सामान्य महिलाओं के मुकाबले गर्भवती महिलाओं के लिए कोरोना ज्यादा घातक
सामान्य अवस्था में भी गर्भवती महिलाओं को अंतिम चरण में अनेक बार सांस ठीक से न ले पाने की समस्या आती है। ऐसे में कोविड 19 संक्रमित गर्भवती महिलाओं की समस्या और बढ़ जाती है....
महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
कोविड 19 से सम्बंधित टीकों और दवाओं पर दुनियाभर में जितना काम किया जा रहा है या फिर वैज्ञानिक अध्ययन किये जा रहे हैं, उसके अनुपात में इसके प्रभावों पर कम अध्ययन किये जा रहे हैं। यही कारण है कि इसके नए प्रभावों की चर्चा हरेक दिन और नै हो जाती है।
कोविड 19 का गर्भवती महिलाओं या फिर नई माओं पर क्या प्रभाव पड़ता है इससे सम्बंधित कम ही अध्ययन किये गए हैं, और प्रभावों की चर्चा कम होती है। शायद इसका कारण यह हो सकता है कि गर्भधारण के शुरुआती दौर के दौरान कोविड 19 का गर्भ के विकास पर अप्रत्याशित प्रभाव नहीं देखा गया है और ना ही गर्भधारण के अंत में शिशु या माँ पर कोई जानलेवा असर पड़ता है।
स्वास्थ्य विज्ञान के सन्दर्भ में देखें तो गर्भवती महिलायें कोविड 19 से अत्यधिक प्रभावित हो सकती हैं। कोविड 19 का सीधा सम्बन्ध रोग-प्रतिरोधक क्षमता से है और दूसरी तरफ इसका सीधा असर फेफड़ों और कार्डियोवैस्कुलर तंत्र पर पड़ता है। चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि में गर्भवती महिलाओं की सामान्य अवस्था में भी रोग-प्रतिरोधक क्षमता सामान्य नहीं रहती और फेफड़े और कार्डियो-वैस्कुलर तंत्र असामान्य काम करते हैं।
जाहिर है, ऐसे में कोविड 19 से ग्रसित गर्भवती महिलाओं पर सामान्य महिलाओं की अपेक्षा अधिक खतरा बना रहता है। अमेरिका के ल्यूसिआना यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल के विशेषज्ञ डेविड बैंड के अनुसार इतना तो स्पष्ट है कि गर्भवती महिलायें यदि अस्पताल में भर्ती हैं तब उन्हें सबसे पहले कोविड 19 से बचाने की जरूरत है – पहला फेस मास्क उन्हें दिया जाना चाहिए और सोशल डिस्टेंसिंग भी वहीं से शुरू की जानी चाहिए।
जून के महीने में अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कण्ट्रोल एंड प्रिवेंशन ने प्रजनन के उम्र वाली 91412 महिलाओं का अध्ययन किया था, इन सभी महिलाओं को कोविड 19 का संक्रमण हुआ था, इसमें से 8207 महिलायें गर्भवती थीं। अध्ययन का निष्कर्ष है कि जो महिलायें गर्भवती नहीं थीं उनकी तुलना में गर्भवती महिलाओं के आईसीयू में भर्ती होने की सम्भावना 50 प्रतिशत अधिक थी, जबकि वेंटिलेटर की आवश्यकता 70 प्रतिशत अधिक थी। दोनों वर्गों की महिलाओं के मौत के आंकड़ों में बहुत अंतर नहीं पाया गया।
स्वीडन की पब्लिक हेल्थ एजेंसी ने मार्च और अप्रैल के दौरान ऐसा ही अध्ययन किया था। इसके अनुसार कोविड 19 से ग्रस्त सामान्य महिलाओं की अपेक्षा गर्भवती महिलाओं के आईसीयू में भर्ती कोने की संभावना 6 गुना अधिक थी।
वर्ष 2009 के दौरान एच1एन1 फ्लू के दौरान भी किये गए अनेक अध्ययनों से इतना स्पष्ट था कि गर्भवती महिलाओं पर फेफड़े या सांस से सम्बंधित वायरस का प्रभाव अधिक पड़ता है। अमेरिका में उस दौरान गर्भवती महिलाओं की संख्या कुल आबादी का महज 1 प्रतिशत थी, पर एच1एन1 फ्लू से मरने वाले लोगों की कुल संख्या का 5 प्रतिशत से अधिक गर्भवती महिलायें थीं। सार्स वायरस के दौरान भी गर्भवती महिलाओं को भारी संख्या में आईसीयू में भर्ती होने की जरूरत पड़ी थी और मौतें भी बड़ी संख्या में हुई थी।
अमेरिका के वेइल कोर्नेल मेडिसिन की विशेषज्ञ मालविका प्रभु के अनुसार कोविड 19 से संक्रमण का सर्वाधिक असर फेफड़ों पर पड़ता है, तो दूसरी तरफ गर्भवती महिलाओं में बच्चेदानी का विस्तार फेफड़ों को प्रभावित करता है, ऐसे में सामान्य अवस्था में भी गर्भवती महिलाओं को अंतिम चरण में अनेक बार सांस ठीक से न ले पाने की समस्या आती है। ऐसे में कोविड 19 संक्रमित गर्भवती महिलाओं की समस्या और बढ़ जाती है।
दूसरी समस्या यह है कि गर्भवती महिलाओं के खून में ऑक्सीजन की कमी, खून का गाढ़ा होना इत्यादि समस्याएं आतीं हैं, और लगभग ऐसा ही असर कोविड 19 के दौरान भी देखा जाता है। गर्भवती महिलाओं के खून का थक्का भी अपेक्षाकृत जल्दी बनता है, और यह असर कोविड 19 के दौरान भी होता है।
कोविड 19 से संक्रमण के बाद कार्डियो-वैस्कुलर तंत्र प्रभावित होता है, और गर्भावस्था के दौरान महिलाओं का यह तंत्र स्वाभाविक तौर पर प्रभावित रहता है। गर्भावस्था के दौरान महिलाओं के फेफड़े में द्रव के जमा होने की भी समस्या रहती है।
मालविका प्रभु के अनुसार केवल गर्भावस्था के दौरान ही नहीं बल्कि बच्चे पैदा करने के बाद भी कोविड 19 से ग्रस्त महिलायें अत्यधिक प्रभावित रहतीं हैं। एक अध्ययन के दौरान कोविड 19 से ग्रस्त 13 प्रतिशत नई माओं को ज्वर, रक्त में कम ऑक्सीजन इत्यादि की समस्या के कारण वापस अस्पताल में भर्ती होना पड़ा, जबकि जो महिलायें गर्भवती नहीं थीं, उसमें से केवल 4.5 प्रतिशत महिलाओं को वापस भर्ती होना पड़ा।
जाहिर है, कोविड 19 का असर हरेक जगह, हरेक आबादी और हरेक आयु वर्ग पर पड़ रहा है, इसलिए इस दिशा में स्वास्थ्य विज्ञान को सघन अनुसंधान की पहल करनी पड़ेगी।