समलैंगिक जोड़ों के विवाह को मान्यता देने से सुप्रीम कोर्ट का इंकार, बच्चा गोद लेने के अधिकार पर बाल अधिकार संरक्षण आयोग पहले ही जता चुका बड़ी आपत्ति

Same Sex Marriage : सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने वाला फैसला दिया था। उससे पहले तक दरअसल, IPC की धारा 377 के तहत समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखा जाता था....

Update: 2023-10-17 10:39 GMT

Same Sex Marriage : आज 17 अक्टूबर को समलैंगिक शादियों को मान्यता देने या न देने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में बड़ा फैसला आया है। फैसला आने से पहले समलैंगिक इस सुनवाई को लेकर बहुत उम्मीद से भरे हुए थे कि उनके पक्ष में देश की सबसे बड़ी अदालत फैसला सुनायेगी, मगर जब फैसला आया तो इसने समलैंगिक जोड़ों को निराश किया।

आज हुई सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक शादी को कानूनी मान्यता देने से साफतौर पर इंकार कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय खंडपीठ इस मामले में सुनवाई कर रही थी और खंडपीठ न्ै 3-2 के बहुमत से फैसला देते हुए कहा कि यह विधायिका का अधिकार क्षेत्र है। साथ ही कोर्ट ने बाकी सिविल अधिकारों के लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा दिया है। वहीं सुप्रीम कोर्ट ने स्पेशल मैरिज एक्ट में बदलाव से भी साफ तौर पर इंकार कर दिया है।

गौरतलब है कि समलैंगिक शादियों को मान्यता को लेकर 5 सदस्यीय खंडपीठ में जस्टिस एस रवींद्र भट, जस्टिस हिमा कोहली, जस्टिस पी एस नरसिम्हा, CJI डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस संजय किशन कौल शामिल थे। समलैंगिक शादियों को मान्यता न देने का फैसला 3:2 के बहुमत से जस्टिस एस रवींद्र भट, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पी एस नरसिम्हा ने सुनाया, वहीं CJI डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस संजय किशन कौल ने समलैंगिकों के पक्ष में जो बातें रखीं वह अल्पमत के कारण खारिज हो गयीं।

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समलैंगिक जोड़ों द्वारा बच्चा गोद लेने संबंधी मामले में जब शुरुआत में चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपना फैसला पढ़ना शुरू किया तो समलैंगिक जोड़ों को उम्मीद जगी थी कि उन्हें बच्चा गोद लेने का अधिकार मिल जायेगा। चीफ जस्टिस ने गोद लेने के लिए केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण के दिशानिर्देशों का जिक्र करते हुए कहा, किशोर न्याय अधिनियम अविवाहित जोड़ों को बच्चा गोद लेने से नहीं रोकता। भारतीय संघ ने भी यह साबित नहीं किया है कि ऐसा करना बच्चे के सबसे ज्यादा हित में है, इसीलिए CARA विनियमन 5(3) अप्रत्यक्ष रूप से असामान्य यूनियनों के खिलाफ भेदभाव करता है। विवाहित जोड़ों और अविवाहित जोड़ों के बीच अंतर करने का बच्चे के सर्वोत्तम हितों को सुनिश्चित करने वाले CARA के उद्देश्य के साथ कोई खास संबंध नहीं है। चीफ जस्टिस की इस बात पर जस्टिस किशन कौल ने भी सहमति जतायी थी, मगर खंडपीठ में शामिल जस्टिस एस रवींद्र भट्ट, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा ने इस पर असहमति जता दी।

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गौरतलब है कि 18 से ज्यादा समलैंगिक जोड़ों की तरफ से याचिका दायर की गई थी कि उनकी शादी को कानूनी मान्यता दी जाए। इन याचिकाओं में 1954 के विशेष विवाह अधिनियम, 1955 के हिंदू विवाह अधिनियम और 1969 विदेशी विवाह अधिनियम के प्रावधानों को चुनौती दी गई थी। वहीं केंद्र सरकार ने भी समलैंगिक विवाह को मान्यता का विरोध किया था। केंद्र की मोदी सरकार ने तर्क दिया था कि इस मुद्दे पर कानून बनाने का हक सरकार का है। यह न सिर्फ देश की सांस्कृतिक और नैतिक परंपरा के खिलाफ है, बल्कि इसे मान्यता देने से पहले 28 कानूनों के 160 प्रावधानों में बदलाव करना होगा और पर्सनल लॉ से भी छेड़छाड़ करनी पड़ेगी।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने समलैंगिकों को बच्चा गोद लेने की इजाजत देने का भी विरोध किया था। बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने कोर्ट में तर्क दिया था कि इस तरह का प्रयोग नहीं होना चाहिए। साथ ही यह भी कहा था कि समलैंगिक जिस बच्चे का पालन करेंगे उसका मानसिक और भावनात्मक विकास कम हो सकता है।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने वाला फैसला दिया था। उससे पहले तक दरअसल, IPC की धारा 377 के तहत समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखा जाता था। 

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