जैंता इक दिन तो आलौ दिन यौ दुनि में...

Update: 2017-08-22 19:26 GMT

जनकवि ‘गिर्दा’ की पुण्यतिथि पर विशेष

आज गिर्दा हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन एक रंगकर्मी, जनकवि, लोकविद् और आंदोलनकारी के रूप में पहाड़ के लोगों को गिर्दा की कमी हमेशा सालती रहेगी...

हल्द्वानी, उत्तराखण्ड। आज 22 अगस्त को उत्तराखण्ड के जनसरोकारी और क्रांतिकारी जनकवि के बतौर ख्यात गिरीश तिवारी गिर्दा को गए हुए 7 साल हो गए हैं, मगर वो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने अपने जिंदा रहते हुए थे। उनकी लिखी कविताएं उतनी ही तीखेपन से सत्ता पर प्रहार आज भी करती हैं, जितना उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान करती थीं।

चंद्र तिवारी ‘गिर्दा’ का जन्म 9 सितंबर 1945 को विकास खंड हवालबाग के ज्योली गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम हंसा दत्त तिवाड़ी और माता का नाम जीवंती तिवाड़ी था। वह एक लेखक, निर्देशक, गीतकार, गायक, कवि, साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता और भी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।

गिर्दा का परिवार उच्च मध्यवर्गीय था, इसलिये गिर्दा को पढ़ाई के लिये अल्मोड़ा भेज दिया गया। गिर्दा ने कक्षा 5 तक कोई पढ़ाई नहीं की। कक्षा 6 से स्कूल में भरती हुए। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा से व आगे की पढ़ाई नैनीताल से पूरी की।

मात्र 21 साल की उम्र में गिरीश चन्द्र तिवारी की मुलाकात गीतकार और लेखक ब्रिजेंद्र लाल साह से होने के बाद उन्हें अपनी क्षमता का पता चला और यहीं से वो एक सफल गीतकार और सामाजिक कार्यकर्ता बने।

गिर्दा ने चिपको आंदोलन के बाद उत्तराखंड आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई। गिर्दा ने कई नाटकों का निर्देशन भी किया जिनमें से ‘अन्धा युग’, ‘अंधेर नगरी’, ‘थैंक यू मिस्टर ग्लैड’ और ‘भारत दुर्दशा’ प्रमुख हैं।

इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘नगाड़े खामोश हैं’ और ‘धनुष यज्ञ’ लिखे भी। उनके द्वारा लिखे गाये गीत व कविताएं ‘उत्तराखंड आंदोलन’ और ‘उत्तराखंड काव्य’ नाम से सन् 2002 में प्रकाशित हो चुकी हैं।

सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के गीत एवं नाट्य प्रभाग से रिटायर होने के बाद वो उत्तराखंड मुहिम से जुड़ गए थे और अपना पूरा समय लेखन में देने लगे। इसके साथ ही वह एडिटोरियल बोर्ड ऑफ पहाड़ के फाउंडर मेम्बर भी थे, जो हिमालयी संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए कार्य करती है।

लंबी बीमारी के बाद 22 अगस्त 2010 को गिरीश चंद्र तिवारी ‘गिर्दा’ हमेशा के लिए पंचतत्व में विलीन हो गए। आज गिर्दा हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन एक रंगकर्मी, जनकवि, लोकविद् और आंदोलनकारी के रूप में पहाड़ के लोगों को गिर्दा की कमी हमेशा सालती रहेगी।

उन्हीं के शब्दों में-
वी दिन हम नी हुलौ लेकिन वी दिन हम लै हुलौ...
ओ जैंता इक दिन तो आलौ दिन यौ दुनि में...
ओ जैंता इक दिन तो आलौ दिन वो दुनी में,
जै दिन तैर मैरो नी होलो, जै दिन नान ठुलो नी रैलो...।
चाहे हम नी लै सकूं, चाहे तुम नी लै सका,
क्वै न क्वै त ल्याल उ दिन य दुनी में।

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