आंदोलनों को दबाने के लिए धामी सरकार का बड़ा कदम, जिलाधिकारियों को दिया रासुका लगाने का अधिकार
उत्तराखण्ड में इस समय चल रहे कई आंदोलन सरकार के गले की हड्डी बने हुए हैं, तीर्थ-पुरोहित आंदोलन हो या आशाओं का आन्दोलन, विद्युतकर्मियों की मांग हो या रोजगार मांगती बेरोजगार युवाओं की भीड़, सभी क्षेत्रों में सरकार असफल हुई है, कहीं जिलाधिकारियों को रासुका का अधिकार इन्हें दबाना तो नहीं...
सलीम मलिक की रिपोर्ट
देहरादून। जनहित के कामों को शासन स्तर पर होने वाली लेट-लतीफी से बचाने के लिए शासन की शक्तियों का विकेंद्रीकरण उन्हें निचले स्तर के अधिकारियों को हस्तांतरित किये जाने की प्रथा है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी की उत्तराखंड सरकार ने लोगों पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (national security law) थोपने की लिए इस प्रथा का उपयोग करते हुए रासुका लगाने का अधिकार प्रदेश के जिलाधिकारियों को सौंप दिया है।
इसका मतलब यह है कि रासुका लगाने की फाइल शासन स्तर पर लम्बित नहीं होगी। जिलाधिकारी स्तर पर ही इसका फैसला लिया जा सकेगा। शासन की ओर से इसके लिए सरकार की ओर से शान्ति-व्यवस्था बनाये रखने का तर्क दिया गया है, लेकिन विधानसभा चुनाव से पूर्व जनांदोलनों की तपिश से अपने हाथ जला रही सरकार की मंशा समझना मुश्किल नहीं है कि किन लोगों के खिलाफ इसका उपयोग किया जाना है।
उत्तराखंड सरकार के मुख्य गृह सचिव आनंद वर्धन द्वारा सोमवार 4 अक्टूबर को यह आदेश जारी कर राज्य की कुछ घटनाओं (किसी विशेष घटना का उल्लेख नहीं किया गया है) व उनकी प्रतिक्रिया में अन्य क्षेत्रों में भी ऐसी घटनाएं सामने आने पर यह स्थिति आई है। सरकार का मानना है कि समाज विरोधी तत्व राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था और समुदाय के लिये प्रदायों और सेवाओं को बनाए रखने के लिए प्रतिकूल क्रियाकलापों में भाग ले रहे हैं।
उत्तराखंड में विद्यमान और संभावित परिस्थितियों को दृष्टिगत राज्य सरकार के लिए ऐसा करना आवश्यक है। जिस कारण राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (रासुका) की धारा तीन की उपधारा दो के तहत मिली शक्तियों का प्रयोग करने के लिए राज्य के सभी जिलाधिकारी को अधिकृत किया जाता है। प्रदेश के सभी जिलाधिकारी अगले तीन महीने तक रासुका लगाने के अधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं।
गौरतलब है कि अब तक रासुका लगाने का अधिकार केंद्र और राज्य सरकार को था, जिसके तहत गिरफ्तारी का आदेश इन्हीं दोनों द्वारा दिया जाता था। राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1980 देश की सुरक्षा के लिए सरकार को ज्यादा पावर (शक्ति) देने से जुड़ा हुआ एक कानून है। इसके तहत केंद्र और राज्य सरकार को इस बात की पावर रहती है कि वह किसी भी संदिग्ध नागरिक को कस्टडी में ले सके। यह कानून 23 सितंबर 1980 को इंदिरा गांधी की सरकार के दौरान बनाया गया था।
भाजपा शासित राज्य उत्तराखंड में अगले वर्ष के प्रारम्भ में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं। भावनात्मक मुददों के सहारे सत्ता हथिया चुकी भाजपा सरकार का उसके पूरे कार्यकाल में कोई उल्लेखनीय काम नहीं रहा है, जिस कारण प्रदेश की जनता का हर वर्ग त्राहिमाम-त्राहिमाम की स्थिति में है। प्रदेश में इस समय चल रहे कई आंदोलन सरकार के गले की हड्डी बने हुए हैं। तीर्थ-पुरोहित आंदोलन हो या आशाओं का आन्दोलन। विद्युतकर्मियों की मांग हो या रोजगार मांगती बेरोजगार युवाओं की भीड़। सभी क्षेत्रों में सरकार असफल हुई है।
समस्याओं के निदान के लिए जादूगर के हेट से खरगोश निकालने की तर्ज पर काम करते हुए भाजपा ने अपने तरकश से "मुख्यमंत्री बदलो योजना" निकालने का अभिनव प्रयोग करके भी देख लिया, लेकिन उसे इससे भी कोई राहत मिलती नजर नहीं आ रही है।
सर्वविदित तथ्य है कि सत्ता प्राप्त होने के बाद भारतीय जनता पार्टी जनता की ओर से होने वाले हर आंदोलन को एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बजाए शत्रुता के भाव से देखती है। भले ही विपक्ष में रहते हुए भाजपा खुद कितने भी आंदोलन कर ले। लेकिन दूसरों का आंदोलन उसे किसी कीमत पर नहीं सुहाता। ऐसे आंदोलन को बहला-फुसलाकर, कुटिलतापूर्वक बदनाम करने से लेकर निर्ममतापूर्वक कुचलने (लखीमपुर खीरी सबसे नया उदाहरण है) तक के सारे हथकंडों से भाजपा को कोई गुरेज नहीं है।
ऐसी सूरत में प्रदेश की सत्ता पर काबिज सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा जैसा कठोर कानून लगाने की शक्तियों को यदि जिला स्तर पर हस्तांतरित कर रही है तो समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है कि आने वाले समय में इन शक्तियों का उपयोग किस प्रकार होगा।