हरदा ने उत्तराखण्ड में क्यों फेंका 21 सदस्यीय विधान परिषद का 'असंवैधानिक' पासा

Dehradun News : अपनी फेसबुक पोस्ट पर हरीश रावत विधान परिषद की जरूरत के बारे में किस प्रकार भूमिका बनाते हुए क्या तर्क दे रहे हैं, इसको पढ़ने के बाद इसकी संवैधानिक व्यवस्था पर बात करते हैं।

Update: 2021-11-22 17:01 GMT

सलीम मलिक की रिपोर्ट

देहरादून। उत्तर-प्रदेश जैसे विशालकाय प्रदेश का हिस्सा रहने के दौरान विकास के छींटों से तरसने वाले पर्वतीय क्षेत्र के विकास के नाम पर अस्तित्व में आये उत्तराखण्ड जैसे छोटे राज्य की मशीनरी भी जनाकांक्षाओं के अनुरूप राज्य का विकास नहीं कर पा रही है। इसके लिए यहां के जनप्रतिनिधियों की छोटी सोच-बड़े विज़न के अभाव के साथ ही नौकरशाही के भारी-भरकम भ्र्ष्टाचार को जिम्मेदार ठहराया जाता है। लेकिन प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व कांग्रेस चुनावी अभियान समिति के मुखिया हरीश रावत को विकास की दौड़ में पिछड़ रहे उत्तराखण्ड के पीछे खादी का पूरी तरह तुष्टिकरण न होना नजर आता है। उन्हें लगता है कि यदि कुछ और लोगों का राजनैतिक तुष्टिकरण कर उन्हें 'माननीय' बनाने वाली कोई जादू की छड़ी उनके हाथ लग जाये तो राज्य का वह विकास किया जाता है, जो अभी नहीं हो पाया है। अपनी इस सोच का दायरा व्यापक करते हुए उन्होंने उस जादू की उस छड़ी को भी खोज निकाला है, जिसे विधान परिषद कहते हैं। अपनी फेसबुक पोस्ट पर हरीश रावत विधान परिषद की जरूरत के बारे में किस प्रकार भूमिका बनाते हुए क्या तर्क दे रहे हैं, इसको पढ़ने के बाद इसकी संवैधानिक व्यवस्था पर बात करते हैं।

पहले रावत की फेसबुक पोस्ट

"एक बिंदु विचारार्थ बार-बार मेरे मन में आता है कि उत्तराखंड में राजनैतिक स्थिरता कैसे रहे। राजनैतिक दलों में आंतरिक संतुलन और स्थिरता कैसे पैदा हो। जब स्थिरता नहीं होती है तो विकास नहीं होता है, केवल बातें होती हैं। मैं पिछले 21 साल के इतिहास को यदि देखता हूँ तो मुझे लगता है कि उत्तराखंड के अंदर राजनैतिक अस्थिरता पहले दिन से ही हावी है। उत्तराखंड में प्रत्येक राजनैतिक दल में इतने लोग हैं कि सबको समन्वित कर चलना उनके लिये कठिन है और कांग्रेस व भाजपा जैसे पार्टियों के लिए तो यह कठिनतर होता जा रहा है। केंद्र सरकार का यह निर्णय कि राज्य में गठित होने वाले मंत्रिमंडल की संख्या कितनी हो, उससे छोटे राज्यों के सामने और ज्यादा दिक्कत पैदा होनी है। अब उत्तराखंड जैसे राज्यों में मंत्री 12 बनाए जा सकते है, मगर विभाग तो सारे हैं जो बड़े राज्यों में है, सचिव भी उतने ही हैं जितने सब राज्यों में हैं। मगर एक-एक मंत्री, कई-2 विभागों को संभालते हैं, किसी में उनकी रूचि कम हो जाती है तो किसी में ज्यादा हो जाती है और छोटे विभागों पर मंत्रियों का फोकस नहीं रहता है और उससे जो छोटे विभाग हैं उनकी ग्रोथ पर विपरीत असर पड़ रहा है, जबकि प्रशासन का छोटे से छोटा विभाग भी जनकल्याण के लिए बहुत उपयोगी होता है तो मैंने कई दृष्टिकोण से सोचा और मैंने पाया कि उत्तराखंड जैसे राज्य के अंदर हमें कोई न कोई रास्ता ऐसा निकलना पड़ेगा, जिस रास्ते से राजनैतिक दल चाहे वो सत्तारूढ़ हो या विपक्ष हो उसमें राजनैतिक स्थिरता रहे और एक परिपक्व राजनैतिक धारा राज्य के अंदर विकसित हो सके और एक निश्चित सोच के आधार पर वो राजनैतिक दल आगे प्रशासनिक व्यवस्था और विकास का संचालन करें। यहां मेरे मन में एक ख्याल और आता है, क्योंकि तत्कालिक संघर्ष से निकले हुये लोगों के साथ बातचीत कर मैंने कांग्रेस पार्टी के घोषणा पत्र में 2002 में विधान परिषद का गठन का वादा किया था, तो कालांतर में कतिपय कारणों के कारण गठित नहीं हो पाई और उसके बाद के जो अनुभव रहे हैं, वो अनुभव कई दृष्टिकोणों से राज्य के हित में नहीं रहे हैं। इसलिये मैं समझता हूँ कि फिर से इस प्रश्न पर विचार करने की आवश्यकता पड़ रही है कि विधान परिषद होनी चाहिए या नहीं होनी चाहिए! और मैं समझता हूंँ 21 सदस्यीय विधान परिषद उपयोगिता के दृष्टिकोण से उत्तराखंड जैसे राज्य के लिए बहुत लाभदायी हो सकती है, राजनैतिक स्थिरता पैदा करने वाला कारक बन सकती है। इससे राज्य में नेतृत्व विकास भी होगा, इस समय, समय की परख के साथ और उत्तर प्रदेश के समय से जिन लोगों ने थोड़ा सा अपना व्यक्तित्व बना लिया था वो तो आज भी राज्य के नेतृत्व की लाइन में सक्षम दिखाई देते हैं। लेकिन जो लोग उत्तर प्रदेश के समय से जिन्हें विशुद्ध रूप से हम यह कहे कि ववो उत्तराखंड बनने के बाद राजनीति में प्रभावी हुए हैं तो ऐसे व्यक्तित्व कांग्रेस और भाजपा में कम दिखाई देंगे।"

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अपनी जिस पोस्ट में हरीश रावत विधान परिषद के अभाव में राज्य में नेतृत्व के विकसित न होने का तर्क दे रहे हैं। वही राज्य आज भी अपने सर्वाधिक पूर्व मुख्यमंत्रियों के लिए जाना जा रहा है। इतने पर भी यदि उन्हें राज्य में नेतृत्व का उभार नजर नहीं आता है तो यह राजनैतिक दलों की सांगठनिक पराजय ही है, जिस पर रावत ने चुप्पी साथ ली है। राज्य में जिस राजनैतिक अस्थिरता की रावत बात कर रहे हैं, उसकी बुनियाद भी जहां तक याद पड़ता है, उन्ही के द्वारा तब से रखी गयी है जब वह अपनी ही पार्टी की तिवारी सरकार के खिलाफ ही धरने-कीर्तन किया करते थे।

बहरहाल, रावत की फेसबुक पोस्ट की मीमांसा न करते हुए यदि सीधे उनकी ही जादू की छड़ी की भी बात की जाए तो उत्तराखण्ड जैसे छोटे राज्य में संवैधानिक रूप से विधान परिषद का गठन ही सम्भव ही नहीं है।

कैसे होता है विधान परिषद का गठन

विधान परिषद के गठन के लिए राज्य की विधानसभा से प्रस्ताव पारित कर केन्द्र को भेजा जाता है। जहां संसद के दोनों सदनों (लोकसभा-राज्यसभा) से पारित होने के बाद इसे राष्ट्रपति अपनी मंजूरी देते हैं। असम सरकार 2010 में तथा राजस्थान सरकार 2012 में अपनी-अपनी विधानसभाओं से यह प्रस्ताव पारित कर केंद्र को भेज चुकी हैं। दोनो प्रस्ताव फिलहाल राज्यसभा में अटके पड़े हैं। इसके अलावा इसी साल जुलाई में ही पश्चिमी बंगाल की ममता बनर्जी ने भी यह प्रस्ताव पारित कर केंद्र को भेजा है। पश्चिमी बंगाल में 1952 में 51 सदस्यीय विधान परिषद का गठन किया गया था, जिसे 1969 में भंग किया जा चुका है।

कितनी संख्या पर बनती है विधान परिषद

विधान परिषद का गठन करने के लिए के सदस्यों की संख्या का यही वह पेंच है जो हरीश रावत की विधान परिषद स्थापना की इच्छा में संवैधानिक अवरोध खड़ा करती है। दरअसल विधान परिषद की सदस्य संख्या राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों की एक तिहाई संख्या (जो की 40 से कम नहीं होनी चाहिए) से अधिक नहीं हो सकती। उत्तराखण्ड की बात करें तो सत्तर सदस्यीय विधानसभा का एक तिहाई केवल 23 सदस्य होता है, जो कि विधान परिषद के जरूरी 40 सदस्यों के लिए 17 कम है। (हालांकि जम्मू-कश्मीर में विधान परिषद 36 सदस्यों की थी, जो कि उसके अब केंद्र शासित राज्य बनने के बाद भंग हो चुकी है)

क्या विकास की सौ प्रतिशत गारंटी है विधान परिषद

जब हरीश रावत जैसे दिग्गज नेता विकास के लिए विधान परिषद की जरूरत बताएं तो यह सवाल भी उठना लाजिमी है कि क्या विधान परिषद विकास की गारंटी है। देश भर के राज्यों के राजनैतिक ढांचे पर नजर दौड़ायें तो पता चलता है कि केवल छः राज्य (सातवें राज्य जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा खत्म होने के कारण यहां विधान परिषद भंग हो चुकी है) आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, बिहार, उत्तर-प्रदेश के पास ही विधान परिषद है। शेष राज्यों की स्थिति जिसमें हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, केरल जैसे उत्तराखण्ड से कहीं अधिक विकसित राज्य भी हैं, बिना किसी विधान परिषद के उत्तराखण्ड सरीखी ही है।

क्या विधान परिषद न होने से विकास का कोई लेना-देना है

हरीश रावत जिस विधान परिषद की पैरवी में जुटे हैं, वह राज्य के विकास के लिए कोई अतिरिक्त बजट उपलब्ध नहीं कराती। उल्टे राज्य को मिलने वाले उसी बजट उसे विधान परिषद के खर्चे को भी वहन करना पड़ता है। राज्य के सभी विधानसभा क्षेत्रों से जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि विधानसभा में पहुंचने के कारण कोई क्षेत्र बिना प्रनिधित्व का नहीं होता। अलबत्ता विधान परिषद में नामित के नाम पर राजनैतिक दलों को कुछ लोगों का राजनैतिक तुष्टिकरण करने की सुविधा जरूर हासिल हो जाती है। खेल, साहित्य, कला, शिक्षा, विज्ञान आदि क्षेत्रों से राज्यपाल अवश्य किसी विशेष व्यक्तित्व का मनोनयन विधान परिषद के लिए कर सकते हैं। लेकिन वर्तमान चलन को देखते हुए शायद ही किसी को आशा हो कि इसका सदुपयोग होगा।

कुल मिलाकर हरीश रावत ने विकास की आड़ लेकर जो विधान परिषद का पासा फेंका है, वह न केवल संवैधानिक अवरोधों के चलते बूमरेंग साबित होगा बल्कि उनके अब तक के व्यक्तित्व पर सवालिया निशान उठाने वाला भी है। देश के कई राज्य बिना विधान परिषद के ही उत्तराखण्ड से अधिक विकसित हैं, वहां राजनैतिक दलों से नेतृत्व भी निकलता है। हरीश रावत सोचें कि ऐसा है तो क्यों है ?

वैसे हरीश रावत राजनैतिक दलों के लोगों को पद दिए जाने के लिए जिस तरह विधान परिषद की पैरवी कर रहें हैं, उसके विकल्प के तौर पर कांग्रेस के दिग्गज नेता स्व. पण्डित नारायणदत्त तिवारी पहले ही अपने पिटारे से एक जादू की छड़ी इस प्रदेश को अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में दे चुके हैं।

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