भारत की बुनियादी शिक्षा व्यवस्था में क्या हैं समस्याएं और उनका कैसे होगा समाधान?

आईएमडी बिजनेस स्कूल की एक रिपोर्ट से पता चला है कि भारत प्रति छात्र सार्वजनिक व्यय के मामले में 62 वें स्थान पर है। चूंकि शिक्षा केंद्र और राज्य दोनों के अधीनस्थ विषय हैं अतः यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि राज्य सरकार की मंशा ना हो.....

Update: 2021-08-01 14:08 GMT

(भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6% शिक्षा पर खर्च करने की आवश्यकता है, 1968 से प्रत्येक राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहा गया है।) 

दिवेश रंजन का विश्लेषण

जनज्वार। आज देश में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था है एक पैसे वालों और सक्षम लोगों के लिए जो अच्छे से अच्छे इंग्लिश मीडियम के स्कूल में पढ़कर देश के उच्च संस्थानों में जाकर अपना भविष्य संवार सके और दूसरा गरीबों की जिनका सरकारी स्कूलों से पढ़कर अपना भविष्य बनाने की जदोजहद में उच्च संस्थानों में पढ़ना महज एक सपना रह गया है।

देश आजादी के बाद से जहां 'राष्ट्रीय महत्व के संस्थान' कहे जाने वाले उच्च संस्थानों का निर्माण हुआ वहीं प्राथमिक शिक्षा बदहाल होती रही। सरकारी स्कूली व्यवस्था इस तरह से कमजोर हो गयी कि सरकारी स्कूल के बच्चे इंग्लिश मीडियम के प्राइवेट स्कूल के बच्चों से पिछड़ने लगे और प्राइवेट स्कूल और इंग्लिश मीडियम स्कूल की महत्ता बढ्ने लगी। सत्तर- अस्सी के दशक में पहली बार सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान चलाया, फिर मिड-डे-मिल का भी प्रबंध किया गया और उसके उपरांत आने वाली हर सरकार ने कुछ न कुछ प्रयास किए लेकिन बुनियादी शिक्षा कि व्यवस्था में कुछ ज्यादा परिवर्तन नही आया। शिक्षा का अधिकार कानून (राइट टू एडुकेशन एक्ट) बना लेकिन इतने सालों बाद भी यह सभी राज्यों में सभी प्राइवेट स्कूलों में लागू नही हो पा रहा है।

उधर आई.आई.टी और आई.आई.एम. से पढ़ने के बाद अधिकतर नौजवान बाहर का रुख करने लगे। इसका सबसे बड़ा कारण था कि भारत देश में उद्योग धंधों की कमी थी। ऐसे हर एक प्रॉफेश्नल को शिक्षा देने में सरकार के करोड़ो रूपये खर्च हो रहे थे लेकिन फिर भी देश का बौद्धिक नुकसान तेजी से हो रहा था।

आज भारत विश्व का सबसे जवान देश है। भारत की आबादी लगभग 136 करोड़ है जहां 62 फीसदी से अधिक लोग 15 से 59 साल के हैं और 35 फीसदी लोग 19 वर्ष से कम उम्र के हैं। ऐतिहासिक रूप से यह देखा गया है कि इस तरह के जनसांख्यिकीय लाभांश ने कई देशों के समग्र विकास का 15% तक योगदान दिया है, कई एशियाई देशों-जापान, थाईलैंड, दक्षिण कोरिया और हाल ही में चीन ने अपने तीव्र विकास और विकास में इसका लाभ उठाया है। लेकिन क्या भारत जनसांख्यिकीय लाभांश का फायदा उठा पायेगा ?

इतनी बड़ी जनसंख्या के लिये देश में पर्याप्त रोजगार नही है, औद्योगिक शिक्षा की व्यवस्था नही है, अभी भी बहुत राज्यों में उद्योग धंधे नगण्य है जो की इतने बड़े मानव संसाधन का उपयोग करने में असक्षम बनाता है। 50% से अधिक छात्रों में स्कूली पढ़ाई के पांच साल के बाद भी बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक कौशल की कमी है। हमारे देश के सरकारी स्कूल के छठी और सातवीं के आधे से अधिक बच्चे सही से रीडिंग नही कर पाते हैं और जोड़ तक नही जानते हैं ।

ऐसे में जब विश्व चौथी औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजर रहा है जहां आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स टेक्नोलॉजी एक सुनहरा भविष्य है, परंतु इन संभावनाओं का फायदा हम तभी उठा पाएंगे जब तक अधिक से अधिक बच्चें गणित में औसतन अच्छे हों। इतनी बड़ी आबादी की उचित शिक्षा और पर्याप्त रोजगार की व्यवस्था नही होने पर श्रंखलाबद्ध रूप में बहुत सारी समस्याओं की शुरुआत हो जाती है।

एनसीईआरटी की पुस्तकें बहुत अच्छी है, उसमें बच्चों को सिखाने के लिये बहुत सारे क्रियाकलाप दिये होते हैं, लेकिन उन क्रियाकलापों को करवा पाना मुश्किल हो जाता है क्योंकि एक टीचर को एक कक्षा में 60 से 100 बच्चे देखने होते हैं। यूरोप और दूसरे विकसित देशों में एक शिक्षक पर 10 से 12 बच्चों का दायित्व होता है। छात्र-शिक्षक अनुपात को हमारे यहां सही किये जाने की जरूरत है।

भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6% शिक्षा पर खर्च करने की आवश्यकता है, 1968 से प्रत्येक राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहा गया है। 2019-20 में भारत ने अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 3.1% शिक्षा पर खर्च किया। चीन की आबादी लगभग भारत के करीब है वहीं चीन का 2020 का शिक्षा बजट भारत के 2021 के शिक्षा खर्च के तुलना में 4 गुना अधिक है। प्रत्येक वर्ष प्रति छात्र पर खर्च किये जाने वाली रकम भारत में बाकी देशों की तुलना में बहुत नगण्य है।

आईएमडी बिजनेस स्कूल की एक रिपोर्ट से पता चला है कि भारत प्रति छात्र सार्वजनिक व्यय के मामले में 62 वें स्थान पर है। चूंकि शिक्षा केंद्र और राज्य दोनों के अधीनस्थ विषय हैं अतः यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि राज्य सरकार की मंशा ना हो। इस मामले में दिल्ली राज्य की शिक्षा व्यवस्था में संसाधनात्मक और संरचनात्मक नवीनता सबसे बड़ा उदाहरण हैं। वर्तमान केंद्र सरकार देश की बुनियादी शिक्षा की जमीनी हालात को समझते हुए पिछले साल नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लायी, जिसके अब एक वर्ष पूरे हो गये हैं लेकिन इसके सफल क्रियान्वयन के लिये केंद्र और राज्य सरकारों को परस्पर प्रतिबद्ध होने की जरूरत है।

बुनियादी शिक्षा व्यवस्था और औद्योगिक शिक्षा में सरकार को अच्छे बजट रकम खर्च करने की जरूरत है और इसके लिए यदि उच्च शिक्षण संस्थानों की बजट में कटौती करने की जरूरत पड़े तो वो भी किया जा सकता है। उच्च शिक्षण संस्थानों जैसे आई.आई.टी. और आई.आई.एम. को सेल्फ सस्टेनेबल फाइनेन्सियल संस्थान बनाया जा सकता है। अलूमनी ग्रुप्स की सहायता और प्रोजेक्ट बेस्ड इंडस्ट्री, आदि से वित्तीय व्यवस्था का संचालन किया जा सकता हैं और पहले से ही कुछ उच्च संस्थान इस पर काम भी कर रहे हैं।

प्राथमिक शिक्षण संस्थानों के गुणवत्ता का सही से परीक्षण नहीं होता जिससे बहुत नुकसान हो रहा है, गुणवत्ता परीक्षण के लिए अलग से एक प्रतिबद्ध विभाग के निर्माण की जरूरत है जिससे शिक्षकों के कार्यों, विद्यालयों के विकास और हर एक विद्यार्थी की शिक्षा और स्वास्थय के प्रगति एकदम शुरुआत से ट्रैक किया जा सके।

बच्चों के विकास के लिये जब हर उचित संसाधन मौजूद रहेंगे तो अवश्य ही बुनियादी शिक्षा में एक अमूलचूल परिवर्तन देखने को मिल सकता है। इसके साथ ही यदि शिक्षा व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन सुनिश्चित करना है तो हर हाल में इस क्षेत्र को भ्रष्टाचार मुक्त रखने का प्रयास करना होगा और इसके लिए हरेक स्तर पर जवाबदेही सुनिश्चित करनी होगी।

(लेखक एक राजनीतिक विश्लेषक हैं और पूर्व में आईआईटी गुवाहाटी के रिसर्च फेलो रहे हैं। उनसे फोन नं. 9911935262 या divesh.ranjan9@gmail.com के जरिए संपर्क किया जा सकता है।)

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