हिंदी अखबारों के मध्यकालीन बर्बरता और अंग्रेजी अखबारों के आधुनिकता के पक्ष में खड़े होने के मायने क्या हैं ?

Update: 2019-12-08 15:21 GMT

हिंदी अखबार मध्यकालीन कूपमंडूपता के प्रचार-प्रसार के अभी भी सबसे बड़े उपकरण हैं, क्योंकि भले इन अखबारों को करीब 7 करोड़ लोग ही पढ़ते हों, लेकिन ये वो लोग हैं, जो हिंदीपट्टी के अगुवा हैं...

हिंदी मूलत: इस देश के व्यापक गरीब-गुरबों की भाषा है, उन्हें मूर्ख बनाकर रखना और इनका वोट बैंक के रूप इस्तेमाल करना अंग्रेजीदां मालिकों की जरूरत है, देश में आधुनिकता की चेतना की जिन लोगों में पैठ हुई है, उसका बड़ा हिस्सा अंग्रेजी भाषाभाषी है या अंग्रेजी अखबार ही पढ़ता है...

डॉ. सिद्धार्थ का विश्लेषण

इंडियन रीडरशिप सर्वे (आईआरएस) 2019 की पहली तिमाही की रिपोर्ट बताती है कि हिंदी अखबारों के पाठकों की संख्या 7 करोड़ 36 लाख 73 हजार है। पिछले वर्ष की तुलना में करीब 35 लाख पाठक और जुड़े हैं। यह वृद्धि साल-दर-साल हो रही हैं। भले देश-दुनिया की कुछ भाषाओं के अखबारों के पाठकों की संख्या स्थिर हो या सिकुड़ रही हो, लेकिन हिंदी भाषा-भाषी समाज में साक्षरता और जागरुकता के विकास के साथ हिंदी अखबारों के पाठकों की संख्या बढ़ रही है।

म सब बखूबी इस तथ्य से परिचित हैं कि किसी भी भाषायी समूह की चेतना और संवेदना को शक्ल देने में उस भाषा-भाषी समूह के अखबारों की अहम भूमिका होती है। वे अपने पाठकों की चेतना-संवेदना को उन्नत-उदात्त भी कर सकते हैं और पिछड़ेपन और विकृत शिकार भी बना सकते हैं। उन्हें संवेदनशील इंसान बना सकते हैं और बर्बर एवं खूंखार जानवर में भी तब्दील कर सकते हैं। वे उन्हें उजाले की ओर ले जा सकते हैं और एक अंधेर खोह में ढकेल भी सकते हैं।

इए देखते हैं कि हिंदी के अखबार क्या कर रहे हैं और अपने पाठकों को किस दिशा में ले जा रहे और उसकी तुलना अंग्रेजी के अखबारों से करते हैं। इस तुलना के लिए मैंने 6 दिसंबर को हैदराबाद में बलात्कार के चार आरोपियों के तथाकथित इनकाउंटर में मारे जाने की घटना रिपोर्टिंग, उसकी हेडिंग और संपादकीय को चुना है, जो इन अखबारों में 7 दिसंबर के दिल्ली संस्करण में प्रकाशित हुआ।

बसे पहले हिंदी के तुलनात्मक तौर पर मॉडरेट कहे जाने वाले हिंदुस्तान अखबार को लेते हैं। हैदराबाद के तथाकथित इनकाउंटर की घटना पर इसकी हेडिंग है- “हैदराबाद के हैवान हलाक”। इस हेडिंग के तहत रिपोर्ट की शुरुआती पंक्तियां इस प्रकार हैं- हैदराबाद में महिला डॉक्टर के साथ सामूहिक दुष्कर्म और निर्मम हत्या करने वाले चारों आरोपियों को पुलिस ने शुक्रवार सुबह मुठभेड़ में मार गिराया...।”

ब इस अखबार के संपादकीय को देखते हैं- …...हैदराबाद दुष्कर्म मामले के चारों आरोपियों के रात- अंधेरे में हुए इनकाउंटर की जो कहानी तेलंगाना पुलिस ने पेश की है, उस पर सीधे तौर पर शक करने का हमारे पास कोई आधार नहीं है….।” अब थोड़ा और उदार माने जाने वाले राष्ट्रीय सहारा को लेते हैं। उसकी हेडिंग है- 'अपनी करतूत से मारे गए दरिंदे' अब जरा सहारा की संपादकीय टिप्पणी देखते हैं। जो इन पंक्तियों से शुरू होती है- “हैदराबाद पुलिस द्वारा मुठभेड़ में बलात्कार, हत्या एवं शव जलाने के आरोपियों को मार गिराने पर देशभर में मनाया जा रहा जश्न अस्वाभाविक नहीं है।… यह पुलिस की स्वाभाविक कार्रवाई है।”

बसे अधिक संस्करण और प्रसार संख्या वाले दैनिक भास्कर की हेडिंग इस प्रकार है- “ दुष्कर्मियो….! देख लो अंजाम।” अब अमर उजाला को लेते हैं। उसकी हेडिंग है- “पुलिस का ‘इंसाफ’।” इसकी सब हेडिंग है- “सामूहिक दुष्कर्म के बाद पीड़िता को जहां जलाया, चारों आरोपी वहीं ढेर।” दैनिक जागरण की हेडिंग है- “जहां हुई थी दरिंदगी, वहीं आरोपी ढेर।” सब हेडिंग है- “ हैदराबाद में डॉक्टर से हैवानियत करने वाले चार आरोपियों को पुलिस ने इनकाउंटर में मार गिराया।”

ब इस विषय पर अंग्रेजी अखबारों की प्रतिक्रिया देखते हैं। सबसे पहले हिंदुस्तान टाइम्स को लेते हैं। जिसके हिंदी संस्करण की ऊपर चर्चा कर चुके हैं। सबसे पहले तो यह तथ्य कि जहां हिंदुस्तान अखबार इस खबर को सबसे बड़ी लीड खबर बनाता है, वहीं हिंदुस्तान टाइम्स दूसरी लीड खबर के रूप में इसे लेता है और एक तटस्थ सूचना देते हुए हेडिंग लगता है- “हैदराबाद बलात्कार के आरोपी पुलिस ‘इनकाउंटर’ में मारे गए।” अखबार ने इनकाउंटर को इनवर्टेड कामा में रखा है यानी तथाकथित इनकाउंटर ठहराया है।

टाइम्स ऑफ इंडिया पुलिस सूत्रों का हवाला देकर अपनी हेंडिग लगाता है- “चार बलात्कार के आरोपियों ने 10 पुलिसकर्मियों में से 2 की गन छीनी, मार दिए गए : पुलिस” रिपोर्टिंग की शुरुआती पंक्तियों में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पुलिस का कहना है कि आरोपियों ने पुलिस की गन छीनने की कोशिश की और इनकाउंटर में मारे गए।”

 

सका संपादकीय कड़े शब्दों में इस तरह के तथाकथित इनकाउंटर पर खुशी मानने पर चेतावनी देता है। संपादकीय का मुख्य शीर्षक है- “बिना मुकदमे के मौत”। उपशीर्षक है- “ इनकाउंटर का जश्न न मनाएं।” संपादकीय कहता है कि “....पुलिस को न्यायाधीशों की भूमिका और न्याय देने का अधिकार देना मांब लिंचिंग की मानसिकता को बढ़ावा देना है, जो हेट क्राइम की शक्ल ले चुकी है।”

द हिंदू का शीर्षक है- “दिशा की हत्या के चार आरोपी हैदराबाद के निकट मारे गए।” इसका भी संपादकीय का शीर्षक है- “बदले का न्याय”। उपशीर्षक है- “सजा का काम विधि के शासन में भरोसा पैदा करना है, न कि इसे कमजोर करना।” पूरा संपादकीय विस्तार से आधुनिक संवैधानिक मूल्यों और विधि के शासन की वकालत करता है- “पुलिस द्वारा वेटनरी डॉक्टर के बलात्कार और हत्या के आरोपियों की पुलिस द्वारा हत्या परेशान करने वाले प्रश्न खड़ा करती है।”

संपादकीय इनकाउंटर की पुलिस की कहानी पर भी गंभीर सवाल उठाता है। द इंडियन एक्सप्रेस अखबार एक व्यंग्यात्मक हेडिंग लगाता है- “न्याय हो गया”। इसका उपशीर्षक है- “पुलिस ने वेटेनरी डॉक्टर के बलात्कार और हत्या के आरोपियों को मार डाला।” अखबार के संपादकीय पुलिस के इनकाउंटर और उस पर जश्न मनाने की घटना को बर्बरता का समर्थन कहते हुए इसे सभी के लिए चिंता का विषय ठहराता है। संपादकीय कहता है- “लोकतंत्र अराजकता की कगार पर।”

संपादकीय विस्तार से इस इनकाउंटर पर संसद और संसद के बाहर जश्न मनाने वालों की मानसिकता पर प्रश्न उठाते हुए कहती है कि लोकतंत्र और न्याय का क्या होगा, जब संसद के भीतर इस तरह की चीजों को मान्यता और बढ़ावा दिया जा रहा है, ऐसा करने वालों में कुछ सांसदों के साथ मंत्री, कई प्रदेशों के मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री शामिल हैं।

ब जरा हिंदी अखबारों की हेडिंग, रिपोर्ट और संपादकीय पर विचार करते हैं। हिंदुस्तान अखबार हैवान हलाक हेडिंग लगाकर पुलिस द्वारा चार्जशीट दाखिल किए बिना और अदालत द्वारा आरोपियों को अपराधी ठहराने से पहले ही आरोपियों को अपराधी कौन कहे हैवान ठहरा देता है। इतना ही नहीं इस अखबार का संपादकीय पुलिस को क्लीनचिट देते हुए यह भी कह देता है कि पुलिस की कहानी पर शक करने का कोई सीधा आधार नहीं है।

ह सबकुछ तब कहा जा रहा है, जब तमाम सेवानिवृत पुलिस अधिकारी और इस तरह के मामलों के विशेषज्ञ इनकाउंटर की पुलिस की थियरी को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। राष्ट्रीय सहारा खुद ही न्यायाधीश की भूमिका में खड़े होकर आरोपियों को दरिंदा ठहरा देता है और उनके मारे जाने के जश्न में शामिल होते हुए लोगों द्वारा इनकाउंटर पर जश्न मनाने को स्वाभाविक ठहरा देता है। दैनिक भास्कर और आगे बढ़कर कहता है कि दुष्कर्मियो….! देख लो अंजाम। यह इस इनकाउंटर को पूरे देश के लिए नजीर के तौर पेश करता है और जश्न मानने में शामिल हो जाता है। दैनिक जागरण अपने चिर-परिचित आतंकी ढेर के अंदाज में कहता आरोपी ढेर।

स मामले पर हिंदी अखबारों की हेडिंग, सब-हेडिंग, रिपोर्ट और संपादकीय का यदि विश्लेषण करें तो पायेंगे कि पत्रकारिता के किसी भी पैमाने पर ये खरे नहीं उतरते हैं। पत्रकारिता का प्राथमिक तत्व तथ्यपरकता और वस्तुगतता है, जो इसमें से सिरे से गायब है। ऐसा लगता है कि यह रिपोर्ट और संपादकीय लिखने वाले पत्रकार और संपादक नहीं, बल्कि ऐसे लोगों की टीम है, जिनका मुख्य कार्य लोगों के भीतर जड़ जमाए मध्यकालीन बदले की भावना, बर्बरता, जाहिली, कूपमंडूकता और आंख के बदले के आंख की कबिलाई न्याय की मानसिकता को उकसाना और बढ़ावा देना है। इन हिंदी अखबारों को देखकर लगता है कि जैसे इनके बीच अपने पाठकों को जाहिल और विवेकहीन बनाने की होड़ लगी हो।

स पूरे मामले में हिंदी अखबारों के बिलकुल उलट अंग्रेजी के अखबारों का रूख है। एक ही मालिकान के हिंदी और अंग्रेजी अखबार (हिंदुस्तान और हिंदुस्तान टाइम्स) की हेडिंग और रिपोर्ट बिलकुल भिन्न-भिन्न हैं। हिंदी अखबार जहां मध्यकालीन बर्बरता के साथ खड़ा है, वहीं उसी मालिकान का अंग्रेजी अखबार आधुनिक मूल्यों की वकालत कर रहा है। अंग्रेजी के अखबार इस पूरे मामले में बदले की भावना से पैदा हुए न्याय की मांग को खारिज कर रहे हैं। अपने पाठकों को तथ्यों को आधुनिक मूल्यों और बड़े परिप्रेक्ष्य में देखने के लिए प्रेरित करने वाली सामग्री मुहैया करा रहे हैं।

खिर हिंदी और अंग्रेजी के अखबारों की रिपोर्टिंग और संपादकीय एक दूसरे के इतने उलट क्यों हैं?

सके कई कारण हैं। पहली बात तो यह कि अंग्रेजी हमारे शासकों की भाषा है। वे भले ही भारतीय जन को जाहिल, कूपमंडूक, तर्कक्षमता से रहित, विवेकहीन और आस्था से संचालित होने वाला पशु जैसा बनाकर रखना चाहते हो, लेकिन अपने वर्ग को एक हद तक आधुनिकता के मूल्यों से लैस रखना चाहते हैं, तभी वे अपना वर्चस्व और नियंत्रण कायम रख सकते हैं। दूसरी बात यह कि शासकों के साथ अंंग्रेजी उस उच्च मध्य वर्ग के व्यापक हिस्से और मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से की भाषा है, जो ग्लोबल विलेज के नागरिक बन गए हैं, या बनने का सपना रखते हैं, भले ही कानूनी तौर पर वे भारत के नागरिक हों।

सके लिए एक हद कि तथ्यपरकता और वस्तुपरकता आवश्यक है। तीसरी बात यह है कि हिंदी मूलत: इस देश के व्यापक गरीब-गुरबों की भाषा है, उन्हें मूर्ख बनाकर रखना और इनका वोट बैंक के रूप इस्तेमाल करना अंग्रेजीदां मालिकों की जरूरत है। एक और तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत में आधुनिकता की चेतना की जिन लोगों में पैठ हुई है, उसका बड़ा हिस्सा अंग्रेजी भाषाभाषी है या अंग्रेजी अखबार ही पढ़ता है।

क शब्द में कहें तो हिंदी अखबार मध्यकालीन कूपमंडूकता के प्रचार-प्रसार के अभी भी सबसे बड़े उपकरण हैं, क्योकि भले इन अखबारों के करीब 7 करोड़ लोग ही पढ़ते हो, लेकिन ये वो लोग हैं, जो हिंदू पट्टी के अगुवा हैं। इनका मनो-मस्तिष्क हिंदू पट्टी के पिछड़े संस्कारों से बना है और हिंदी के अखबार उनको खुराक देते हैं। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि हिंदी के अधिकांश पत्रकार और संपादक भी इस मनो-मस्तिष्क के हैं।

(डॉ. सिद्धार्थ फारवर्ड प्रेस (हिंदी) के संपादक हैं।)

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