संघी नेताओं, भाजपा सरकार और पुलिस की मिलीभगत का परिणाम कोरेगांव—भीमा में दलितों पर हिंसा

Update: 2018-01-03 18:23 GMT

उस वक्त के महार सैनिकों पर आज की 'देशभक्ति’ के तर्क लागू नहीं होते...

मैत्रेयी रानाडे सिधये

दलितों द्वारा भीमा कोरेगांव के युद्ध को शौर्य दिवस के रूप में याद करने से कोई सहमत या असहमत हो सकता है; यह भी तर्क दिया जा सकता है कि इसके बाद भी अंग्रेजी शासन ने दलितों पर अत्याचार रोकने के लिए क्या किया? खुद महारों को ही अपनी फ़ौज में भर्ती करने पर रोक लगा दी और पेशवा को दो लाख पौंड सालाना (आज कितने करोड़ होगा, मालूम नहीं!) की पेंशन दी। लेकिन न तो कोई दलितों को इसे शौर्य दिवस के रूप में मनाने से रोक सकता है, न ही इसके लिए कोई उन्हें देश विरोधी कह सकता है।

पेशवाई ब्राह्मण शासन में दलितों के ऊपर जो अत्यंत भयानक अत्याचार था, उसे जानकर उसके खिलाफ लड़ाई में शामिल होने के लिए उस वक्त के महार सैनिकों के निर्णय को भी स्वाभाविक ही माना जायेगा, बाद में उससे हासिल कुछ भी हो, या नहीं।

आज के 'देशभक्ति' के तर्क उस स्थिति पर लागू नहीं होते। इस तर्क के आधार पर तो मराठा, राजपूत, सिक्ख, ब्राह्मण आदि कितने ही शासक-सामंत देश विरोधी कहे जायेंगे क्योंकि उन्होने तो उस वक्त ही नहीं बल्कि 1947 तक हमेशा ही अंग्रेजों का साथ दिया और इनमें से बहुतेरे हिन्दू महासभा और संघ के संरक्षक भी रहे हैं जो खुद भी कभी अंग्रेजी शासन से नहीं लड़े।

'कोरेगांव भीमा' में दलितों भी जो हमला हुआ वह संघ, बीजेपी नेताओं, सरकार और पुलिस की मिलीभगत से ही हुआ है, यह जाहिर है। पर यह पिछले एक साल से मराठा मोर्चों और फिर जवाब में बहुजन मोर्चों के बीच विकसित होती स्थिति का परिणाम है।

वर्ण व्यवस्था में मराठा 'शूद्र' किसान जाति रहे हैं। इससे आने वाले भोंसले और गायकवाड़ शासक शुरुआत से डॉ अंबेडकर के सहायक ही नहीं रहे, बल्कि शाहूजी (भोंसले) ने ही अपने राज्य में सबसे पहले 1920 में आरक्षण व्यवस्था लागू की थी।

ज्योतिबा फुले से डॉ अंबेडकर के बहुजन के विचार में ये भी शामिल है। आज वही मराठा (और अन्य राज्यों में ऐसी जातियां) कैसे संघी ब्राह्मणवादी प्रोजेक्ट का हिस्सा बन रहे हैं, उसकी वजहों पर भी सोचने-विचारने की जरूरत है। इसे नजरअंदाज कर किये गए विश्लेषण वास्तविकता से दूर होंगे।

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