एवं प्रकाश गुरूंग के खिलाफ पुलिस ने लूक आउट नोटिस जारी किया है।
धीरे-धीरे आंदोलन हिंसक होता जा रहा है। हालांकि मोर्चा नेताओं का कहना है कि हिंसा से उन्हें लेना-देना नहीं है। जहां कहीं भी विस्फोट हो रहा है उसमें उनका हाथ नहीं। उनका आंदोलन तो गांधीवादी मार्ग का अनुसरण कर रहा है, जबकि पुलिस विस्फोट और हिंसा के लिए गोजमुमो नेताओं को नामजद कर उन्हें गिरफ्तार कर रही है।
गोजमुमो नेता अपने गांधीवादी आंदोलन को बदनाम करने की साजिश बता रहे हैं। यह चिंतनीय है कि आंदोलन के दौरान विस्फोट हो रहे हैं। लोग मारे जा रहे हैं। हिंसा बढ़ती जा रही है और गोजमुमो नेता लगातार घोषणा कर रहे हैं कि हिंसा में उनका हाथ नहीं।
दूसरी ओर पुलिस हिंसा और विस्फोट के लिए उन्हें दोषी करार देते हुए लगातार गिरफ्तार कर रही है। हिंसा और विस्फोट में गोजमुमो का हाथ नहीं है तो फिर वे कौन लोग हैं जो इस आंदोलन को हिंसा की ओर ले जाना चाह रहे हैं? इसके पीछे उनका क्या उद्देश्य है?
हालांकि कुछ दिन पूर्व ही मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने यह कहा था कि इसके पीछे नक्सलियों का हाथ है। फिर चीन का हाथ होने की ओर इशारा किया था। नेपाल और बांग्लादेश के आतंकियों की ओर भी अंगुली उठाई गयी थी। अब इसके लिए गोजमुमो नेताओं को दोषी मानते हुए गिरफ्तार किया जा रहा है।
अगर आंदोलनकारियों का बयान सच है, उनका हिंसा के पीछे हाथ नहीं है तो उन्हें गिरफ्तार करना कतई सही नहीं हो सकता। यह आंदोलन को दबाने का षड्यंत्र कहा जायेगा, जो लोकतांत्रिक तरीका नहीं हो सकता।
अगर सचमुच इस हिंसा के पीछे आंदोलनकारियों का हाथ है तो इस आंदोलन को गांधीवादी कहना गांधी को भी बदनाम करना है। तब यह कहावत चरितार्थ होता हुआ कहा जायेगा कि मुख में राम बगल में छुरी। इसलिए प्रशासन को इन हिंसक हाथों तक पहुंचने के लिए एवं सही तथ्यों तक पहुंचने हेतु निष्पक्ष काम करना चाहिए जिससे सही गलत का पर्दाफाश हो सके।
फिलहाल गोरखालैंड के लिए दार्जिलिंग पार्वत्य क्षेत्र में आंदोलन जारी है। इस मुद्दे को लेकर आंदोलनकारी नेताओं में मतभेद पैदा हो गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि विनय तामांग बिमल गुरूंग का विकल्प बनने की प्रक्रिया में हैं या उन्हें बिमल गुरूंग के विकल्प के रूप में तैयार करने की साजिश चल रही है।
जिस तरह सुवास घीसिंग का विकल्प बनकर बिमल गुरूंग का आगमन हुआ था और उन्होंने सुवास घीसिंग के एकछत्र नेतृत्व को चुनौती देकर अपना प्रभाव विस्तार कर यहां के एकमात्र नेता बन गये थे, उसी तरह विनय तामांग अब बिमल गुरूंग की जगह लेने को तैयार हो रहे हैं। हालांकि यहां के आंदोलनकारी नेताओं के रूख से अभी भी ऐसा नहीं दिखाई दे रहा, क्योंकि सबने एक स्वर में उन्हें अपना नेता स्वीकार किया है, लेकिन भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है, यह कहना कठिन है।
अब तो सबकी नजरें 12 सितंबर को उत्तर कन्या में होने वाली बैठक पर टिकी है। दुर्गा पूजा का बाजार सामने है। गोरखालैंड के आंदोलन ने व्यापारियों की मुस्कुराहट छीन ली है।
पूरे पार्वत्य क्षेत्र सहित सिलीगुड़ी एवं आसपास के व्यापारी आशंकित हैं। अगर आंदोलन चलता रहा तो उनके व्यापार का क्या होगा? जिसने पूजा को ध्यान में रखकर माल मंगा लिया है, उनकी चिंता है कि अगर यही हाल रहा तो वे व्यापारियों का बकाया कैसे चुकायेंगे? जिन्होंने माल नहीं मंगाया है वे सोच नहीं पा रहे हैं कि ऐसी स्थिति में क्या करें? व
र्तमान स्थिति को देखते हुए 12 सितंबर की बैठक पर आशंका के बादल मंडरा रहे हैं। इस बैठक के लिए किसी ओर से सार्थक एवं ईमानदार पहल नजर नहीं आ रही है। सबको पता है कि सरकार और आंदोलनकारियों के दांव-पेंच के बीच उनकी ऐसी दुर्गति हो रही है, लेकिन वे कर भी क्या सकते हैं? सब मूकदर्शक बन तमाशा देख रहे हैं और इसका दंश झेलने को मजबूर हैं।