न्यायपालिका गंवा रही अपनी विश्वसनीयता, न्याय के लिए कहां जाएंगे आम नागरिक?

सरकार द्वारा संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करना एक अत्यंत खतरनाक संकेत होता है, एकाधिकारवादी सरकारें, राज्य के तंत्र और उसकी संस्थाओं का उपयोग अपने ही नागरिकों का दमन करने और उन्हें चुप करने के लिए करती हैं, इस परिप्रेक्ष्य में, उच्चतम न्यायालय, बल्कि संपूर्ण न्यायपालिका, प्रजातंत्र को बचाए रखने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है....

Update: 2020-11-17 16:00 GMT

वरिष्ठ पत्रकार दिनकर कुमार का विश्लेषण

पिछले छह सालों में मोदी के शासनकाल में न्यायपालिका को इस कदर लुंजपुंज और हास्यास्पद बना दिया गया है कि आम लोगों के मन में उसका भरोसा खत्म होता जा रहा है। हाल ही में अर्णव गोस्वामी के प्रकरण में तो उच्चतम न्यायालय ने अपने आपको जिस तरह संघ और भाजपा का वफादार सेवक वाला रूप प्रदर्शित किया, उससे उसकी निष्पक्षता का भरम भी खत्म हो गया है। दूसरी तरफ अपना मज़ाक उड़ाए जाने पर वह जिस तरह एक कामेडी कलाकार कुणाल कामरा के विरुद्ध अवमानना का मामला शुरू कर रहा है उससे वह अपने पतन का उदाहरण पेश कर रहा है।

न्यायपालिका से भरोसा खत्म होने का नतीजा गंभीर रूप से सामने आ सकता है। इसका संकेत भी देश भर में अलग-अलग रूपों में सामने आ रहा है। अब लोग अदालत का मुंह देखे बगैर सीधे कानून अपने हाथ में लेने लगे हैं। दूसरी तरफ ऐसे भी लोग हैं जो अदालत से मायूस होकर सामूहिक रूप से आत्महत्या कर रहे हैं। लोकतंत्र और संविधान की रक्षा का दायित्व जिस न्यायपालिका के पास है वह सत्ता के कुत्सित उद्देश्यों की पूर्ति करने में अब सहयोगी की भूमिका निभाने लगी है। इससे अधिक शर्म की बात और क्या हो सकती है!

सोशल मीडिया पर अब जजों के बारे में चुट्कुले प्रसारित होने लगे हैं और कहा जाने लगा है कि लोया बनने के डर से जज मोदी सरकार के सभी आदेशों का चुपचाप पालन कर रहे हैं। जस्टिस रंजन गोगोई के प्रकरण को एक उदाहरण के तौर पर देखा जा रहा है कि किस तरह पहले उन पर यौन शोषण का आरोप लगा और फिर किस तरह अयोध्या मामले में सरकार की मर्जी का फैसला सुनाकर वह सीधे राज्यसभा पहुंच गए।

पिछले दिनों एक व्याख्यान देते हुए दिल्ली व मद्रास उच्च न्यायालयों के पूर्व मुख्य न्यायाधीश व विधि आयोग के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति एपी शाह ने कहा-'उच्चतम न्यायालय के पतन की शुरूआत सन् 2014 मे भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन के सत्ता में आने के साथ ही हो गई थी। सन् 2014 के बाद से हर उस संस्था तंत्र व उपकरण को कमजोर किया जा रहा है जो कार्यपालिका को जवाबदेह बनाने के लिए निर्मित किए गए हैं।'

शाह ने कहा कि उच्चतम न्यायालय देश की एक बहुत महत्वपूर्ण संस्था है और उसका इतिहास गर्व करने योग्य है। उन्होंने केशवानंद भारती प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के निर्णय की चर्चा करते हुए कहा कि इस निर्णय में न्यायालय ने सबसे पहले संविधान के मूल ढ़ांचे की अवधारणा को प्रतिपादित किया और संविधान को न्यायपालिका का संरक्षण उपलब्ध करवाया। यह एक बहुत महत्वपूर्ण निर्णय था जो एक नजीर बन गया।

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इसी तरह के महत्वपूर्ण निर्णयों में शामिल हैं मेनका गांधी, फ्रांसिस कुरेली म्यूलिन और इंटरनेशनल एयरपोटर्स एथारिटी ऑफ़ इंडिया मामलों में न्यायालय के निर्णय। इन सभी निर्णयों ने किसी भी कार्य को करने की उपयुक्त प्रक्रिया का निर्धारण किया और संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए अधिकारों की परिधि को विस्तार दिया। उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय के गौरवपूर्ण दिन अब लद गए हैं।

संसद के अधिकार और उसकी महत्ता को कितना कम कर दिया गया है यह इससे जाहिर है कि हाल में हुए कोविड-19 लाकडाउन के दौरान संसद की बैठक तक आयोजित नहीं हुई और लॉकडाउन हटने के पश्चात जब संसद समवेत हुई तब प्रश्नकाल आयोजित ही नहीं किया गया। चूंकि संसद को अपाहिज बना दिया गया था इसलिए अन्य संस्थाओं का यह कर्तव्य था कि वे आगे आतीं और कार्यपालिका पर अंकुश लगातीं। परंतु यह भी नहीं हुआ। लोकपाल के बारे में तो एक लंबे समय से बात होना तक बंद हो गया है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सुषुप्त अवस्था में है। चुनाव आयोग के कई निर्णय अत्यंत संदेहास्पद जान पड़ते हैं। सूचना आयोग पंगु है। अपना कर्तव्यपालन न करने वाली ऐसी संस्थाओं की सूची लंबी और पीड़ाजनक है। शिक्षाविदों, मीडिया और नागरिक समाज को भी विभिन्न तरकीबों से चुप कर दिया गया है। विश्वविद्यालयों की स्वायत्ता पर आए दिन हमले हो रहे हैं। विद्यार्थियों पर दंगा करने के आरोप लगाए जा रहे हैं तो शिक्षकों को आपराधिक षड़यंत्र रचने का दोषी ठहराया जा रहा है। भारत में मुख्यधारा की निष्पक्ष प्रेस की अवधारणा कब की समाप्त हो चुकी है। नागरिक समाज का गला घोंट दिया गया है।

नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) की संवैधानिकता को न्यायालय में चुनौती दी गई थी परंतु उसने किसी न किसी बहाने इस मुद्दे पर सुनवाई ही नहीं की। दूसरी ओर सरकार इस अधिनियम से असहमत लोगों और उसका विरोध करने वालों को कुचलने में जुटी रही। इसके विरोधियों पर सरकार ने जमकर निशाना साधा। इनमें विद्यार्थी, शिक्षाविद् और कवि शामिल थे। इन पर आपराधिक प्रकरण दर्ज किए गए और उन्हें दंगा करने, गैर कानूनी ढ़ंग से एकत्रित होने और आपराधिक षड़यंत्र रचने का दोषी ठहराया गया।

यहां तक कि उन पर देशद्रोह के आरोप तक लगाए गए और गैरकानूनी गतिविधियां निरोधक अधिनियम (यूएपीए) की धाराओं के अंतर्गत उनके विरूद्ध प्रकरण कायम किए गए। जिस समय निर्दोष लोगों पर राष्ट्रद्रोही होने का आरोप लगाया जा रहा था और यह कहा जा रहा था कि वे सरकार को अस्थिर करना चाहते हैं, उस समय उच्चतम न्यायालय चुपचाप तमाशा देख रहा था। इन मामलों में हस्तक्षेप न करने के लिए उसने कई बहाने खोज निकाले।

दिल्ली दंगों और सीएए व एनपीआर के विरोध के मामलों में बड़ी संख्या में निर्दोषों को फंसाया गया। यही बात भीमा-कोरेगांव मामले में भी सही है। सुधा भारद्वाज, वरवरा राव और गौतम नवलखा जैसे लोग कई महीनों से जेलों में बंद हैं और उन्हें जमानत तक नहीं दी जा रही है। इन सभी मामलों में एक असाधारण समानता है। सरकार का विरोध करने वाले शिक्षाविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों पर पहले माओवादी होने का आरोप लगाया जाता है, फिर उन्हें दलितों को भड़काने वाला बताया जाता है और अंततः उन्हें देशद्रोही करार दे यूएपीए के तहत आरोपी बना दिया जाता है।

सरकार द्वारा संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करना एक अत्यंत खतरनाक संकेत होता है। एकाधिकारवादी सरकारें, राज्य के तंत्र और उसकी संस्थाओं का उपयोग अपने ही नागरिकों का दमन करने और उन्हें चुप करने के लिए करती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में, उच्चतम न्यायालय, बल्कि संपूर्ण न्यायपालिका, प्रजातंत्र को बचाए रखने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

कश्मीर घाटी में इंटरनेट व अन्य संचार सुविधाओं को ठप्प करने के निर्णय का परीक्षण, संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के प्रकाश में करने की बजाए, न्यायालय ने यह पूरा मामला सरकार के नेतृत्व में बनाई गई विशेष रिव्यू कमेटी को सौंप दिया। क्या यह न्यायालय के उत्तरोत्तर पतन का उदाहरण नहीं है? इस निर्णय से कश्मीर में शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था पर गंभीर कुप्रभाव पड़े और वहां की अर्थव्यवस्था और व्यापार-व्यवसाय ठप्प हो गए। जाहिर है कि राज्य की जनता के दुःखों और कष्टों में बढ़ोत्तरी ही हुई।

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