लोकतंत्र के चारों खंभे हो गए चोरी, अब आपके पास क्या बचा!
अमेरिका में एक चैनल ऐसा है जिस पर ट्रम्प भरोसा करते हैं, पर मीडिया के पैमाने पर खरा नहीं उतरता। इसके विपरीत हमारे देश में शायद एक या दो चैनल ऐसे होंगे जो मीडिया की परिभाषा पर खरे उतरते होंगे। शेष समाचार चैनल तो शुद्ध मनोरंजन का साधन हैं, जिसमें धारावाहिकों की तरह किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं रहती...
महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
कुछ वर्ष पहले तक जब भी प्रजातंत्र की बात की जाती थी तब अमेरिका और भारत का नाम सबसे पहले लिया जाता था। प्रजातंत्र के चार खम्भे भी लोग गिनाते रहते हैं : विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया। पिछले कुछ वर्षों के दौरान इन चारों खम्भों पर प्रजातंत्र की माला जपते निरंकुश शासकों ने हरेक देश में भरपूर प्रहार किया है और सत्ता में बने रहने के लिए और कट्टर दक्षिणपंथी दकियानूसी एजेंडा लागू करने के लिए इन खम्भों के अवशेषों को भी चोरी कर लिया है। इस सन्दर्भ में आज के दौर का शासन प्रजातंत्र के कथित चारों खम्भों को ध्वस्त कर बेताज बादशाह हुआ है, फिर भी लोकतंत्र या प्रजातंत्र का मुखौटा धारण किया हुआ है। इसका असर हरेक चुनाव में नजर आता है। जब जनता पहले से अधिक शोषित होती है, पर चुनावी नतीजों में कोई असर नहीं होता। अगर कोई असर होता भी है, तो विधायिका की मंडी सज जाती और खुले आम नीलामी की बोली लगने लगती है। भगवान् राम के दर्शन कराने के लिए हनुमान जी को भी सीना चीरना पड़ता था, पर चौथे खम्भे के नाम से मशहूर मीडिया ने तो हमारे देश में ऐसा तमाशा दिखाया है कि उसकी तो रगों में ही कमल बहने लगा है। वह कमल की सांस लेता है, कमल ओढ़ता है कमल ही बिछाता है और कमल का ही राग गाता है।
इन खम्भों पर अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प की भी नजर थी, पर तमाम कोशिशों के बाद भी वे विश्वगुरु भारत जैसा कारनामा नहीं कर पाए। विधायिका पर अपने दल के भीतर तो उनका पूरा नियंत्रण था, पर दूसरे दल को खरीद नहीं पाए। अमेरिका में डेमोक्रेट्स सिद्धांतवादी हैं और ट्रम्प के प्रहार से वे पहले से भी अधिक एकजुट हो गए। आखिर, अमेरिका की कांग्रेस भारत की कांग्रेस से कुछ तो भिन्न है। कार्यपालिका के बहुत सारे अधिकारी ट्रम्प के नियंत्रण में नहीं रहे और जब भी उन्होंने ताकत के बल पर नियंत्रण करने का प्रयास किया, तो अधिकारी नौकरी को लात मार कर चले गए। दरअसल जब किसी अधिकारी को अपनी क्षमता पर भरोसा होता है, तब किसी भी प्रकार से आतंकित नहीं होता और यही भारत और अमेरिका में सबसे बड़ा अंतर भी है। भारत में अधिकारी काम करने नहीं बल्कि मेवा खाने और सरकार को खुश करने आते हैं। ट्रम्प न्यायपालिका और मीडिया को भी प्रलोभन और धमकी से झुकाने में भारत से मात खा गए और यही कारण है कि वे चुनाव भी हार गए।
भारत में जहां सारा मीडिया: प्रिंट, विसुअल, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल केवल सरकार के प्रचार में लगा है, वहां अमेरिका में मीडिया ट्रम्प के झूठ गिन रहा है। उनके प्रेस कान्फ्रेंस को बीच में छोड़ रहा है, उनसे झूठ पर प्रश्न कर रहा है और उनकी करतूतों को लगातार बेनकाब कर रहा है। हालत यह है कि दुनिया के सबसे ताकतवर देश के राष्ट्रपति किसी अखबार को अपनी तरफ नहीं कर पाया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के केवल दो आउटलेट: फॉक्स न्यूज़ और वन अमेरिका न्यूज़ नेटवर्क को अपने प्रचार के लिए इस्तेमाल कर पाए। हालांकि सोशल मीडिया पर उनके और उनके कट्टर समर्थकों द्वारा फैलाए जाने वाले फेकन्यूज़ का सिलसिला चलता रहा, पर चुनावों के कुछ पहले ट्विटर को अपनी गलती का एहसास हुआ और ट्रम्प के कुछ पोस्टों को ब्लाक किया और कुछ को टैग किया।
चुनावों के बाद जब अमेरिका और ट्रम्प दुनिया के लिए तमाशा बन गए तो ट्रम्प के चहेते फॉक्स न्यूज़ ने भी अपना रुख बदल दिया। अब अधिकतर कार्यक्रमों में फॉक्स न्यूज़ ट्रम्प के विरुद्ध रहता है और ट्रम्प को चुनावों में हार स्वीकार करने की नसीहत भी देता है। ट्रम्प भी इनदिनों फॉक्स न्यूज़ के विरुद्ध जहर उगलते हैं और अपने समर्थकों को केवल वन अमेरिका न्यूज़ नेटवर्क को देखने की सलाह दे रहे हैं। यह नेटवर्क कट्टर दक्षिणपंथी विचारधारा वाले लोगों का है और ट्रम्प के समर्थन में किसी भी हद तक जा सकता है। ट्रम्प के इस अप्रत्याशित रुख से इस चैनल के दिन फिर गए क्योंकि आज तक फॉक्स न्यूज़ के सामने यह चैनल गौण होता जा रहा था। इसकी स्थापना वर्ष 2013 में कैलिफ़ोर्निया में की गई थी, पर इसका असली स्वरूप 2016 में ट्रम्प के राष्ट्रपति बनाने के बाद से अस्तित्व में आया। इसके बाद से यह चैनल वाइटहाउस के घरेलू चैनल और ट्रम्प के निजी चैनल जैसा काम करता रहा। इसमें वही समाचार आते हैं, जिनसे ट्रम्प को फायदा पहुंचे। पूरे समाज से दूर ट्रम्प की तिलिस्म भरी दुनिया का आइना है और ट्रम्प द्वारा फैलाए जाने वाले भ्रामक खबरों, झूठों और अफवाहों का दर्शकों तक विस्तार करता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की रेटिंग करने वाली कंपनी निल्सन इसकी रेटिंग नहीं करती, क्योंकि यह मीडिया की परिभाषा पर खरा नहीं उतरता।
अमेरिका में एक चैनल ऐसा है जिस पर ट्रम्प भरोसा करते हैं, पर मीडिया के पैमाने पर खरा नहीं उतरता। इसके विपरीत हमारे देश में शायद एक या दो चैनल ऐसे होंगे जो मीडिया की परिभाषा पर खरे उतरते होंगे। शेष समाचार चैनल तो शुद्ध मनोरंजन का साधन हैं, जिसमें धारावाहिकों की तरह किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं रहती।
हमारे देश में तो कमल की चाह ने मीडिया को ही विलुप्त कर दिया। अब मीडिया नहीं है, बस एक सरकारी प्रचारतंत्र है। समस्या यह है कि सरकार कुछ ऐसा करती नहीं जिसका प्रचार किया जा सके। लिहाजा ये सभी चैनल विपक्ष पर अनर्गल आरोप लगाने, दंगा भड़काने, झूठी खबर को बनाने और इसी तरह के दूसरे कामों में सलग्न हैं। पर, समस्या यह है कि सरकार की नजर में देश में मीडिया वही है जो सरकार का प्रचार करे और सरकार के घोषित-अघोषित एजेंडा के अनुरूप जो खबर नहीं है उसे खबर बनाकर हफ़्तों तक दिखाए। हमारे देश में तो पहली बार ऐसा हो रहा है, जब पूंजीपति और ठाठ से बैठे मालिक अपने आप को पत्रकार बता रहे हैं। सरकार के मुखिया और मंत्री उन्हें पत्रकार बता रहे हैं, सोलिसिटर जनरल सर्वोच्च न्यायालय में इन पूंजीपतियों को पत्रकार बता रहे हैं और सर्वोच्च न्यायालय भी इन्हें पत्रकार बताकर उनके अनैतिक और गैर पेशेवर रवैये को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बता रहा है। आनन-फानन में अवकाश में भी सर्वोच्च न्यायालय की पीठ उन्हें नीचे की अदालतों की कार्यवाही से सुरक्षित कर रही है। इस मामले में डोनाल्ड ट्रम्प को शायद जिंदगी भर अफ़सोस रहेगा कि उन्होंने भारतीय नेताओं से इस बारे में सलाह क्यों नहीं लिया था?
हमारे देश में जो पत्रकार नहीं हैं, उन्हें एक खरोच भी आती है तो बीजेपी के मंत्री-संतरी अपना सारा काम छोड़कर दिनभर टीवी चैनलों पर बैठकर उनके लिए अफ़सोस जाहिर करते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का हवाला देते हैं। इमरजेंसी की याद दिलाते हैं, दूसरी तरफ निष्पक्ष पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को यही सरकार जेल में डालती है, राजद्रोही और आतंकवादी करार देती है और सर्वोच्च न्यायालय अपनी आँखें बंद कर लेता है।
कहा जाता है कि ट्रम्प ने अमेरिका को दो हिस्सों में विभाजित कर दिया है, पर ट्रम्प से पहले विभाजित भारत किसी को नजर नहीं आ रहा है। एक तरफ अपना मस्तिष्क बंद किये हुए सुविधा-संपन्न लोग हैं जो समाज को लगातार बांटने का काम कर रहे हैं, दूसरी तरफ समाज को जोड़ते तथाकथित आतंकवादी और राजद्रोही हैं। इस सन्दर्भ में निश्चित तौर पर भारत विश्वगुरु है और इस दुनिया को ऐसे ही गुरु के दीक्षा की जरूरत है।