World News: अफ़ग़ानिस्तान – मरती पत्रकारिता और सोशल मीडिया पर महिलाओं का विरोध
अफ़ग़ानिस्तान (Afghanistan) की महिलाओं ने तमाम खतरों के बाद भी तालिबान के विरोध का रास्ता नहीं छोड़ा है, तथ्य तो यह है कि तालिबान के विरुद्ध अबतक केवल महिलाओं ने ही प्रदर्शन किया है....
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
जनज्वार। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान राज (Taliban Government in Afghanistan) में सबसे अधिक संकट में महिलायें और पत्रकार है। महिलायें तो तालिबान की सरकार बनते ही सडकों पर विरोध में उतर गईं थीं और उस समय भी इस प्रदर्शन की रिपोर्टिंग करते पत्रकारों को पकड़कर तालिबानी समर्थक भीड़ ने बुरी तरह मारा और उनके फोन और कैमरा छीन लिए थे। इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स (International Federation of Journalists) के सेक्रेटरी जनरल ऐन्थोनी बेल्लान्गेर (Secretary General Anthony Bellanger) के अनुसार तालिबान शासन में अफ़ग़ानिस्तान में पत्रकारिता का भविष्य अंधकारमय (future is bleak) है। तालिबानी आज भले ही बड़ी संख्या में पत्रकारों (Journalists) को नुकसान न पहुंचा रहे हों, पर उनका वास्तविक स्वरुप जल्दी ही दिखने लगेगा।
तालिबान के कथनी और करनी में बहुत अंतर रहता है। उदाहरण के तौर पर ऐन्थोनी बेल्लान्गेर ने बताया कि तालिबान ने कहा कि वे समाज के सभी पक्षों को सम्मिलित कर सरकार inclusive government) बनायेंगें, पर सरकार में महिलाओं को तो शामिल नहीं ही किया, उल्टा महिला सम्बंधित मंत्रालय (women affairs Ministry) को ही बंद कर दिया। तालिबान ने कहा महिलाओं को शिक्षा और रोजगार (education and employment) से नहीं रोका जाएगा – पर शिक्षण संस्थानों को महिलाओं को पुरुषों से अलग कर केवल महिला अध्यापकों द्वारा महिला-सम्बन्धी विषयों को पढ़ाने को कहा गया। इसके बाद से लगभग सभी शिक्षा संस्थानों ने महिला विद्यार्थियों को पढ़ाना बंद कर दिया क्योंकि संस्थानों के पास ना तो इतना स्थान है और ना ही हरेक विषय की पर्याप्त महिला शिक्षक। जो महिलायें रोजगार में थीं उन्हें भी तालिबान शासन ने घर पर ही रहने को मजबूर किया। ऐन्थोनी बेल्लान्गेर के अनुसार ऐसा ही पत्रकारों के साथ भी तालिबान का व्यवहार रहेगा।
तालिबान का मूल स्वभाव हरेक जगह अपना नियंत्रण रखने का है, वही विदेशी मीडिया (foreign media) के साथ भी किया जाएगा और इसमें काम करने वाले पत्रकारों को विदेशी एजेंट (agents of own country) करार दिया जाएगा। अंत में एक तालिबान मीडिया (Taliban Media) बनेगा जो केवल अपना प्रचार करेगा और इसमें महिलाओं की भागीदारी शून्य होगी। ऐन्थोनी बेल्लान्गेर के अनुसार अफ़ग़ानिस्तान में पत्रकारिता कभी आसान नहीं रही, हमेशा पत्रकारों पर हमले और उनकी हत्याएं होती रहीं पर अब का माहौल पूरी तरह से अलग है, वहां पत्रकारिता का भविष्य अंधकारमय है।
इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स के अनुसार अफ़ग़ानिस्तान में इस समय लगभग 1300 पत्रकार हैं जिनमें से 220 महिलायें हैं। लगभग सभी महिला और दूसरे पत्रकारों ने फिलहाल पत्रकारिता से किनारा कर लिया है। अधिकतर पत्रकार काबुल (Kabul) में हैं और अब उनके सामने भविष्य में दो ही विकल्प हैं – पत्रकारिता छोड़ दें या फिर तथाकथित तालिबानी मीडिया में शामिल होकर तालिबान का गुणगान करें। इनमें से अधिकतर पत्रकार तमाम खतरों के बाद भी अपना देश नहीं छोड़ना चाहते क्योंकि उन्हें पता है, यदि वे देश छोड़ेंगें तो उनके देश की निष्पक्ष खबरें फिर दुनिया में कहीं नहीं पहुंचेगी और अंत में एक देश से पत्रकारिता ही पूरी तरह से मर जायेगी।
दूसरी तरफ अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं ने तमाम खतरों के बाद भी तालिबान के विरोध का रास्ता नहीं छोड़ा है, तथ्य तो यह है कि तालिबान के विरुद्ध अबतक केवल महिलाओं ने ही प्रदर्शन किया है। प्रदर्शन के दौरान तालिबान लड़ाकों ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां भी चलाई थीं और कुछ पत्रकारों के साथ मारपीट की थी। इसके तुरंत बाद तालिबान सरकार ने आदेश पारित किया जिसके तहत धरना/प्रदर्शन बिना सरकारी पूर्व अनुमति (without prior approval) के नहीं किया जा सकेगा और उसमें लगाए जाने वाले नारों की भी पूर्व अनुमति (prior approval of slogans) लेनी होगी। इसके बाद भी महिलाओं के हौसले बुलंद हैं और फिर से वे सडकों पर उतरने की तैयारी कर रही हैं। कुछ महिलाओं का कहना है कि संभव है प्रदर्शन के दौरान उनकी ह्त्या कर दी जाए, पर चुपचाप बैठने से बेहतर है अपनी आवाज बुलंद करते हुए मर जाना।
महिलाओं के विरोध प्रदर्शन के दो दिन बाद ही 200 से अधिक महिलाओं ने काला बुरका पहनकर और हिजाब डालकर काबुल यूनिवर्सिटी के ऑडिटोरियम (Auditorium of Kabul University) में तालिबान के समर्थन में नारे लगाए और यह भी कहा कि बुरका और हिजाब ही अफ़ग़ानिस्तान का परम्परागत और राष्ट्रीय पहनावा है। दरअसल अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं का विरोध शिक्षा और रोजगार के अधिकार के बाद अपने पसंद पहनावे के अधिकार को लेकर भी है। काबुल यूनिवर्सिटी के वाकये से इतना तो स्पष्ट है कि तालिबान भले ही महिलाओं को अपनी पसंद के पहनावे और घरों से बाहर निकालने की आजादी ना दे, या कोई मंत्री महिलाओं को केवल बच्चा जनने की मशीन करार दें, पर जब भी अपने प्रचार की बात आयेगी तालिबानी महिलाओं का इस्तेमाल अपनी मर्जी से करेंगें।
काबुक यूनिवर्सिटी में काले बुर्के में तालिबान के समर्थन में नारे लागाती महिलाओं को तालिबान सरकार ने खूब प्रचारित किया। ऐसी ही एक तस्वीर अफ़ग़ानिस्तान स्थित अमेरिकन यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग से सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर डॉ बहार जलाली (Dr Bahar Jalali, retired Professor of History at Kabul University) ने भी देखी। तस्वीर देखते हुए ही उन्हें लगा कि तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं की बेइज्जती कर रहा है क्योंकि तालिबान से पहले तक अफ़ग़ानिस्तान की महिलायें अपने चटकीले रंगीन कपड़ों के कारण जानी जाती थीं, इन रंगबिरंगे वस्त्रों की कायल पूरी दुनिया थी। केवल ग्रामीण महिलायें (rural women) ही बुरका पहनती थी, और अफ़ग़ानिस्तान काले बुर्के के कारण नहीं बल्कि नीले बुर्के (blue burqa) के कारण जाना जाता था।
डॉ बहार जलाली ने इसके बाद सोशल मीडिया पर हैशटैग डू नोट टच माय क्लोथ्स (#DoNotTouchMyClothes) के नाम से एक मुहीम की स्रुरुआत की जिसमें रंगीन कपड़ों में अपनी तस्वीर भी डाली। यह मुहीम दुनियाभर में इनदिनों बहुत लोकप्रिय हो गयी है और दुनियाभर में रहने वाली अफगानी महिलायें अपनी, अपने परिवार की दूसरी महिलाओं की और अफ़ग़ानिस्तान के ग्रामीण इलाकों के महिलाओं की रंगीन कपडे (colored outfits) पहने हुए तस्वीरें साझा कर रही हैं। यह अफगानिस्तान की महिलाओं का एक विश्वव्यापी आन्दोलन बन गया है। अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं ने ठान लिया है और अब वे चुप रहने वाली नहीं हैं।
अफ़ग़ानिस्तान और तालिबान के बारे में पढ़कर शासकों की क्रूरता, मानवाधिकार हनन और महिला दमन ध्यान आता है – दुनिया इसपर लगातार चर्चा कर रही है और हमारे प्रधानमंत्री लगातार इन मामलों पर दूसरे देशों के नेताओं से वार्ता कर रहे हैं। पर, ध्यान से देखेंगें तो निश्चित तौर पर हमारे देश की स्थिति इन मामलों में अधिक खराब है। दरअसल, तालिबान इन मामलों पर भारत की सरकार से बहुत कुछ सीख सकता है। आन्दोलन हमारे देश में भी पुलिस, प्रशासन और न्यायालयों की मदद से दबाये जाते हैं, बल्कि आन्दोलन के पहले ही आन्दोलनकारी कार्यकर्ताओं को जेल में बंद कर दिया जाता है।
फिर भी यदि आन्दोलन किया जाता है तब सरकार समर्थित सोशल मीडिया और मेनस्ट्रीम मीडिया आन्दोलनकारियों का महीनों तक चरित्र हनन (character assassination) करती हैं, उन्हें सरकारी मंत्री-संतरी खुले आम आतंकवादी, देशद्रोही, माओवादी और भी बहुत कुछ करार देते हैं। जरूरत पड़े तो आन्दोलनों को ख़त्म करने के लिए सरकार दंगों का नाटक भी करती है और किसी के लैपटॉप में बाहर से आपत्तिजनक फाईलें (unwanted files are planted in laptop) भी डाल देती है। बीजेपी समर्थक सरकार के इशारे पर आन्दोलन के स्थल पर पहुच कर गोलियां भी चलाते हैं और पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे भी लगाते हैं।
हमारे देश में निष्पक्ष पत्रकार हमेशा ही खतरे में रहते हैं, कभी भी उन्हें पुलिस पकड़कर जेल में डाल सकती है। आप कुपोषण पर रिपोर्टिंग कीजिये, स्कूलों में बांटे जाने वाले मिड डे मील पर रिपोर्टिंग कीजिये, या फिर जनता को वितरित किये जाने वाले राशन में धांधली पर रिपोर्टिंग कीजिये – यदि रिपोर्ट निष्पक्ष है तो फिर सम्बंधित पत्रकार को देशद्रोही बता कर जेल जाना तय है। मेनस्ट्रीम मीडिया तो वर्षों से अफ़ग़ानिस्तान के तालिबानी मीडिया की तर्ज पर बीजेपी मीडिया बना बैठा है।
जहां तक महिलाओं के अपमान, चरित्र हनन और कपड़ों पर पाबंदी का सवाल है – तो इन विषयों पर तो बीजेपी नेताओं की मास्टरी है। जाहिर है, तालिबान कोई अजूबा नहीं है, भारत समेत अनेक देशों की सरकारें बहुत पहले से ही तालिबानियों की तुलना में अधिक मानवाधिकार हनन करते हुए सरकारे चला रही हैं। इतना तय है कि तालिबान हमारी सरकार से, हमारी सरकारी जांच एजेंसियों से, हमारी मेनस्ट्रीम मीडिया से और हमारे चुनाव आयोग से बहुत कुछ सीख सकता है।