Death of Democracy | प्रजातंत्र की अर्थी उठाये आगे बढ़ रहे हैं हम
Death of Democracy | हम आजकल पूंजीवाद (capitalism) का अंतहीन धारावाहिक तमाशा देख रहे हैं| हमारे देश में हरेक साल का बजट प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री के अनुसार गरीबों को समर्पित रहता है, इसे पेश करने के समय खूब मेजें थपथपाई जाती हैं|
महेंद्र पाण्डेय की रिपोर्ट
Death of Democracy | हम आजकल पूंजीवाद (capitalism) का अंतहीन धारावाहिक तमाशा देख रहे हैं| हमारे देश में हरेक साल का बजट प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री के अनुसार गरीबों को समर्पित रहता है, इसे पेश करने के समय खूब मेजें थपथपाई जाती हैं| फिर समाचार चैनलों पर इसे गरीबों के विकास का बताया जाता है, अनेक मानसिक विकलांग, जिन्हें टीवी की भाषा में विशेषज्ञ कहा जाता है, दिनभर समाचार चैनलों पर बैठ कर बजट को विकासवादी बताते हैं और प्रधानमंत्री को गरीबों का मसीहा| इसके बाद अगले वर्ष के बजट पेश होने तक देश के अरबपतियों की पूंजी दोगुना हो चुकी होती है और गरीबी रेखा से नीचे की आबादी पहले से अधिक हो चुकी होती है| साल-दर-साल यही सिलसिला चलता जा रहा है|
जाहिर है, केवल पूंजीवाद पनप रहा है| जरा सोचिये, क्या केवल पूंजीपति अमीर हो रहे हैं – तथ्य यह है कि पूंजीपतियों की जितनी तिजोरी भरती जा रही है उतनी ही सत्ता में बैठी बीजेपी की तिजोरी भी भर रही है| इस खेल को समझना होगा – एक गरीब देश में सरकार और सत्ताधीन पार्टी के आयोजनों की संख्या अचानक से बढ़ गयी है और हरेक आयोजन एक चमकदार अरबों रुपये का भव्य इवेंट हो गया है| बीजेपी के चुनाव प्रचार को देख कर लगता है मानो हम समृद्धि के शिखर पर पहुँच गए हैं| यह समृद्धि भी केवल मंच तक सीमित रहती है, मंच के नीचे तो लाभार्थी खड़े रहते हैं, जो पूरे महीने 5 किलो अनाज का इंतज़ार करते हैं|
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने बिलकुल सटीक कहा है, भारत दो हिस्सों में बंट चुका है – एक हिस्से में 100 सबसे अमीर, सरकारी मंत्री-संतरी और उनके हिंसक समर्थक जो देश के हरेक कानून से ऊपर हैं और दूसरी तरफ देश की शेष जनता है जिसका पेशा ही गरीबी, बेरोजगारी और गरीबी से जूझना बन चुका है| हमारी जनता उस दौर में पहुँच चुकी है, जहां वह अपनी मांग भी भूल चुकी है और जाहिर है आन्दोलन या विद्रोह तो जनता के मस्तिष्क से भी हट चुका है| इसके बाद भी दुनिया की नज़रों में भारत सबसे बड़ा प्रजातंत्र है| वास्तव में हम एक ऐसा देश बन चुकी हैं जहां पूरा समाज अनेक वर्गों में पूरी तरह बंट चुका है, और जो नहीं बंटा है उसे सरकार पूरी तरह से विभाजित करने पर तुली है और कामयाब भी हो रही है| अब भेद केवल अमीर-गरीब का नहीं है और ना ही हिन्दू और मुसलमान का| अब तो हिन्दू भी खुलकर ब्राह्मण, राजपूत, जाट, बनिया इत्यादि बन चुके हैं और दलित और निचली जातियों को हिन्दू से बाहर करने की मुहीम चला रहे हैं|
अब जनता के हिस्से कुछ नहीं आता, सिवाय लच्छेदार नारों और रंगीन पोस्टरों के| जनता के जीवन का उद्देश्य पांच किलो अनाज है जिसकी थैली पर मुस्कराते मोदी जी बैठे हैं| गरीबों का अनाज कम हो सकता है, पर मजाल है कि थैली पर तस्वीर ना हो| देश में समस्याएं लगातार विकराल होती जा रही हैं और सरकार हरेक संभावित देश से हथियार खरीदने में जुटी है| जितने बार आत्मनिर्भर भारत का नारा गूंजता है उतने ही विदेशों से हथियार खरीदने का आर्डर भेजा जाता है| हथियार के साथ ही जासूसी के उपकरण भी खरीदे जाते हैं, जिनका उपयोग नागरिकों की जासूसी में किया जाने लगता है और आतंकवादी सुरक्षा बलों की ह्त्या करते रहते हैं|
पूंजीवाद ने निरंकुश सरकारों को या दूसरे शब्दों में अपने लिए कठपुतली सरकार को बढ़ाया है| इसके बाद से श्रम और श्रमिक, जिनकी संख्या देश में सबसे अधिक है, का महत्त्व ख़त्म होता जा रहा है| श्रमिकों और श्रम को केवल बाजार के हवाले नहीं किया जा सकता है, इससे हरेक स्तर पर असमानता बढ़ती है – यह पूरी तरह उजागर हो चुका है| अब समय आ गया है कि श्रमिकों को भी हरेक स्तर पर नीति निर्धारण में शामिल किया जाए, और उन्हें अपने जीवन और भविष्य को निर्धारित करने का मौका दिया जाए| इससे पूरे श्रमिक समुदाय के लिए सम्मान का जीवन सुनिश्चित किया जा सकेगा| श्रमिक भी एक इंसान होता है, पर पूंजीवाद ने अपनी सुविधा से इसे "मानव संसाधन" का दर्जा दिया है, और श्रमिकों की यही परिभाषा सरकार भी समझती है| पूंजीवाद जब संसाधन शब्द का उपयोग करता है तब, इसका परिणाम सभी देख रहे हैं| पूंजीवाद के लिए पूरा पर्यावरण एक संसाधन है, और पर्यावरण के हरेक अवयव हरेक तरीके से बर्बाद करता जा रहा है| प्रजातंत्र में असमानता के लिए कोई स्थान नहीं है, पर दुखद तथ्य यह है कि हरेक तरीके की असमानता समाज में लगातार बढ़ रही है| मालिक और श्रमिक के बीच पूंजी का बंटवारा नहीं होता. मालिक पहले से अधिक धनवान होता जाता है और श्रमिक पहले से अधिक गरीब| यही नहीं, अब पूंजीवाद श्रमिकों से छुटकारा पाने के लिए रोबोटिक्स, आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस और ऑटोमेशन का सहारा ले रहे हैं, और हमारी सरकार इन सारी प्रौद्योगिकी का दिल खोल कर स्वागत कर रही है|
विशेषज्ञों का मानना है कि जिस तरह से 1980 के दशक से लैंगिक समानता पर चर्चा करते करते अब महिलायें देशों को संभालने लगी हैं और बड़ी कंपनियों और बैंकों को संभाल रही हैं, वैसा ही अब हमें श्रमिकों के बारे में सोचना पड़ेगा| दुनियाभर में श्रमिक संगठन खड़े हो गए हैं, पर कहीं भी ये अपने हितों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि पूंजीवाद और सरकार एक ही सिक्के के दो पहलू बन गए हैं. इससे श्रमिकों की समस्याएं और पर्यावरण का दोहन – दोनों ही बढ़ गया है. विशेषज्ञों के अनुसार स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे जीवन से जुड़े मामलों को किसी भी हालात में बाजार के हवाले नहीं किया जाना चाहिए और दूसरी तरफ हरेक श्रमिक के लिए रोजगार गारंटी की व्यवस्था की जानी चाहिए|
पर, दुखद यही यह है कि सरकारें एक ही भाषण में लोकल को बढ़ावा देतीं हैं और दूसरी तरफ एफडीआई बढाने की बात करती हैं| एक तरफ जनता को राहत देने की बात करती हैं और दूसरी तरफ हरेक क्षेत्र को पूंजीपतियों की झोली में डाल देती हैं| एक तरफ वसुधैव कुटुम्बकम की बात की जाती है तो दूसरी तरफ अपने देश के ही करोड़ों मजदूर सडकों पर नंगे पाँव सैकड़ों किलोमीटर चलने को मजबूर किये जाते हैं| एक तरफ सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की बातें की जातीं हैं तो दूसरी तरफ देश की केवल एक प्रतिशत से भी कम आबादी तेजी से विकास करने लगती है| एक तरफ तो सैमसंग की मोबाइल फैक्ट्री का इतराते हुए उदघाटन किया जाता है तो दूसरी तरफ स्वदेशी का मंत्रोच्चार किया जाता है| दरअसल, हम पूंजीवाद में इतना रम गए हैं कि श्रमिकों की बस्ती, जहां देश की जनता रहती है, के आगे दीवार खडी कर देते हैं और दुनिया इस वीभत्स तमाशा पर ताली बजा कर प्रजातंत्र का गुणगान करती है|