नजरबंद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की एसआईटी जांच की मांग को किया खारिज कहा ये गिरफ्तारियां राजनीतिक असहमति की वजह से नहीं
जेपी सिंह की रिपोर्ट
जनज्वार। भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में नक्सल कनेक्शन के आरोप में गिरफ्तारी और फिर नजरबंदी के खिलाफ उच्चतम न्यायालय गए ऐक्टिविस्ट को कोर्ट ने बड़ा झटका दिया है। भीमा कोरेगांव केस में गिरफ्तार पांच लोगों के मामले पर उच्चतम न्यायालय ने दखल देने और आरोपियों की रिहाई से इनकार कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने साफ कहा है कि ये गिरफ्तारियां राजनीतिक असहमति की वजह से नहीं हुई हैं। न्यायालय ने पुणे पुलिस को आगे जांच जारी रखने को भी कहा है।
न्यायालय ने भीमा-कोरेगांव मामले में सामाजिक—मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की हुई गिरफ्तारी को लेकर विशेष जांच दल (एसआईटी) से जांच की मांग को खारिज करते हुए कहा कि 28 अगस्त को पुणे पुलिस द्वारा माओवादियों से कथित संबंधों को लेकर गिरफ्तार किए गए कवि वरवरा राव, अधिवक्ता सुधा भारद्वाज, सामाजिक कार्यकर्ता अरुण फरेरा, गौतम नवलखा और वर्णन गोंसाल्विस की गिरफ्तारी उनकी प्रतिरोध की वजह से नहीं हुई है, जो भी आरोपी हैं वो राहत के लिए ट्रायल कोर्ट जा सकते हैं। हम मामले के तथ्यों में जाना नहीं चाहते हैं, क्योंकि यह पूर्वाग्रह पैदा कर सकता है। न्यायालय ने चार हफ्ते तक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को और नजरबंद रखने का आदेश दिया है।
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की तीन सदस्यीय पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही थी। जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने दो सहयोगी जजों के फैसले से अलग फैसला दिया। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र पुलिस पर संदेह है कि क्या वे इस मामले में सही से जांच कर सकते हैं या नहीं, इसलिए एसआईटी जांच की जरूरत है। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा और जस्टिस खानविलकर ने कहा कि ये गिरफ्तारियां राजनीतिक असहमति की वजह से नहीं हुई हैं, बल्कि पहली नजर में ऐसे साक्ष्य हैं जिनसे प्रतिबंधित भाकपा (माओवादी) के साथ उनके संबंधों का पता चलता है।
गौरतलब है कि इतिहासकार रोमिला थापर, अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक और देवकी जैन, समाजशास्त्र के प्रो. सतीश पांडे और मानवाधिकार कार्यकर्ता माजा दारूवाला ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर नजरबंद मानवाधिकार एवं नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं की तत्काल रिहाई तथा उनकी गिरफ्तारी की स्वतंत्र जांच कराने का अनुरोध किया था।
महाराष्ट्र पुलिस ने पिछले साल 31 दिसंबर को एलगार परिषद के सम्मेलन के बाद पुणे के भीमा-कोरेगांव में हिंसा के मामले में दर्ज प्राथमिकी की जांच के सिलसिले में कई स्थानों पर छापे मारे थे। इसके बाद इस साल 28 अगस्त को पुणे पुलिस ने माओवादियों से कथित संबंधों को लेकर पांच कार्यकर्ताओं, कवि वरवरा राव, अधिवक्ता सुधा भारद्वाज, सामाजिक कार्यकर्ता अरुण फरेरा, गौतम नवलखा और वर्णन गोंसाल्विस को गिरफ़्तार किया था।
जस्टिस खानविलकर ने कहा कि आरोपी को यह चुनने का अधिकार नहीं है कि मामले की जांच कौन सी जांच एजेंसी करे। उन्होंने एसआईटी से साफ इनकार कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा है कि भीमा कोरेगांव केस में गिरफ्तार किए गए ऐक्टिविस्ट चाहें तो राहत के लिए ट्रायल कोर्ट जा सकते हैं।
जस्टिस चंद्रचूड़ का फैसला अलग रहा। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि पांच आरोपियों की गिरफ्तारी राज्य द्वारा उनकी आवाज को दबाने का प्रयास है। पब्लिक ओपिनियन बनाने के पुलिस के ऐक्ट की जांच होनी चाहिए। जस्टिस चंद्रचूड़ ने महाराष्ट्र पुलिस के छानबीन के तरीके पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि पुलिस ने जिस तरह से लेटर को लीक किया और दस्तावेज दिखाए, उससे महाराष्ट्र पुलिस की ऐक्टिविटी सवालों के घेरे में है। पुलिस ने पब्लिक ऑपिनियन बनाने की कोशिश की। इस मामले में एसआईटी जांच की जरूरत है। हालांकि उनका फैसला अल्पमत में रहा।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पुलिस के पास कुछ तथ्य हैं और पुलिस ने शक्ति का गलत इस्तेमाल नहीं किया। इसके साथ ही न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सुनवाई के दौरान हमारी तरफ से की गई किसी टिप्पणी का असर न पड़े।