सपना था पापा का और चुकाना पड़ा बेटी को जान देकर

Update: 2017-10-10 10:31 GMT

एक बेटी को पिता के सपने पूरे न कर पाने के कारण अपनी जान देनी पड़ी। फिर भी उसने पिता को अपराधी बताने की जगह मरते वक्त अपने को दोषी मान सॉरी लिखा...

जनज्वार, दिल्ली। भला दूसरे का सपना भी कोई देखता है। पर यह अप्राकृतिक काम भारतीय मां—बाप अपने बच्चों के लिए खूब करते हैं। पहले क्या होता होगा, इसका तो पता नहीं पर पिछले दशक भर से मध्यवर्गीय परिवारों में बच्चों के सपने खुद ही देख लेने का कंपटीशन चल पड़ा है।

और तो और यह काम लगभग हमारे देश के संस्कारों और परंपरा में शामिल हो गया है, इसे मां—बाप उदाहरण की तरह पेश करने लगे हैं कि देखो फलां का बेटा या बेटी कैसे अपने मां—बाप के सपनों को पूरा कर दिए। ऐसे में हर मां—बाप एक थोक के भाव से एक से एक एक्सक्लूसिव सपने अपने बच्चों के लिए देख लिया करते हैं और उन्हें पूरा करने का जिम्मा उनपर ही ठेल देते हैं।

ऐसा ही ठेले हुए सपने का नतीजा उत्तर प्रदेश के नोएडा में 7 अक्टूबर की रात श्वेता सिंह नाम की एक लड़की की आत्महत्या के रूप में सामने आया है। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून की रहने वाली 35 वर्षीय श्वेता सिंह ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है, 'पापा मुझे माफ करना मैं आपके सपनों को पूरा नहीं कर पाई। मैं सरकारी अफसर नहीं बन पायी।' सुसाइड नोट में इस अतिवादी कदम के लिए भाई और पिता से माफी मांगी है।

सुसाइड नोट में उसने मां का कहीं जिक्र नहीं किया है। संभवत: मां का सपना बेटी को बेटी के रूप में देखने का रहा हो, अफसरी के दबाव में प्राण पखेरु उड़वाने का नहीं।

नोएडा के सेक्टर 12 में रह रही लड़की के पड़ोसियों ने 7 अक्टूबर की देर रात पुलिस को फोन कर लड़की की आत्महत्या की सूचना दी। 8 अक्टूबर की तड़के सुबह पहुंची पुलिस को लड़की दुपट्टे से पंखे पर लटकी मिली। इसके साथ ही लड़की के बेड से एक सुसाइड नोट मिला जिस पर लिखा था, 'मुझे माफ करना पापा, मैं आपके सपने को पूरा नहीं कर पाई, मैं सरकारी अफसर नहीं बन पाई।'

पड़ोसियों के अनुसार उम्र के 35 साल पूरी कर चुकी लड़की की शादी नहीं हुई थी। वह लगातार सरकारी अधिकारी बनने की परिक्षाएं दे रही थी। उसने अलग—अलग परीक्षाओं के दसों एटेम्प्ट दिए पर कहीं सफल न हो सकी। कहीं लिखित में रह जाती तो कहीं मौखिक में।

श्वेता अपने फ्लैट में अकेले ही रहती थी और वह स्वावलंबी थी। वह अपने खर्चे के लिए घर पर निर्भर रहने की बजाय अपने कमरे पर ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर खर्च निकालती थी। बावजूद इसके पिता का अधिकारी बनने को लेकर बहुत दबाव था, जिसके कारण उसने अपने लिए जीने की जगह मरने की राह चुनी।

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