UP में छोटे दलों की क्यों बढ़ी अहमियत, बड़े दलों के साथ किसकी, कहां पक रही है सियासी खिचड़ी?

आप छोटे-छोटे राजनीतिक दलों को चाहे जिस नजरिए से देखें, पर इतना तय है कि यूपी में इन सियासी दलों की अहमियत पहले की तुलना में अब काफी ज्यादा है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने इसका लाभ उठाकर भाजपा के खिलाफ सियासी मैदान में मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी के रूप में खुद को खड़ा कर लिया है।

Update: 2022-01-01 09:56 GMT

यूपी में छोटे दलों की सियासी प्रासंगिकता पहले की तुलना में अब काफी ज्यादा। 

यूपी में छोटे दलों की सियासी प्रासंगिकता पर धीरेंद्र मिश्र का विश्लेषण 


UP Election 2022 : यूपी विधानसभा चुनाव में इस बार बड़े दल आपस में गठबंधन करने से कन्नी काट रहे हैं। आखिर ऐसा क्यों हैं, क्या 2017 में सपा-कांग्रेस और 2019 में सपा-बसपा या फिर अभी बड़े दलों के बीच गठबंधन का अनुभव अच्छा नहीं रहा। या फिर ये मान लें कि भाजपा ने जो 2017 में छोटे दलों के साथ जो प्रयोग किया था, वहीं सही है। कहीं सपा उसी बात को ध्यान में रखते हुए भाजपा को पटखनी देने में तो नहीं जुटी है।

बात चाहे कुछ भी हो, लेकिन इतना तय है कि यूपी में सियासी दलों की अहमियत पहले की तुलना में अब काफी ज्यादा हो गई है। और, इसका लाभ उठाकर समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने खुद को भाजपा के खिलाफ मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी के रूप में खुद को ला खड़ा किया है। कांग्रेस इस मामले में पिछड़ गई है। कांग्रेस गठबंधन तो चाहती पर उसकी स्थिति अभी स्पष्ट नहीं है। जबकि बसपा प्रमुख मायावती ने साफ कर दिया है कि किसी से गठबंधन के बदले सभी 403 सीटों में पार्टी प्रत्याशी उतारने जा रही हैं। अखिलेश यादव पहले ही कह चुके है। कि सपा इस बार बड़ी पार्टियों के साथ गठबंधन नहीं करेगी। भाजपा का इस रणनीति पर 2012 से ही काम कर रही है।

UP में छोटे-छोटे 474 सियासी दल

देश में पिछले चुनावों तक 1786 छोटे ऐसे दल चुनाव आयोग में रजिस्टर्ड थे। इनमें से ज्यादातर का न तो कोई नाम जानता है और न ही वो चुनावों में उतरते हैं। इन्हें चुनाव आयोग की मान्यता भी नहीं हासिल है। ये सभी दल इसके बाद भी लगातार बढ़ भी रहे हैं। इनमें से बहुत से दल चुनाव मैदान में ताल भी ठोकते हैं।

जहां तक यूपी की बात है तो पिछले चुनावों में यूपी में रजिस्टर्ड दलों की संख्या 474 थी। सही मायनों में ये दल जेबी संगठन की तरह काम करते हैं। इनमें से तकरीबन 15 के पास छोटे दलों स्थानीय असर दिखाई भी देता है। उत्तर प्रदेश के पिछले चुनावों में 474 में से 289 पार्टियों ने चुनाव में शिरकत भी की थी। अगर यूपी के 4 बड़े दलों बीजेपी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी को निकाल दें तो बाकी सभी दलों की स्थिति छोटे दलों की ही है। हालांकि, छोटे दलों में रालोद जैसी सियासी पार्टी भी हैं, जिसका पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हमेशा एक मजबूत जनाधार रहा है। पिछले कुछ सालों में सिमटता हुआ दिखा दिया, लेकिन किसान आंदोलन की वजह से इस बार उभार पर है।

ये हैं सामुदायिक आधार वाले प्रमुख छोटे-छोटे दलसुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी), अपना दल, अपना दल (एस), निषाद पार्टी, महान दल, जन अधिकार पार्टी, जनवादी पार्टी ( समाजवादी ), आजाद समाज पार्टी, भागीदारी पार्टी, भारतीय वंचित समाज पार्टी, भारतीय मानव समाज पार्टी, जनता क्रांति पार्टी, राष्ट्रीय उदय पार्टी, विकासशील इंसान पार्टी, कौमी एकता दल, पीस पार्टी, भारतीय लोकतांत्रिक कांग्रेस, इत्तेहाद ए मिल्लत कौंसिल, महान दल, राष्ट्रवाद कम्युनिस्ट पार्टी, स्वराज दल और प्रगतिशील मानवसमाज पार्टी और आजाद समाज पार्टी।

क्या चाहती हैं ये पार्टियां

छोटे और सीमांत दलों के नेतृत्व के समाजशास्त्रीय प्रोफाइल से पता चलता है कि इनमें से एक महत्वपूर्ण संख्या का आधार उत्तर प्रदेश की सबसे पिछड़ी जातियों (एमबीसी) में है। एमबीसी अन्य पिछड़ा वर्ग ( ओबीसी ) की हाशिए पर रहने वाली जातियां/समुदाय हैं। उनमें से कुछ एससी का दर्जा और ओबीसी आरक्षण के उप-वर्गीकरण की मांग कर रहे हैं। एमबीसी समुदाय, जहां से ये छोटे और सीमांत दलों का उदय होता है, को आरक्षण और अन्य विकासात्मक नीतियों से बाहर रहने जैसी सामान्य शिकायतें रही हैं। अपने स्वयं के राजनीतिक दलों के माध्यम से, ये जातियां/समुदाय अपने मुद्दों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश कर रहे हैं, जो कि केवल विरासती दलों का समर्थन करके हासिल करना संभव नहीं है।

राजनीतिक मनोविज्ञानी लूसिया मिचेलुट्टी को उत्तर प्रदेश में यादव जाति के जातीयकरण की प्रक्रिया के पुख्ता सबूत मिले थे। जातीयकरण की इस प्रक्रिया में उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ा वर्ग अपनी सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए मिथकों और आख्यानों के निर्माण के माध्यम से अपने अतीत को फिर से खोज रहा है। राजा सुहेलदेव राजभर का पुनर्निमाण इसी समाजशास्त्रीय प्रक्रिया का अंग है। जब कुलीन इस विचार को सफलतापूर्वक स्थापित कर लेते हैं कि अतीत में उनकी जाति/समुदाय की सामाजिक स्थिति बेहतर थी, जब उनके राजा/रानी शासन करते थे, लक्षित जाति/समुदाय यह सोचने लगते हैं कि भविष्य में उनकी सामाजिक स्थिति बेहतर होगी।

इन छोटे दलों के उभार का आधार क्या है?

छोटे और सीमांत दलों की वंशावली के आधार पर उभार के पीछे अहम वजह पुरानी पार्टियों से विखंडन, मौजूदा दलों का परिवर्तन, निष्पक्षता का अभाव और जातियों का राजनीतिकरण होना प्रमुख है। इन दलों की सोच के पीछे सामुदायिक और जातीय हितों की प्रधानता अहम होते हैंं।

यूपी में पिछले तीन दशकों में बसपा और सपा नेतृत्व परिवर्तन से गुजरे हैं। जिसके चलते चुनावी रणनीतियों में बदलाव आया है। संगठन के भीतर राजनीतिक वफादारी टूट गई है। दोनों पार्टियों ने अपने-अपने संगठन बनाने वाले नेताओं के दलबदल करते देखा है। ऐसे लोग एक स्थापित पार्टी में शामिल होने के बजाय खुद का एक नया राजनीतिक संगठन बनाने और पूर्व के साथ गठबंधन करने को तवज्जो देते हैं। दूसरी तरफ इसका नुकसान यह हुआ कि एमबीसी के नए उभरते अभिजात वर्ग के उम्मीदवारों के रूप में नामांकित होने की संभावनाओं को समाप्त कर दिया।परिणाम यह हुआ कि इन पार्टियों ने उन उम्मीदवारों को नामांकित करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया है जिनके जीतने की संभावना सबसे अधिक है।

बड़े दलों की नजर में इस वजह से बढ़ी अहमियत

छोटे दलों की बात तो कहना चाहिए उनके जीत के आंकड़े पिछले चुनावों में बेशक कम रहे हैं लेकिन खेल बनाने और बिगाड़ने की सूरत में वो बड़ी पार्टियों के लिए माकूल साबित होते रहे हैं।इसी वजह से चाहे कांग्रेस हो या फिर समाजवादी पार्टी या फिर बीजेपी, सभी छोटे दलों के साथ गलबहियां करने के उत्सुक हैं। कांग्रेस ने भी यही राग अलापा है। वैसे छोटे दलों के साथ चलने से फायदा का गणित सबसे पहले बीजेपी ने यूपी में खेला है। उत्तर प्रदेश में तकरीबन 15 के पास ऐसे छोटे दल हैं, जिनका असर स्थानीय स्तर से लेकर जातीय स्तर तक प्रदेश में है। पिछले तीन विधानसभा चुनावों में छोटे दलों का कुल मिलाकर वोट शेयर 10-12 फीसदी रहा है, जिसमें अपना दल का वोट शेयर बहुत असरदार रहा है।

यूपी में किसने की सबसे पहले छोटे दलों से गठबंधन की शुरुआत

बीजेपी ने वर्ष 2012 के चुनावों में पहली बार छोटे दलों से गठबंधन का प्रयास शुरू किया था। पिछले चुनावों में बीजेपी का गठजोड़ 13 से ज्यादा छोटे दलों के साथ था, जिसने उनकी जीत में बड़ी भूमिका भी अदा की थी। इनमें अपना दल (एस) और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के साथ गठबंधन के सकारात्मक नतीजे मिले। तब भाजपा ने विधानसभा चुनावों में सुहेलदेव पार्टी को 8 और अपना दल को 11 सीटें दीं और खुद 384 सीटों पर चुनाव लड़ा। बीजेपी को 312, सुभासपा को 4 और अपना दल एस को 9 सीटों पर जीत मिली। इसके बाद यूपी के सभी सियासी दलों को समझ में आ गया कि किस तरह ये छोटे दल काफी काम के साबित हो सकते हैं। इस बार भाजपा के साथ मोटे तौर पर अपना दल और निषाद पार्टी बीजेपी के साथ हैं। इनका प्रदेश में एक खास वोटबैंक पर असर भी है।

राजभर का भागीदारी संकल्प मोर्चा

राजभर की पार्टी सुभासपा सपा के साथ गठबंधन में है। सुभासपा का 08 छोटे दलों का भागीदारी संकल्प मोर्चा भी है। भारतीय समाज पार्टी के नेता ओमप्रकाश राजभर हैं, जो पिछले चुनावों में बीजेपी के साथ थे। इस बार वो जिन पार्टियों के साथ मिलकर मोर्चा बनाने का ऐलान कर चुके हैं उसमें असुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम, भारतीय वंचित पार्टी, जनता क्रांति प्राटी, राष्ट्र उदय पार्टी और अपना दल (के) शामिल है। दरअसल उत्तर प्रदेश के 140 से ज्यादा सीटें ऐसी हैं, जहां राजभर वोट तो असर डालेंगे ही साथ ही पिछड़ों के भी वोट असर डाल सकते हैं।

महान दल उभार पर

यूपी में महान दल के नाम से उभरी पार्टी मौर्या और कुछ पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधित्व का दावा करती है। इसके अध्यक्ष केशव देव मौर्या ने हाल ही में दावा किया कि हम जिस पार्टी में शामिल हो जाएंगे, उसके लिए विनिंग फैक्टर बन सकते हैं। ये दल प्रदेश की 100 सीटों पर अपने असर की बात करता है। पिछले दिनों दल के अध्यक्ष केशव देव मौर्या ने पीलीभीत से पदयात्रा भी निकाली थी। इस दल का असर मौर्या, कुशवाहा, शाक्य और सैनी जातियों पर बताया जाता है, जो पूरे प्रदेश में फैले हुए हैं। वैसे महान दल का झुकाव समाजवादी पार्टी की ओर है।

यूपी में गैर मान्यता प्राप्त दलों का है अस्तित्व?

दरअसल, 1951 से 2017 तक उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणामों के विश्लेषण से पता चलता है कि 2002 के चुनावों के बाद से पंजीकृत गैर-मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। ये ऐसी पार्टियां हैं जो राज्य पार्टी के रूप में अर्हता प्राप्त करने के लिए आवश्यक न्यूनतम वोटों को सुरक्षित करने में विफल रहती हैं। उत्तर प्रदेश में इनमें से अधिकांश राजनीतिक संगठन आधिकारिक तौर पर भारत के चुनाव आयोग द्वारा परिभाषित इस प्रशासनिक श्रेणी में आते हैं। पंजीकृत गैर-मान्यता प्राप्त पार्टियों के संचयी मतदान प्रतिशत से पता चलता है कि 1989 के बाद से ऐसी संस्थाएं 1991 के चुनाव में अपवाद के साथ एक महत्वपूर्ण वोट शेयर प्राप्त करने में सक्षम रही हैं।

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