2024 चुनावों में भाजपा की हार तय, अभी लड़ा मोदी के नेतृत्व में चुनाव तो 150 सीटें पार पाना मुश्किल
मोदी-मॉडल की अमित शाह के नेतृत्व में नार्थ-ईस्ट पॉलिसी का नतीजा एक भयावह शक्ल ले लिया है, और वह मॉडल बनने की स्थिति में नहीं दिखता। देवेंद्र फणनवीस के नेतृत्व में महाराष्ट्र में विपक्ष-विहीन सरकार का मॉडल जरूर उभरकर आया है, लेकिन इस सरकार के हिस्सेदार अजित पवार और शिंदे गुट न तो भाजपा के अनिवार्य अंग बने हैं और न ही भरोसेमंद घटक ही..
अंजनी कुमार की टिप्पणी
भाजपा ने अभी हाल में भाजपा के राज्य प्रभारियों में फेरबदल कर आगामी लोकसभा चुनाव अभियान की ओर बढ़ चली है। वह मुद्दों को तलाशने और उसे बनाने और पिछले अनुभवों के सार संकलन से एक निष्कर्ष की ओर बढ़ती दिख रही है। अभी तक भाजपा अपने केंद्र सरकार की ओर से जिस नये एजेंडे की तरफ जाती हुई दिख रही है, उसमें समान नागरिक संहिता ही मुख्य तौर पर दिख रही है।
विश्वगुरु हो जाने का दावा फिलहाल बनते हुए नहीं दिख रहा है और अमेरिका यात्रा से मोदी का जो रूप निखरकर आना था वह बनता हुआ नहीं दिख रहा है। उत्तर-प्रदेश में पिछले दो सालों की बुलडोजर नीति से भाजपा ने जो मॉडल दिखाया है वह गैंगस्टर अतीक अहमद की प्रापर्टी को अधिकार में लेकर कुछ दर्जन भर मकानों का कथित गरीबों के बीच आवंटन करने के उदाहरण के रूप में आया है। विशाल विज्ञापनों के बावजूद यह मॉडल फिलहाल अपील करता हुआ नहीं दिख रहा है।
उत्तर-प्रदेश में विशाल पूंजी निवेश का मेला भी चंद दिनों चर्चा के बाद गायब होता हुआ दिख रहा है। गुजरात में हिंदू-मुस्लिम विभाजन का राग अभी भी सुना जा रहा है, लेकिन 2014 में जिस तरह इसे लोकसभा चुनाव में सुना और सुनाया गया, वैसी स्थिति अब नहीं रही। मध्य-प्रदेश में शिवराज सरकार मामा सरकार से बदलकर बुलडोजर मामा सरकार के नामांतरण तक गई है, इससे अधिक इस सरकार की प्रभावशीलता नहीं दिख रही है।
मोदी-मॉडल की अमित शाह के नेतृत्व में नार्थ-ईस्ट पॉलिसी का नतीजा एक भयावह शक्ल ले लिया है, और वह मॉडल बनने की स्थिति में नहीं दिखता। देवेंद्र फणनवीस के नेतृत्व में महाराष्ट्र में विपक्ष-विहीन सरकार का मॉडल जरूर उभरकर आया है, लेकिन इस सरकार के हिस्सेदार अजित पवार और शिंदे गुट न तो भाजपा के अनिवार्य अंग बने हैं और न ही भरोसेमंद घटक ही। यह मॉडल अवसरवाद की चरम अभिव्यक्ति बनकर उभरा है।
भाजपा के अटलबिहारी वाजपेयी के समय की गठबंधन राजनीति में डबल-इंजन की सरकार एक नीतिगत मसला था और भाजपा राज्यों में अपनी पकड़ बनाने के लिए इस दिशा में काम करते हुए अपना जनाधार बना रही थी। इस नीति में राज्यों में उभरकर आयी स्थानीय पार्टियों के साथ पारस्परकिता एक जरूरी पक्ष था, जिसमें स्थानीय पार्टी को मुख्य भूमिका में रहना था और सरकार में उसी की आवाज की सुनी जाती है। बदले में ये पार्टियां भाजपा के लिए लोकसभा, खासकर राज्य सभा की सीटें सुनिश्चत करती थीं और विधानसभा में भाजपा की कुछ सुनिश्चित सीटों की जीत को पक्का भी करती थीं।
यह गठबंधनों का नया दौर था और इससे भाजपा ने भारत की लोकतंत्र में एक विशाल गठबंधन की राजनीति को जन्म दिया, जिसमें अधिकांश क्षेत्रीय पार्टीयां हिस्सा बन रही थीं। निश्चित ही इन क्षेत्रीय पार्टीयों ने विचारधारा के स्तर पर घोर पतन और अवसरवाद का प्रदर्शन किया, और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे भी। कई नेता घोर महत्वाकांक्षा में बुरी तरह से पतित हो गये, और कुछ पार्टियां अपना अस्तित्व ही खो देने के लिए अभिशप्त हो गईं। इसका पतन, अवसरवाद और पतित नेतृत्व को हवा देने का काम 2014 में भाजपा के नये नेतृत्व ने खूब अच्छी तरह से अंजाम दिया। 2019 के लोकसभा चुनाव के समय भाजपा नेतृत्व का गठबंधन कम, जी-हुजूर क्षेत्रीय दलों का जमावड़ा ज्यादा लग रहा था।
अब 2024 लोकसभा का चुनाव आ रहा है। इस गठबंधन से कई क्षेत्रीय दल कांग्रेस के खेमे की ओर बढ़ चले हैं। पुराने गठबंधन के कुछ नेता जिनकी पार्टियां अस्तित्व के संकट से गुजर रही हैं, उपयुक्त समय आने का इंतजार कर रहे हैं कि किस करवट जाया जाये। नीतिगत स्तर पर केजरीवाल की पार्टी आप और मायावती की बसपा ही भाजपा के साथ खड़ी होती दिख रही है। इसमें से आप की भाजपा के साथ कड़ी टक्कर बनी हुई है और लोकसभा चुनाव में इसका भाजपा के साथ जाना संभव नहीं लगता है। मायावती पर जरूर भ्रष्टाचार का शिकंजा है और ‘अफवाहों की मानें’ तब उनमें राष्ट्रपति बनने की आकांक्षा बनी हुई है। हालांकि इस बात को उन्होंने कई बार नकारा है, लेकिन उनके साथ मुख्य समस्या यही है कि उनके हाथों से उत्तर-प्रदेश की नब्ज छूट चुकी है और वह दलित समुदाय की आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतर पा रही हैं।
2014 और 2019 के आंकड़ों में देखें, तब भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ता हुआ दिखा है। यह लगभग 39 प्रतिशत था, लेकिन भाजपा गठबंधन का कुल वोट जोड़ा जाये तब यह 45 प्रतिशत के आंकड़े तक जाता है। कांग्रेस का वोट प्रतिशत इन दोनों चुनावों में लगभग स्थिर रहा और यह 19 प्रतिशत के आसपास था। इस समय भाजप के साथ गठबंधन की प्रमुख पार्टियों का अभाव है, और कुछ तो उनके खिलाफ चली गई हैं और कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाने का प्रयास करती हुई दिख रही हैं।
इन तथ्यों को यदि कर्नाटक चुनावों के नतीजों और आंकड़ों से मिलान करें, तब हम आगामी चुनाव की स्थिति का अनुमान लगाने की ओर बढ़ सकते हैं। कर्नाटक चुनाव में भाजपा का पिछले चुनाव के मुकाबले वोटों के प्रतिशत में लगभग एक प्रतिशत की कमी ही देखी गई, लेकिन इसने भाजपा की सीटों का काफी कम कर दिया। कांग्रेस के वोट प्रतिशत में मामूली वृद्धि ने उसे राज्य की बागडोर तक पहुंचा दिया। इसका एक बड़ा कारण वोट का पुनर्गठन है जो कांग्रेस के पक्ष में गया। यदि भाजपा लोकसभा चुनाव में 2019 के वोट प्रतिशत पर बनी रहे, हालांकि ऐसा होता हुआ दिख नहीं रहा है, और गठबंधन के वोटों का नुकसान उठाये, जिसकी संभावना अब दिख रही है, तब कांग्रेस के वोटों में बढ़ोत्तरी और वोटों का पुनगर्ठन होना तय है।
खासकर उस समय, जब मध्यवर्ग का निचला हिस्सा बेहद निराशा में है और उच्च-मध्यवर्ग अमेरिका की राह लिया हुआ है, चुनाव में कुल वोटों का प्रतिशत को नीचे की ओर ले जायेगा और इसका सीधा नुकसान भाजपा को होगा। कांग्रेस निम्न-मध्यवर्ग और गरीब तबकों की ओर मुखातिब है और उसके लिए एक के बाद एक योजनाएं न सिर्फ घोषित कर रही है, उसे अपने जीते राज्यों में कुछ हद लागू करने की जद्दोजहद में भी है। ऐसे में 2024 के लोकसभा चुनाव की बिसात पर भाजपा की हार तय होते हुए दिख रही है।
आज के समय में यदि चुनाव हो, तब वह बमुश्किल 150 सीटें पार कर पाये। भाजपा की स्थिति ठीक वैसी ही जैसी कांग्रेस की स्थिति 2009 में थी। फर्क इतना है कि भाजपा की केंद्र सरकार और उसकी राज्य सरकारें भी लोकतंत्र के प्रावधानों को तानाशाह शासन के नियम के करीब पहुंचाने में लगी हुई हैं, मीडिया और राजनीतिक विमर्श को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में रखने की ओर बढ़ रही है। हालांकि जरूरी नहीं है कि इसका परिणाम वही निकले जिसकी भाजपा उम्मीद रखे हुए है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)