Familism vs Democracy : राजनीति में परिवारवाद चिंता का विषय क्यों, जानिए देश के किन-किन राज्यों में हैं ऐसे हालात

Familism vs Democracy : आखिर क्यों प्रणव मुखर्जी या अर्जुन सिंह या फिर शरद पवार जैसों की अनदेखी कर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया? इसका जवाब एक और प्रश्न है कि आखिर क्यों लालू यादव ने राबड़ी देवी को और मुलायम सिंह यादव ने आजम खान और शिवपाल यादव के घोर विरोध के बावजूद नौसिखिए अखिलेश यादव को सीएम बनवाया?

Update: 2021-11-27 05:48 GMT

भारतीय राजनीति में परिवारवाद से ताल्लुक रखने वाले प्रमुख युवा चेहरे। 

परिवारवाद बनाम लोकतंत्र पर धीरेंद्र मिश्र का विश्लेषण  

Familism vs Democracy : आजादी के बाद देश में सबसे पहले समाजवादी चिंतक और राजनेता राम मनोहर लोहिया ( Ram Manohar Lohiya ) ने राजनीति में परिवारवाद ( Familism ) का विरोध किया था। उसके बाद से परिवारवाद समय-समय पर सियासी चर्चा का विषय बनता रहा है, लेकिन आरोप-प्रत्यारोप के अलावे अभी तक देश को सियासी परिवार से मुक्ति दिलाने की बातें आगे नहीं बढ़ पाई हैं। संविधान दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ( PM Narendra Modi ) ने एक बार फिर परिवारवाद का राग छेड़कर उसे चर्चा के केंद्र में ला दिया है। हालांकि, उनकी पार्टी यानि भाजपा खुद इसकी शिकार है। दूसरी तरफ सियासी दलों ने भी पीएम के बयान का विरोध किया है।

पीएम मोदी ने क्या कहा?

पीएम मोदी के बयान के बाद से परिवारवाद एक बार फिर चर्चा में है। पीएम मोदी ने पारि‍वारिक पार्टियों पर जमकर हमला बोला। उन्‍होंने कहा कि हम एक ही परिवार से कई लोगों की राजनीति में आने का विरोध नहीं करते हैं, लेकिन एक ही परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी उसका उसे चलाए, यह कहां का लोकतंत्र ( Democracy ) है।ऐसी पार्टियां संविधान को भूल चुकी हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली पार्टियां चिंता का विषय हैं। वह, इस बात के खिलाफ नहीं है कि एक ही परिवार से कोई दूसरा व्‍यक्ति राजनीतिक पार्टी में न आए। वो इससे दुखी हैं कि कुछ पार्टियां पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार से चलती हैं। कुछ पार्टियां तो फार द फैमिली, बाए द फैमिली...आगे कहने की जरूरत नहीं है।

भारत में गहरी जड़ें जमा चुकी है परिवारवाद

विश्व के लोकतंत्रिक इतिहास में भारत ऐसा देश है, जहां परिवारवाद की जड़ें गहरी धंसी हुई हैं। यहां एक ही परिवार के कई व्यक्ति लंबे समय से प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय राजनीति की धुरी रहे हैं। आजादी के तुरंत बाद शुरू हुई वंशवाद की यह अलोकतानात्रिक परंपरा अब काफी मजबूत हो चुकी है। राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ राज्य और स्थानीय स्तर पर इसकी जड़े इतनी जम चुकी हैं। देश का प्रजातंत्र पर परिवारतंत्र भारी नजर आने लगा है। ऐसे में परिवारतंत्र को कितना लोकतांत्रिक कहा जा सकता है, यह सवाल दिनों दिन बढ़ता जा रहा है।

आजादी की पार्टी सबसे ज्यादा शिकार

अगर हम देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की ही बात करें तो जवाहर लाल नेहरू के बाद इंदिरा गांधी राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के हाथों में बागडोर दशकों से है। बीच में किसी को अपवाद के रूप में मौका मिला तो उसका हाल क्या हुआ सब जानते हैं। कुछ वामपंथी दलों के नेताओं को छोड़कर लगभग सभी राजनीतिक दलों पर परिवारवाद के कलंक लगे हुए हैं।

संविधान दिवस का विरोध करने वाली पार्टियां खुद परिवारवाद का शिकार

26 नवंबर को 14 सियासी दलों ने एक सुर में संविधान दिवस का विरोध किया था। खास बात यह है कि इन सभी पार्टियों में परिवारवाद गहरी जड़ें जाम चुकी हैं। कांग्रेस के अलावा इस कार्यक्रम का समाजवादी पार्टी (सपा), आम आदमी पार्टी ( आप ), सीपीआई, सीपीएम, डीएमके, शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना, एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी ( आरएसपी ) और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ( आईयूएमएल ) ने भी बहिष्कार किया। बहुत हद तक एआईएमआईएम ओवैसी की पार्टी भी उसी राह पर है।

किन राज्यों में कितना हावी है परिवारवाद

1. उत्तर प्रदेश

सियासी नजरिए से उत्तर प्रदेश सबसे मजबूत राज्य है। यहां पर परिवारवाद के धुर विरोधी लोहिया के शिष्य मुलायम सिंह यादव समाजवादी पार्टी को परिवार की प्रॉपर्टी मानते हैं। मुलायम सिंह के परिवार के लगभग बीस छोटे बड़े सदस्य केन्द्र या उत्तर प्रदेश की कुर्सियों पर विराजमान हैं। स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री जी के पुत्र, गोविन्द वल्लभ पंत के पुत्र-पौत्र, बहुगुणा परिवार, चौधरी चरणसिंह के पुत्र एवं पौत्र, मायावती के भतीजे, कल्याण सिंह के पुत्र, राजनाथ सिंह के पुत्र, मेनका गांधी और वरुण गांधी जैसे कई परिवार इसके उदाहरण हैं।

2. महाराष्ट्र

शिवसेना प्रमुख बाला साहब का पुत्र-पौत्र प्रेम और राजनीति में परिवारवाद का प्यारा उदाहरण है। सीएम उद्धव ठाकरे खुद बाला साहब के पुत्र हैं। महाराष्ट्र सरकार में मंत्री आदित्य ठाकरे सीएम के पुवत्र हैं। नेता शरद पवार की बेटी और भतीता, पाटिल और चव्हान परिवार भी उसी का प्रतीक है।

3. बिहार

आरजेडी सुप्रीम लालू प्रसाद,पत्नी राबड़ी देवी, तेजस्वी और तेज प्रताप यादव, बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

4. जम्मू-कश्मीर

स्व. शेख अब्दुला के बाद उनके बेटे फारूख अब्दुला और उनके भी बेटे उम्रर अब्दुला क्रमश केन्द्र व राज्य की राजनीति में काबिज है। कश्मीर में ही विरोधी नेता महबूबा मुफ्ती अपने पिता भूतपूर्व केंद्रीय गृह मंत्री की विरासत की मालकिन हैं।

5. मध्य प्रदेश

मध्य प्रदेश में शुक्ला बन्धु अपने पिता की विरासत को लंबे समय तक संभालते रहे थे। सिंधिया राजपरिवार, अर्जुन सिंह अब दिग्विजय सिंह का परिवार इसी राह पर है।

6. राजस्थान

राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रह चुकीं ममता शर्मा के ससुर लंबे समय तक राजस्थान में कई विभागों के मन्त्री रहे थे। राजस्थान के वर्तमान गृहमंत्री शांति धारीवाल के पिता भी अपने समय में बड़े नेता थे। राजेश पायलट उनके पुत्र सचिन पायरल, नटवर सिंह, शेखावत परिवार और अब सीएम अशोक गहलोत भी उसी राह पर हैं।

7. पंजाब

शिरोमणि अकाली दल के प्रकाशसिंह बादल, सुखबीर बादल, हरसिमरत कौर बादल का परिवार राजनीति पर काबिज है।

8. हरियाणा

स्वर्गीय देवीलाल, उनके पुत्र अजय और अभय चौटाला, दुष्यंत चौटाला इनेलो की कुर्सी पर काबिज हैं। हालांकि, दुष्यंत ने अपनी अलग पार्टी बना ली है। इसी तरह हरियाणा के दो भूतपूर्व बड़े नेता चौधरी बंशीलाल व भजनलाल के वंशज व अब भूपेंद्र सिंह हुड्डा का परिवार उसी का पर्याय है।

9. हिमांचल

भारतीय जनता पार्टी के पूर्व मुख्यमंत्री के पुत्र अनुराग ठाकुर, सुखराम और शांता कुमार का परिवार वहां की राजनीति पर काबिज है।

10. उत्तराखंड

वर्तमान मुख्यमन्त्री अपने पिता हेमवतीनंदन की लीक पर हैं, उनकी बहन भी उत्तर प्रदेश में कॉग्रेस की कमान संभाल चुकी हैं। हालांकि वो अब योगी सरकार में मंत्री हैं।

11. मेघालय :

हारे हुए राष्ट्रपति और पूर्व लोकसभा अध्यक्ष रह चुके पीए संगमा के पुत्र कोनराड संगमा और उनकी बेटी मेघालय सहित असम की राजनीति पर भी काबिज हैं।

12. पश्चिम बंगाल

सीएम ममता बनर्जी के बाद उनका भतीजा अभिषेक बनर्जी पार्टी को अपने हाथ में ले चुके हैं।

13. झारखंड

शिबूसोरेन व उनके बेटे का राजनीतिक दांवपेंच सिर्फ कुर्सी के लिए चलता रहा। वहां कोई सिद्धांतों की बात नहीं है।

14. दिल्ली

मुख्यमंत्री शीला दीक्षित व उनके बेटे, साहिब सिंह वर्मा व उनके बेटे परवेश वर्मा और अरविंद केजरीवाल भी उसी राह पर हैं।

15. तमिलनाडु

एम करुनानिधि पुत्र एवं पुत्री, भतीजे व अन्य रिश्तेदारों के साथ बदनामी झेल रहे हैं।

16. केरल

स्वर्गीय करुणाकरण ने पुत्र मोह मे बहुत खेल किया यहां तक कि पार्टी से विद्रोह भी किया।

17. कर्नाटक

स्वनामधन्य हरदनहल्ली देवेगौड़ा के उखाड़ पछाड़ में उनके बेटे का मुख्यमंत्री बनना और हटाया जाना ज्यादा पुराना नहीं हुआ है।

18. आंध्र प्रदेश

मफिल्मों से आये राजनेता/मुख्यमन्त्री एनटीआर की विरासत में पत्नी लक्ष्मी और दामाद चंद्रबाबू नायडू के राजकाज की बातें अब भी लोगों को याद हैं। आंध्र में ही पूर्व मुख्यमन्त्री राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगन मोहन रेड्डी हक वर्तमान में प्रदेश के सीएम हैं।

19. ओडिशा

ओडिशा में बीजू पटनायक के बाद नवीन पटनायक। 

क्या परिवारवाद जनतंत्र में मुद्दा है?

जब भी परिवारवाद का मुद्दा उठता है तो सबसे ज्यादा निशाने पर सोनिया गांधी और उनका परिवार होता है। ऐसा इसलिए भी होता है कि उनके और उनके बेटे राहुल पर परिवारवाद का ठप्पा लगाना सबसे आसान है। हालांकि, देश के कुछ प्रबुद्ध नेता भी मानते हैं कि अब परिवारवाद कोई मुद्दा नहीं है। जनता बुद्धिमान है, अपना वोट देकर पार्लियामेन्ट में भेजती है। कल को मेरा बेटा या पोता चुनाव लड़ना चाहेगा तो कौन रोक सकता है, यह जनतंत्र है। इसके विरोध में सवाल यह भी उठता है कि आखिर क्यों प्रणव मुखर्जी या अर्जुन सिंह या फिर शरद पवार जैसों की अनदेखी कर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया? इसका जवाब एक और प्रश्न है कि आखिर क्यों लालू यादव ने राबड़ी देवी को और मुलायम सिंह यादव ने आजम खान और शिवपाल यादव के घोर विरोध के बावजूद नौसिखिए अखिलेश यादव को सीएम बनवाया? केवल इसलिए ही न परिवार सत्ता पर काबिज रहे। फिर चाहे वह तात्कालिक रूप से ही क्यों न हो।।


परिवारवाद को लेकर लोहिया के विचार

Familism vs Democracy : भारतीय राजनीति में अगर परिवारवाद का शुद्ध मन से विरोध करने वाले कोई राजनीतिज्ञ थे तो वो राम मनोहर लोहिया थे। राम मनोहर लोहिया का मानना था की राजनीति में वंशवाद नहीं होना चाहिए जिसमे नेतृत्व की क्षमता हो वो आगे बढ कर राजनीति को थाम ले साथ ही जनता के हित में काम करे न की अपने और अपने परिवार के लिए। ताज्जुब की बात ये है कि समाजवाद के पुरोधा डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचार को उनके शिष्य मुलायम सिंह यादव और लालू यादव ही मानने को तैयार नहीं हैं।

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