Bulldozer symbol of governance: BJP राज में शासन करने की कला के नए उपकरण का प्रतीक बन चुका है बुलडोजर

Bulldozer symbol of governance in BJP rule: अब कानून संसद द्वारा पारित कानूनी प्राविधानों और अदालती प्रक्रिया द्वारा नहीं, बल्कि बुलडोजर से लागू किये जायेंगे...

Update: 2022-04-22 17:22 GMT

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रामस्वरूप मंत्री की टिप्पणी

Bulldozer symbol of governance in BJP rule: बुलडोजर के कान नहीं होते। बुलडोजर के हृदय नहीं होता। बुलडोजर मनुष्य नहीं है। बुलडोजर पर झूमने वालों से कह दो कि बुलडोजर सिर्फ ध्वंस करता है। बुलडोजर मशीन है, जैसे चाकू मशीन है। चाहो तो सब्जी काटो, चाहो तो अपनी नाक काट लो।

बिना जांच, बिना अदालती प्रक्रिया के, बिना अदालती आदेश के लोगों का घर गिराये जाने से बड़ी महानता और क्या होगी? सुप्रीम कोर्ट का शुक्रिया जिसने जहांगीरपुरी में सरकारी विध्वंस का त्वरित संज्ञान लिया और बुलडोजर की कार्रवाई पर रोक लगा दी।

जब न्याय दिलाने के कानूनी रास्ते लम्बे, महंगे, समयसाध्य और जटिल हो जाते हैं तो त्वरित न्याय दिलाने वाले विधिविरुद्ध समूह की ओर लोग अनायास ही मुड़ने लगते हैं। क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की विफलता न केवल माफिया गिरोहों को पनपने के लिये एक अवसर प्रदान करती है बल्कि वह पुलिस को भी विधिविरुद्ध दिशा में जाने की ओर प्रेरित करती है और तब जो गैरकानूनी रूप से एक नया न्याय प्रदाता तंत्र या जस्टिस डिलीवरी सिस्टम विकसित होता है वह अपराध को एक प्रकार से मान्यता देकर उसे संस्थाकृत ही करता है।

यह कानून के राज के लिये न केवल घातक है बल्कि लोगों के मन में कानून के प्रति एक गहरा उपेक्षा भाव भर देता है। कानून के प्रति अवज्ञा या उपेक्षा का यह भाव कानून लागू करने वाली मशीनरी को धीरे-धीरे अप्रासंगिक कर देता है।

एक तरफ भीड़ है जिसके हाथ में झंडा और पत्थर है, एक तरफ सरकार है जिसके पास उन्मादी बुलडोजर है। सरकार ने कानून को दरकिनार कर दिया है। कानून का शासन नहीं है तो बुलडोजर चलाने वाला अपराधी कैसे नहीं है?

बुलडोजर, प्रतीक बन गया है गवर्नेंस का, यानी शासन करने की कला के नए उपकरण का। अब कानून, संसद द्वारा पारित कानूनी प्राविधानों और अदालती प्रक्रिया के द्वारा नहीं बल्कि बुलडोजर से लागू किये जायेंगे। दरअसल भाजपा के राज में कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये जिस आक्रामक नीति की घोषणा 2017 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के द्वारा की गयी थी, वह थी ठोंक दो नीति। यह अपराधियों और कानून व्यवस्था को बिगाड़ने वालों के प्रति अपनाई जाने वाली एक आक्रामक नीति है, जो लोगों में लोकप्रिय और सरकार की छवि को एक सख्त प्रशासक के रूप में दिखाने के लिये लाई गई थी।

इस नीति का कोई कानूनी आधार नहीं है और न ही कानून में ऐसे किसी कदम का प्रावधान है, यह सवाल भी उठता है कि क्या कानून व्यवस्था को लागू और अपराध नियंत्रण करने के लिये, कानूनी प्रावधानों को बाईपास कर के ऐसे रास्तों को अपनाया जा सकता है, जो कानून की नज़र में खुद ही अपराध हो?

यह तो आंकड़े हैं पर बुलडोजर के यूपी मॉडल की नकल अभी हाल ही में मध्य प्रदेश के खरगौन में की गयी है। रामनवमी पर खरगौन में एक शोभायात्रा निकाली गई और वह शोभायात्रा जब मुस्लिम इलाके से निकल रही थी तो कहते हैं कि उस पर पथराव हुआ और फिर साम्प्रदायिक दंगे की स्थिति उत्पन्न हो गयी। पथराव करने वाले कुछ घरों को वहां के प्रशासन ने चिह्नित किया और फिर उनके घरों को बुलडोज़र से गिरा दिया। यहीं यह कानूनी सवाल उठता है कि यदि वे पथराव के दोषी भी थे तो क्या उनका घर गिरा दिया जाना विधिसम्मत है?

कानून के अनुसार उनके खिलाफ अभियोग पंजीकृत कर के उन्हें अदालत में ले जाना चाहिए था और न्यायालय जो दंड देता वह मान्य था। प्रशासन यहां शिकायतकर्ता भी है, जांचकर्ता भी, अभियोजक भी है और न्यायाधीश भी। यह एक मध्यकालीन राजतंत्रीय आपराधिक न्याय प्रणाली की ओर लौटना हुआ, न कि एक सभ्य, प्रगतिशील और विधि द्वारा स्थापित क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के अनुसार न्याय की आकांक्षा करना।

मध्य प्रदेश के खरगौन मामले में मुंबई के एक आईटीआई एक्टिविस्ट साकेत गोखले ने जिला मजिस्ट्रेट खरगौन को एक कानूनी नोटिस भेज कर यह जानकारी चाही कि 'खरगौन में जिन व्यक्तियों के घर बुलडोजर से गिराए गए वे किस कानून के अन्तर्गत गिराए गए हैं।' क्योंकि, ऐसा कोई कानून नहीं है जो सरकार को न्यायपालिका की भूमिका में आने और उसे यह अधिकार देता हो, कि वह खुद ही किसी को दोषी ठहरा दे और उसे दंडित कर उसका घर गिरा दे। साकेत की नोटिस में यह भी कहा गया था, 'यदि विधिक प्रविधानों के अनुसार, 24 घंटे के भीतर जिला मजिस्ट्रेट कोई जवाब नहीं देते हैं तो इस बिंदु पर, मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में याचिका दायर की जायेगी।'

साकेत की नोटिस और आरटीआई के जवाब में जो कहा गया, उसे पढ़िए। जवाब के अनुसार, "जिला मजिस्ट्रेट खरगोन ने मुझे (साकेत गोखले को) एक आरटीआई जवाब में बताया है कि, उनके कार्यालय द्वारा कोई ध्वस्तीकरण आदेश जारी नहीं किया गया था। डीएम का यह भी दावा है कि ध्वस्तीकरण अभियान केवल "अनधिकृत अतिक्रमण" के लिए था, जो कि सच नहीं है। सच तो यह है कि, खरगोन में घरों को भूमि राजस्व अधिनियम, 1959 के तहत ध्वस्त किया गया है।"

यहीं यह सवाल उठता है कि प्रशासनिक व्यवस्था में, जिलाधिकारी, भू-राजस्व मामलों के प्रभारी अधिकारी होते हैं। यदि, डीएम ने यह आदेश जारी नहीं किये हैं तो फिर यह आदेश किसने जारी किया है?

एमपी के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने दावा किया था कि कथित "पत्थरबाजी के आरोपियों" के घरों को ध्वस्त कर दिया गया है। अब डीएम, इस पर यू-टर्न ले रहे हैं और यह कहते हैं कि केवल "अनधिकृत घरों" को तोड़ा गया। लेकिन डीएम का यह भी दावा है कि जिला प्रशासन की ओर से कोई आधिकारिक आदेश जारी नहीं किया गया था। एक तरफ तो डीएम का यह कहना कि अनधिकृत घरों को ही तोड़ा गया है और दूसरी तरफ यह कह देना कि उनका ऐसा कोई आदेश नहीं था। मुस्लिम घरों का यह ध्वस्तीकरण, स्पष्ट रूप से अवैध और कानून के प्रावधानों के विपरीत किया गया कार्य था और सरकार अब, आलोचना और कानूनी रूप से घिरने के बाद तरह तरह के बहाने बना रही है।

यदि बुलडोजर से घर गिराने का कोई वैधानिक और लिखित आदेश किसी सक्षम प्राधिकारी द्वारा नहीं दिया गया था तो फिर खरगौन में इतने मकान टूटे कैसे और राज्य के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्र ने कैसे कथित बलवाइयों के खिलाफ तुरन्त कार्यवाही करने की बात कह दी? मैं सिस्टम में रहा हूँ और सिस्टम जब राजनीतिक गुणा भाग और द्वेष से प्रेरित ऊपर के आदेश, जो अधिकतर राजनीतिक आकाओं के लिये एक सामान्य शब्द हैं, को लागू करवाता है तो ऐसे आदेश किसी कागज़ या फाइल पर नहीं बल्कि ज़ुबानी दिए जाते हैं। ऊपर से लेकर नीचे तक हर अफ़सर यह जानता है कि यह आदेश अवैध है पर वह उन्हें किसी भी वैध आदेश की तुलना में अधिक गम्भीरता और मनोयोग से लागू करता है और आदेश के अनुपालन के बारे में तुरन्त सूचित भी करता है। आदेश पालन की यह तीव्र गति उसे ऊपर की नज़रों में कुछ विशिष्ट तो ज़रूर बना देती है, पर इससे कानून और विधि के शासन का जो नुकसान होता है, वह सिस्टम के लिये बेहद खतरनाक होता है।

अब इसी मामले में देख लें कि जिलाधिकारी को मुंह चुराना पड़ रहा है और कहना पड़ रहा है कि उन्होंने ऐसा कोई आदेश नहीं दिया था। यदि हाईकोर्ट में कोई याचिका दायर होती है तो निश्चय ही जानिये कि इस मामले की जांच जिलाधिकारी ही करेंगे और कोई छोटा अफसर ही फंसेगा, जिसका इस मामले में, सिवाय एक आदेश के, पालन के और कोई भूमिका नहीं है। यह भी खबर है कि सुप्रीम कोर्ट में इस आशय की एक जनहित याचिका भी दायर की गयी है और अब यह देखना है कि सुप्रीम कोर्ट उस जनहित याचिका पर क्या रुख़ अख्तियार करता है।

यह सवाल, उन सबके मन में उठता है जो कानून के राज के पक्षधर हैं और समाज में अमन चैन, कानूनी रास्ते से ही बनाये रखना चाहते हैं। इसलिए विधिनुरूप शासन व्यवस्था में रहने के इच्छुक अधिकांश लोग, चाहे बुलडोजर हो या ठोंक दो की नीति के अंतर्गत की जाने वाली एनकाउंटर की कार्यवाहियां, इन्हें लेकर अक्सर पुलिस पर सवाल उठाते रहे हैं और ऐसे एनकाउंटर्स की, सरकार जो खुद भी, भले ही ठोंक दो नीति की समर्थक और प्रतिपादक हो, न केवल जांच कराती है बल्कि दोषी पाए जाने पर दंडित करने के लिए मुक़दमे भी चलाती रहती है।

मानवाधिकार संगठनों की मानें तो उत्तर प्रदेश, पिछले कुछ वर्षों से न्यायेतर हत्याओं यानी एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग यानी बुलडोजर या ठोंक दो की नीति की एक प्रयोगशाला जैसा रहा है। 2017 के मार्च के बाद से, जब से भारतीय जनता पार्टी राज्य में सत्ता में आई है, तब से एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल हत्याओं की संख्या में वृद्धि हुई है।

एक आंकड़े के अनुसार 2017 से बाद 2020 तक के कालखंड में यूपी पुलिस ने कम से कम 3,302 कथित अपराधियों को गोली मारकर घायल किया है। मानवाधिकार आयोगों की रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस फायरिंग की घटनाओं में मरने वालों की संख्या 146 है। यूपी पुलिस का दावा है कि ये 146 मौतें जवाबी फायरिंग के दौरान हुईं और सशस्त्र अपराधियों के खिलाफ आत्मरक्षा में की गयी हैं। लेकिन नागरिक संगठनों ने इन हत्याओं पर सवाल उठाए और आरोप लगाया कि ये सुनियोजित हैं और जानबूझकर कर की गयी, न्यायेतर हत्याएं हैं।

यदि बुलडोजर से घर गिराने का कोई वैधानिक और लिखित आदेश किसी सक्षम प्राधिकारी द्वारा नहीं दिया गया था तो फिर खरगौन में इतने मकान टूटे कैसे और राज्य के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्र ने कैसे कथित बलवाइयों के खिलाफ तुरन्त कार्यवाही करने की बात कह दी? मैं सिस्टम में रहा हूँ और सिस्टम जब राजनीतिक गुणा भाग और द्वेष से प्रेरित ऊपर के आदेश, जो अधिकतर राजनीतिक आकाओं के लिये एक सामान्य शब्द हैं, को लागू करवाता है तो ऐसे आदेश किसी कागज़ या फाइल पर नहीं बल्कि ज़ुबानी दिए जाते हैं।

ऊपर से लेकर नीचे तक हर अफ़सर यह जानता है कि यह आदेश अवैध है पर वह उन्हें किसी भी वैध आदेश की तुलना में अधिक गम्भीरता और मनोयोग से लागू करता है और आदेश के अनुपालन के बारे में तुरन्त सूचित भी करता है। आदेश पालन की यह तीव्र गति उसे ऊपर की नज़रों में कुछ विशिष्ट तो ज़रूर बना देती है, पर इससे कानून और विधि के शासन का जो नुकसान होता है, वह सिस्टम के लिये बेहद खतरनाक होता है।

अब इसी मामले में देख लें कि जिलाधिकारी को मुंह चुराना पड़ रहा है और कहना पड़ रहा है कि उन्होंने ऐसा कोई आदेश नहीं दिया था। यदि हाईकोर्ट में कोई याचिका दायर होती है तो निश्चय ही जानिये कि इस मामले की जांच जिलाधिकारी ही करेंगे और कोई छोटा अफसर ही फंसेगा, जिसका इस मामले में, सिवाय एक आदेश के, पालन के और कोई भूमिका नहीं है। यह भी खबर है कि सुप्रीम कोर्ट में इस आशय की एक जनहित याचिका भी दायर की गयी है और अब यह देखना है कि सुप्रीम कोर्ट उस जनहित याचिका पर क्या रुख़ अख्तियार करता है।

बुलडोज़र के बारे में यह तर्क अक्सर दिया जाता है कि पुलिस की जांच गति और अदालतों में ट्रायल इतना धीमा है कि न्याय का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। यह तर्क गलत है भी नहीं। पर यदि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में कोई खराबी है तो उसकी पहचान कर के उसे दूर किया जाना चाहिए न कि एक समानांतर विधिविरुद्ध सिस्टम को ही स्थापित कर दिया जाय। समय-समय पर कानून और सिस्टम का परीक्षण करने के लिये केंद्र और राज्य के विधि आयोग गठित होते हैं और नए कानून बनाये भी जाते हैं। पर यह सब समयसाध्य होता है जिसमें राजनीतिक आक़ाओं की न तो कोई रुचि होती है और न ही वे इस 'पचड़े' में पड़ना चाहते हैं।

सच तो यह है कि बुलडोजर, कानून का प्रतीक नहीं है। यह विधिक शासन के ध्वस्त हो जाने और सिस्टम की विफलता से उपजे फ्रस्ट्रेशन का प्रतीक है। सरकार, विधिसम्मत राज्य की स्थापना के लिये गठित तंत्र है, न कि आतंकित कर, राज करने के लिये बनी हुयी कोई व्यवस्था। कानून की स्थापना, कानूनी तरीके से ही होनी चाहिए न कि डरा धमकाकर, भय दिखा कर। वह कानून का नहीं, फिर डर का शासन होगा जो एक सभ्य समाज की अवधारणा के सर्वथा विपरीत है।

बुलडोजर का भी गवर्नेंस में प्रयोग हो सकता है, और होता भी है। पर वह भी किसी न किसी कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत पारित न्यायिक आदेश के पालन के रूप में, न कि, एक्जीक्यूटिव के किसी, मंत्री या अफसर की सनक और ज़िद से उपजे मध्यकालीन शाही फरमान के रूप में। यदि कानून और निर्धारित विधिक प्रक्रियाओं को दरकिनार कर के बुलडोजर ब्रांड 'न्याय' की परंपरा डाली गयी तो, यह एक प्रकार से, राज्य प्रायोजित अराजकता ही होगी।

अराजकता, यानी ऐसा राज्य जिसमें राज्य व्यवस्था पंगु हो जाय, केवल जनता के द्वारा ही नहीं फैलाई जाती है, ऐसा वातावरण, राज्य द्वारा प्रायोजित भी हो सकते हैं। ऐसे राज्य जो पुलिस स्टेट कहा गया है जहां शासन पुलिस या सेना के बल पर टिका होता है, न कि किसी तार्किक न्याय व्यवस्था पर। ऐसी कोशिश, कभी कभी राज्य द्वारा सायास की जाती है, तो यह कभी अनायास भी हो जाता है। राज्य का मूल कर्तव्य और दायित्व है, जनता को निर्भीक रखना।

उसे भयमुक्त रखना। अभयदान राज्य का प्रथम कर्तव्य है, इसीलिए इसे सबसे प्रमुख दान माना गया है। राज्य इस अभयदान के लिये एक कानूनी तंत्र विकसित करता है, जो विधायिका द्वारा पारित कानूनों पर आधारित होता है। इसमें पुलिस, मैजिस्ट्रेसी, ज्यूडिशियरी आदि विभिन्न अमले होते है। इसे, समवेत रूप से, क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के नाम से जाना जाता है। यह सिस्टम, एक कानून के अंतर्गत काम करता है और अपराध तथा दंड को सुनिश्चित करने के लिये, एक विधिक प्रक्रिया अपनाता है।

क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को भी यदि निर्धारित कानूनी प्रक्रिया के अनुसार, लागू नहीं किया जाता है तो इसका दोष सम्बंधित अधिकारी पर आता है और उसके खिलाफ कार्यवाही कर दंडित करने की भी प्रक्रिया, कानून में है, जिसका पालन किया जाता है। कहने का आशय यह है कि, कानून को कानूनी तरह से ही लागू किया जाना चाहिये। यदि कानून, कानूनी प्रावधान को दरकिनार कर के, मनमर्जी से लागू किया जाएगा तो, उसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होगा कि सिस्टम, विधि केंद्रित न होकर व्यक्ति केंद्रित हो जाएगा, और यदि उसे लागू करने वाला व्यक्ति अयोग्य, सनकी और जिद्दी रहा तो राज्य एक अराजक समाज में बदल जाएगा।

यदि कानून को लागू करने वाले सिस्टम में कोई खामी है तो, उसका समाधान किया जाना चाहिए, नए कानून बनाये जा सकते हैं, पुराने कानून रद्द किए जा सकते हैं और विधायिकाएं ऐसा करती भी हैं, पर कानून का विकल्प, बुलडोजर या सनक या ज़िद कदापि नहीं हो सकता है, इससे अराजकता ही बढ़ेगी ।

सरकार अहंकार और परसंताप में अंधी हो चुकी है। वह कानून का सम्मान नहीं कर रही है। वह किसी को सजा देने के लिए अदालत के आदेश का इंतजार नहीं कर रही है।सरकार खुद ही न्यायाधीश बन गई है। सरकार अपराध कर रही है। वह समझती है कि वह मुसलमानों को प्रताड़ित करके हिंदुओं को खुश कर लेगी। बुलडोजर चलता है तो बहुत से हिंदू ताली बजाते हैं, बहुत लोग तारीफ करते हैं। आज दिल्ली में गुप्ता जी, झा जी, शर्मा जी समेत कई हिंदू भी रेल दिए गए।

आजकल चुन-चुनकर मुसलमानों के घरों पर बुलडोजर चलाकर कट्टर हिंदुओं को बहलाया जा रहा है कि मुल्ले टाइट हैं। अगर कानून का शासन नहीं रहेगा, अगर अराजक समाज बनेगा, अगर कानून और अदालत का सम्मान नहीं किया जाएगा तो उसके शिकार सब होंगे। एक तालिबानी समाज में कोई सुरक्षित नहीं रहता। यह सबक लेकर अपने संविधान, अपने देश और समाज के साथ एकजुट होने का समय है।

(रामस्वरूप मंत्री इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार एवं सोशलिस्ट पार्टी इंडिया मध्य प्रदेश के अध्यक्ष हैं।)

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