Caste Descrimination : अमीर और पढ़े-लिखे शहरी इलाके में रहने वाले एक दलित लेखक का दुख

Caste Descrimination : तथाकथित पॉश कॉलोनियों में रहने वाले तो इसी बात से कुढे रहते हैं कि कोई दलित (Dalits) कैसे इन के बीच रहने पहुंच गया! वह भी दलितों में दलित कहीं जा रही जाति का टाइटल अपने नाम के साथ लगा कर......

Update: 2022-05-25 16:00 GMT

Caste Descrimination : अमीर और पढ़े-लिखे शहरी इलाके में रहने वाले एक दलित लेखक का दुख। प्रतीकात्मक चित्र

  कैलाश दहिया का विश्लेषण

Caste Descrimination : पिछले दिनों एक दलित लेखक ने अपनी फेसबुक वॉल पर एक संक्षिप्त पोस्ट डाली, जिस में इन्होंने लिखा- "मुझे आज तक यह पता नहीं चल पाया कि मेरे हिंदू पड़ोसी वसुंधरा, गाजियाबाद (Ghaziabad) जैसी पॉश कॉलोनी में भी मुझसे क्यों नफरत करते हैं?" बताइए, विद्वान होकर कैसी बात कर रहे हैं! इन्होंने कैसे मान लिया कि पॉश कॉलोनियों के लोग घृणा नाम की वंशवादी बीमारी के कायल नहीं हैं? पॉश कॉलोनी में रहने से घृणावादी या वर्णवादी सुधरते होते तो यह बहुत आसानी से सुलझने वाली समस्या थी, लेकिन इस बीमारी की जड़ें तो बहुत गहरी हैं। जिस का पॉश कॉलोनी या जे.जे. कालोनी से कोई संबंध नहीं। वैसे, इन्हें कैसे पता चला कि इन के साथ घृणा की जा रही है? इन्हें अपने साथ बरती गई घृणा का पूरा ब्यौरा लिखना चाहिए और इन घृणावादियों के खिलाफ कोर्ट का दरवाजा खटखटाना चाहिए।

असल में, तथाकथित पॉश कॉलोनियों में रहने वाले तो इसी बात से कुढे रहते हैं कि कोई दलित (Dalits) कैसे इन के बीच रहने पहुंच गया! वह भी दलितों में दलित कहीं जा रही जाति का टाइटल अपने नाम के साथ लगा कर। इन्होंने कैसे मान लिया कि कथित पॉश कॉलोनियों में नफरती तत्व नहीं पाए जाते? ये तो आप से नफरत ही इसलिए करेंगे कि आप वहां से अपना बोरिया बिस्तर समेट कर भाग जाएं।

ये दलित लेखक खुद को अंबेडकरवादी कहते हैं। इन्हें पता होना चाहिए कि इन घृणावादियों के बारे में बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने क्या बताया है। डॉ. अंबेडकर ने लिखा है, 'पुराने रूढ़िवादी हिंदू तो इसकी कल्पना भी नहीं करते कि छुआछूत बरतने में कोई दोष भी है। वे इसे सामान्य और स्वाभाविक कहते हैं और न इसका उन्हें कोई पछतावा है और न ही उनके पास इसका कोई स्पष्टीकरण है।'(1) अब ये ही बताएं कि इस पर इन का क्या कहना है? इन्होंने सोच भी कैसे लिया कि ये सुधर गए हैं?

वैसे, डॉ. अंबेडकर भी इस मामले में गफलत के शिकार हो जाते हैं, जब वे लिखते हैं, 'नये जमाने का हिंदू गलती का अहसास करता है परंतु वह सार्वजनिक रूप से इस पर चर्चा करने से कतराता है कि कहीं विदेशियों के सामने हिंदू सभ्यता की पोल ना खुल जाए कि यह ऐसी निंदनीय तथा विषैली सामाजिक व्यवस्था है अथवा जो छुआछूत जैसी नृशंसता की जननी है।'(2) असल में, डॉ. अंबेडकर बेवजह 'पुराने रूढ़िवादी हिंदू' और 'नए जमाने का हिंदू' जैसी शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं। इन से घृणा बरतने वाले हिंदू तो डॉ. अंबेडकर के नए जमाने के हिंदू से भी ज्यादा नए हिंदू हैं। तब भी दलित लेखक से घृणा बरती जा रही है! फिर, डॉ. अंबेडकर पता नहीं हिंदू शब्द का क्यों प्रयोग कर रहे हैं? इन्होंने 'ब्राह्मण' शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया, जो घृणावाद का जन्मदाता है।

वैसे, इस मामले सहित दलितों से जुड़ी हर समस्या के समाधान में 'आजीवक चिंतन' अंबेडकरवाद से बहुत आगे बढ़ा हुआ है। बताया जाए, घृणा, अस्पृश्यता, छुआछूत, नस्लवाद और भेदभाव हिंदू अर्थात ब्राह्मण धर्म की आंतरिक व्यवस्था है। इस बारे में महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर बताते हैं, 'हिंदू के लिए मुसलमान कौन हैं? हिंदू के लिए मुसलमान शुद्र हैं। ऐसे ही हिंदू के लिए ईसाई, पारसी और यहूदी शूद्र हैं। अपने बर्तनों को ले कर वह उन्हें अछूत भी कह सकता है। लेकिन यही परिभाषा हिंदू के लिए दलित की है। दलित हिंदुओं के लिए उतनी ही दूर का आदमी है जितनी दूर का कोई मुसलमान, ईसाई, यहूदी या पारसी है। हिंदू इन्हें अपनी वर्ण-व्यवस्था में शूद्र के रूप में ही स्वीकार कर सकता है, किसी अन्य वर्ण में नहीं। वास्तव में, दलित वर्ग हिंदू नहीं है।'(3)

ऐसे में, हमारे ये लेखक महोदय कैसे मान कर चल रहे हैं कि इन के साथ ये हिंदू अपने धर्म का धार्मिक व्यवहार छोड़ देंगे? उस में भी ये अपने नाम के साथ जो पेशागत टाइटल लगा कर चलते हैं जिस से ये सनातनी सर्वाधिक घृणा करते हैं। इन्होंने सोच भी कैसे लिया कि नाम के साथ पेशागत टाइटल लगा लेने से अछूतवादी बैकफुट पर चले जाएंगे और इन से नफरत नहीं करेंगे। किसी से नफरत करना नफरत करने वाले की समस्या है ना कि आप की। हां, कोई चाहे तो नफरत करने वाले व्यक्ति से उस से भी ज्यादा नफरत कर सकता है। वैसे भी नफरत से नफ़रत ही पैदा होती है।

इन्होंने बेशक अपनी पहचान के लिए अपने नाम के साथ अपना पारंपरिक थोपा हुआ पेशागत टाइटल जोड़ रखा है। लेकिन, इस से इन्हें इतना तो समझ जाना चाहिए कि यह कोई पहचान का मामला नहीं है। ऐसे में इन्हें अपनी वास्तविक पहचान की खोज के लिए जी-जान से जुट जाना चाहिए। वैसे भी इन आर्य छुआछूतवादियों ने दलित जातियों के प्रति अपने और अपनी संतान के दिमाग में घृणा के बीज बोए हुए हैं। इस घृणा का सामना ये कैसे कर पाएंगे? हमारे कुछ भंगी साहित्यकारों ने द्विजों की इस की घृणा से बचने के लिए अपने नाम के साथ ब्राह्मण वाल्मीकि का नाम भी जोड़ने की जुगत भिड़ाई है। यहां तक कि इन्होंने तथाकथित वाल्मीकिन धर्म चलाने का दावा भी किया है। लेकिन, ये बेचारे वहां भी पकड़े गए हैं। अब ये जिद पर अड़े हैं कि वाल्मीकि तो भंगी थे। किसी के पास इस मानसिक समस्या का कोई समाधान हो तो बताए।

इन की इस पोस्ट पर कुछ लोग लिख रहे थे कि अपने नाम के साथ पेशागत टाइटल लगाने के कारण ही लोग इन से नफरत करते हैं। एक ने इन की पोस्ट पर अपने कमेंट में लिखा, 'ब्राह्मण के हाथ में झाड़ू पकड़ा दो बिना सरनेम के काम दिलवा दो, खुद अनजान ब्राह्मण भी घर में घुसने ना दे उसे... दलित के हाथ में पोथी पकड़ा दो भगवा धारण करवा दो बिना सरनेम के कथा करवा तो ब्राह्मण स्वयं आशीर्वाद लेगा पैर पकड़कर।' (4)

अब इस कथन पर क्या कहा जा सकता है? बस इतना ही कहा जा सकता है, डॉ. अंबेडकर तो बहुत पढ़े लिखे थे, उन के हाथ में तो आज भी किताब ही दिखाई देती है। लेकिन, उस समय भी और आज भी दलितों से घृणा करने वाले डॉ. अंबेडकर से उतनी ही घृणा करते रहे। इन घृणा करने वालों की मानसिक बुनावट ही ऐसी है कि भगवान भी आ कर इन के दिमाग से घृणा के इस बीज को नहीं निकाल सकता। ये घृणावादी तो दलितों की हर जाति से घृणा करते देखे जा सकते हैं। पूछना यह है, किसी के दलित होने पर कोई व्यक्ति किसी से घृणा कैसे कर सकता है? पूछना यह भी है कि घृणावादी भंगी-चमार से घृणा क्यों करते हैं?

II

इन्होंने कैसे मान लिया कि तथाकथित पॉश कॉलोनियों में रहने वाले जातिवादी आर्यों का व्यवहार सुधर गया होगा? पॉश कालोनियों में रहने वाले ये उसी चपरासी की संतान ही तो हैं जो बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर को बड़ौदा रियासत में 'मेज पर दूर से ही फाइलें फेंका करते थे।'(5) अब आगे इन्हें पता होना चाहिए कि डॉ. अंबेडकर ने इस घृणा या अस्पृश्यता के खिलाफ क्या किया था। डॉ. अंबेडकर ने इसी अस्पृश्यता के खिलाफ ही तो महायुद्ध लड़ा है। और, इस के विरुद्ध संवैधानिक व्यवस्था में कानूनों का निर्माण तक करवाया है। यह अलग बात है कि ये अस्पृश्यतावादी अभी भी सुधरने का नाम नहीं ले रहे। बल्कि, ये तो जातीय उत्पीड़न के खिलाफ बने कानूनों को रद्द करवाने की फिराक में लगे रहते हैं।

पूछना यह भी है, बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर और इन से बरती गई घृणा में क्या कोई किसी तरह का विभेद है? आप देखेंगे कि दोनों में रत्ती भर का भी फर्क नहीं है। हां; डॉ. अंबेडकर से सीधे तौर पर अस्पृश्यता बरती गई, इधर इन के साथ चेहरों के हाव भाव से घृणा बरती गई लगती है, जो बेहद खतरनाक है। असल में, द्विजों के घर अस्पृश्यता सीखाने की पाठशाला हैं। जहां अस्पृश्यता इन की संतानों की नस-नस में भर दी जाती है। इसी घृणा का शिकार हर दलित देर-सवेर होता है। इसी अ-देखी घृणा के कारण दलितों के सैकड़ों-हजारों बच्चे हर साल मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज छोड़ देते हैं। बहुतों को तो रोहित वेमुला और पायल तड़वी की तरह आत्महत्या को मजबूर कर दिया जाता है।

उधर, एक महोदय इन की लिखत पर अपनी फेसबुक पोस्ट में पूछ रहे हैं, 'साहित्यकार ..... दिल्ली के पास गाजियाबाद की पॉश कॉलोनी में रहते हैं। उनके इस सवाल का जवाब है आपके पास?' बताइए, दूसरों से पूछ रहे हैं, खुद जवाब नहीं दे रहे। जवाब दें भी तो कैसे? तब इन्हें ब्राह्मण के 'अस्पृश्यता के सिद्धांत' और इसे ध्वस्त करता महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर का 'जारकर्म का सिद्धांत' बताना पड़ेगा। और, डॉ. धर्मवीर का नाम ये कैसे लें, तब सभी को इन के समेत सभी पिछड़े लेखकों की हकीकत का पता लग जाएगा कि कैसे ये आजीवक चिंतन से चोरी कर रहे हैं। इतना ही नहीं पिछड़े आजीवक चिंतन को प्रक्षिप्त करके चिंतक बनने की जुगत में पड़े हैं।

असल में, वर्णवादियों अर्थात द्विजों का अस्पृश्यता का सिद्धांत क्या है? इस सिद्धांत के अनुसार दलित पुरुष से अस्पृश्यता अर्थात घृणा बरती जाती है और दलित स्त्री से जारकर्म (बलात्कार और जारकर्म) किया जाता है। इस काम में द्विज स्त्री भी पीछे नहीं है। इसे अपने पुरुषों के जारकर्म से कोई एतराज नहीं। हां, वह अपने लिए भी जारकर्म की छूट चाहती है। अभी पिछले दिनों आर्गैज़्म के नाम पर द्विज स्त्री बेशर्मी से जारकर्म की छूट ही तो मांग रही थी। फिर, हमारे ये लेखक तो जारकर्म की झंडाबरदार द्विज लेखिका के पक्षकार रहे हैं। तब ये कैसे अपने प्रति बरती गई घृणा की शिकायत या रूदाली कर सकते हैं? इन्हें जारकर्म के खिलाफ कमर कसनी होगी। तब ये देखेंगे कि घृणावादी कैसे विलुप्त होते हैं।

यहां पूछने वाली बात यह भी है, अगर इन की जगह कोई दलित लेखिका होती तो क्या कथित पॉश कॉलोनी में उस के साथ भी ऐसे ही घृणा बरती गई होती? असल में इसी सवाल में 'कफन' कहानी का रहस्य छुपा है। घीसू-माधव से अस्पृश्यता बरतो और बुधिया से जारकर्म में संलिप्त रहो। महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर इसे कुछ इस तरह बताते हैं, 'दलित की मुसीबतों का एक पूरा दलित शास्त्र हुआ करता है। यह दलित शास्त्र क्या है और यह किस हद तक लागू होता है? मोटे रूप में यह शास्त्र दो चीजों से बना है। इसका पहला भाग अस्पृश्यता का है और दूसरा भाग 'बलात्कार और जारकर्म' का है।

दलित पुरुषों के साथ अस्पृश्यता और दलित नारियों के साथ बलात्कार और जारकर्म - ये इस के दो बड़े विभाजन हैं।'(6) यही इन वर्णवादी- अस्पृश्यतावादियों की सोची समझी गई रणनीति है। इस से ये अपनी जारज संतान दलित से पलवाना चाहते हैं। लेकिन दलित तो बुधिया को तलाक दे देगा। वैसे ये दलित लेखक जारिणी के कसीदे काढ़ने वालों में सबसे आगे रहे हैं। तब घृणा का रोना क्यों? उम्मीद है इन लेखक महोदय को अपने साथ बरती गई घृणा का रहस्य समझ आ रहा होगा।

संदर्भ :

1, 2 अछूत- वह कौन थे और अछूत कैसे हो गए?, बाबा साहेब डॉ.अंबेडकर, संपूर्ण वांग्मय : खंड 14, डॉ.अंबेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली- 110 001, तीसरा संस्करण : 2013, पृष्ठ-III

3. दलित चिंतन का विकास : अभिशप्त चिंतन से इतिहास चिंतन की ओर, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली 110 002, प्रथम संस्करण : 2008, पृष्ठ-18

4. फेसबुक पोस्ट पर एक कमेंट।

5. बाबा साहेब डॉ.अंबेडकर, मोहनदास नैमिशराय, मिशन जय भीम, हाउस न. 590, जाटव मौहल्ला गांव बादली, दिल्ली-110 042, पृष्ठ-23

6. प्रेमचंद - सामंत का मुंशी, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज नयी दिल्ली-110 002, संस्करण : 2007, पृष्ठ- 19.

Tags:    

Similar News