मांस के सेवन से आंतों के कैंसर का खतरा, मांस की बढ़ती मांग के कारण पर्यावरण भी संकट में
विश्व के सन्दर्भ में मांस की खपत पिछले 50 वर्षों में लगभग दोगुनी हो चुकी है। वर्ष 1961 में प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत 23 किलोग्राम थी जो वर्ष 2014 तक 43 किलोग्राम तक पहुंच गई। इसका सीधा सा मतलब यह है कि मांस की खपत इसी दौरान जनसंख्या वृद्धि की तुलना में 4 से 5 गुना तक बढ़ गई।
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
पिछले कुछ वर्षों के दौरान अनेक सर्वेक्षणों और अध्ययनों के अनुसार अधिक मांस का सेवन करने से आँतों में कैंसर का खतरा बढ़ता है। पर, एक नए अध्ययन से यह भी स्पष्ट होता है की मांस के अधिक सेवन से अनेक प्रमुख दूसरे रोगों का खतरा भी बढ़ जाता है। ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में डॉ. करेन पपिएर की अगुवाई में किये गए एक अनुसंधान का निष्कर्ष है कि सप्ताह में तीन बार से अधिक मांस का सेवन करने वालों में ह्रदय रोग, डायबिटीज, न्युमोनिया और दूसरे गंभीर रोगों का खतरा बढ़ जाता है। यह असर रेड, पोल्ट्री और प्रोसेस्ड – हरेक तरह के मांस से होता है। ऐसी आशंका विश्व स्वास्थ्य संगठन और अनेक दूसरे वैज्ञानिक पहले भी जता चुके हैं। डॉ. करेन पपिएर का अध्ययन ब्रिटिश मेडिकल कौंसिल के मेडिसिन नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है।
डॉ. करेन पपिएर के अनुसार यह अध्ययन ब्रिटेन के लगभग 5 लाख नागरिकों पर 8 वर्षों के दौरान किया गया है। रेड और अनप्रोसेस्ड मांस के सेवन से डाईवर्तिकुलर रोगों, कोलोन पोलिप्स, ह्रदय रोग, न्युमोनिया और डायबिटीज का खतरा बढ़ता है, जबकि पोल्ट्री मांस से गैस्ट्रो-ओएसोफेगल रिफ्लक्स, गैस्त्राइटीस, ड्यूडेमाइटीस, डाईवर्तिकुलर रोगों, गालब्लैडर के रोगों और डायबिटीज का खतरा बढ़ता है। हरेक दिन 70 ग्राम से अधिक अनप्रोसेस्ड मांस का सेवन करने वालों में ह्रदय रोगों की संभावना 15 प्रतिशत और डायबिटीज की संभावना 30 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।
इसी तरह 30 ग्राम या इससे अधिक पोल्ट्री मांस का सेवन करने वालों में गैस्ट्रो-ओएसोफेगल रिफ्लक्स की संभावना 17 प्रतिशत और डायबिटीज की संभावना 14 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। मांस खाने से सबसे अधिक स्वास्थ्य पर प्रभाव मोटे लोगों पर पड़ता है।
प्रतिष्ठित जर्नल 'साइंस' के एक अंक में प्रकाशित रिव्यु लेख के अनुसार विश्व में मांस की बढ़ती मांग के कारण पर्यावरण संकट में है, तापमान बृद्धि के लिए जिम्मेदार कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन बढ़ रहा है और जैव-विविधता कम हो रही है। विश्व की जनसँख्या बढ़ रही है और साथ ही औसत वार्षिक आय भी बढ़ रही है, इस कारण मांस का उपभोग भी बढ़ता जा रहा है। लेख के सह-लेखक यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑक्सफ़ोर्ड के प्रोफेसर टिम के के अनुसार, मांसाहार की वर्त्तमान दर भी पर्यावरण के लिए घातक है, और भविष्य में इसके गंभीर परिणाम होंगे।
विश्व के सन्दर्भ में मांस की खपत पिछले 50 वर्षों में लगभग दोगुनी हो चुकी है। वर्ष 1961 में प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत 23 किलोग्राम थी जो वर्ष 2014 तक 43 किलोग्राम तक पहुंच गई। इसका सीधा सा मतलब यह है कि मांस की खपत इसी दौरान जनसंख्या बृद्धि की तुलना में 4 से 5 गुना तक बढ़ गई। सबसे अधिक बृद्धि मध्यम आय वर्ग वाले देशों जिनमे चीन और पूर्वी एशिया के देश प्रमुख हैं, में दर्ज की गयी है।
दूसरी तरफ कुछ विकसित देश ऐसे भी हैं जहां कुछ वर्ष पहले की तुलना में मांस की खपत कम हो रही है। इंग्लैंड में ऐसा ही हो रहा है। वर्ष 2017 के नेशनल फ़ूड सर्वे के अनुसार वहाँ वर्ष 2012 की तुलना में मांस की खपत में 4.2 प्रतिशत की कमी आ चुकी है, जबकि मांस वाले उत्पादों में 7 प्रतिशत की कमी आई है।
मांस के उत्पादन में अनाजों, सब्जियों और फलों की तुलना में पानी की अधिक खपत होती है, कार्बन डाइऑक्साइड का अधिक उत्सर्जन होता है तथा पर्यावरण पर अधिक बोझ पड़ता है। मानव की गतिविधियों के कारण तापमान बृद्धि करने वाली जितनी गैसों का उत्सर्जन होता है, उसमें 15 प्रतिशत से अधिक योगदान मवेशियों का है। विश्व स्तर पर पानी की कुल खपत में से 92 प्रतिशत पानी का उपयोग कृषि में किया जाता है, और इसका एक-तिहाई से अधिक मांस उत्पादन में खप जाता है।
वर्ष 2010 में किये गए एक अध्ययन के अनुसार सब्जियों के उत्पादन में पानी की औसत खपत 322 लीटर प्रति किलोग्राम है, जबकि फलों के लिए यह मात्रा 962 लीटर है। दूसरी तरफ मुर्गी के मांस के लिए 4325 लीटर, सूअर के मांस के लिए 5988 लीटर, बकरे के मांस के लिए 8763 लीटर और गाय के मांस के लिए प्रति किलोग्राम 15415 लीटर पानी की जरूरत होती है।
इतना तो स्पष्ट है कि पूरी दुनिया में मांस के सेवन के पर्यावरण और सेहत पर असर को लेकर गंभीर शोध किये जा रहे हैं और सबके परिणाम लगभग एक जैसे हैं – पर्यावरण और सेहत बचाने के लिए अपने खाने की आदतों को बदलिए, मांसाहारी से शाकाहारी बन जाइए।