दिल्ली दंगों में मुस्लिम औरतों पर हुए ज़ुल्मों को उन्ही की ज़ुबानी बयां करती है दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की रिपोर्ट

उत्तर पूर्वी दिल्ली में मुस्लिम औरतों ने अपनी सामाजिक एवं वित्तीय सुरक्षा को खो दिया, उनके घरों को लूटा और जला दिया गया, और दंगाई उनके गहनों, दस्तावेजों, रुपये-पैसों सहित दूसरी मूल्यवान चीज़ों को भी लूट कर ले गए...

Update: 2020-07-21 10:52 GMT

फोटो : जनज्वार डॉट कॉम

ऐमन खान और अर्पिता जया की रिपोर्ट

फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में मचे हिंसा के तांडव पर दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने सबूतों के आधार पर एक रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट मुस्लिम समुदाय के लोगों पर पूर्व-नियोजित ढंग से और चुन-चुन कर की गयी हिंसा में सरकारी और गैर-सरकारी तत्वों की मिली भगत पर रौशनी डालती है।

रिपोर्ट में पुलिस अधिकारियों के जानबूझ कर हस्तक्षेप नहीं करने और भारतीय जनता पार्टी के सदस्यों द्वारा हिंसा को बढ़ावा देने की बात भी कही गयी है। दिसंबर 2019 से मुस्लिम महिलाओं के नेतृत्व में चले नागरिकता संशोधन क़ानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों के बारे में बात करते हुए अनेक भाजपा मंत्रियों ने औरत जाति से नफरत करने वाली और सांप्रदायिक गाली नुमा शब्दावलियों का प्रयोग किया था।

उत्तर प्रदेश में एक जन सभा को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा था, 'मर्द तो लिहाफ़ ओढ़ कर सो रहे हैं, औरतों और बच्चों को नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन में जबरन भेजा जा रहा है।'

उनके इस वक्तव्य से यह साफ़ था कि वो विरोध प्रदर्शन के महिलाओं के सवैधानिक अधिकार को नहीं मानते हैं और साथ ही उनका यह वक्तव्य मुसलमान मर्दों की 'कम मर्दानगी' पर तंज को भी परिलक्षित करता था।

इतिहास गवाह है कि सांप्रदायिक दंगे की किसी भी घटना के दौरान किसी समुदाय से बदला लेने के लिए उस समुदाय की औरतों के जिस्म को शिकार बनाया जाता है। एक ब्राह्मणवादी व्यवस्था वाले समाज में, जहाँ औरतों के जिस्म को समाज के अभिमान और इज़्ज़त का पर्याय बना दिया जाता है, बार-बार औरतों को यौन हिंसा का शिकार होना पड़ता है ताकि दबंग समुदाय अपनी ताक़त और नियंत्रण नंगा प्रदर्शन कर सके।

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उत्तरी-पूर्वी दिल्ली में हिंसा के तांडव की घटना एक बार फिर ताक़त के इस प्रदर्शन को बेहयाई के साथ परिलक्षित करती है। हिंसा का इसी तरह का सिलसिला 2002 के गुजरात और 2013 के मुज़फ़्फरनगर में देखा गया था।

उत्तर पूर्वी दिल्ली में मुस्लिम औरतों ने अपनी सामाजिक एवं वित्तीय सुरक्षा को खो दिया, उनके घरों को लूटा और जला दिया गया, और दंगाई उनके गहनों, दस्तावेजों, रुपये-पैसों सहित दूसरी मूल्यवान चीज़ों को भी लूट कर ले गए।

भीड़ द्वारा आक्रमण

रिपोर्ट में कहा गया है, भीड़ ने 'मुसलमान' पहचान बताने वाले हर चिन्हों को नेस्तनाबूद कर दिया। औरतों पर आक्रमण केवल उनके स्त्रीलिंग होने की वजह से ही नहीं बल्कि खासकर उनकी पहचान मुसलमान होने के चलते होता है। एक महिला याद करते हुए बताती है, 'बहुत सारी बहनों ने मुझे बताया कि जब वे भाग रही थीं तब उनके बुरखे उतार दिए गए, उनके हिजाब खींच लिए गए। मैं, मेरे बच्चे और कई दूसरे लोग मेरे घर की छत पर छुपे रहे।'

औरतों द्वारा दी गयी बहुत सारी गवाहियों में यह बात सामने आई कि हथियारों से लैस हिंदुत्ववादी भीड़ उनके खिलाफ औरत जाति से नफरत करने वाली और सांप्रदायिक गाली नुमा शब्दावलियों का प्रयोग कर रही थी। औरतों ने बताया कि भीड़ द्वारा उन्हें माँ-बहन की गालियां दी जा रही थीं। एक अन्य औरत ने बताया, 'उनके पास लाठियाँ थीं, तलवारें थीं, वे चिल्लाते जा रहे थे 'जय श्री राम' और 'मुल्लों को मारो'।

रिपोर्ट में ज़िक्र की गयी गवाहियां बताती हैं कि कैसे लैंगिक हिंसा के लिए आज़ादी के नारे को मुहावरे के रूप में इस्तेमाल कर भीड़ ने औरतों को डराने का काम किया। औरतों पर आक्रमण करते हुए भीड़ दोहराती रही : 'तुम्हें 'आज़ादी' चाहिए? आओ हम तुम्हें आज़ादी देंगे !'

शिव विहार में जब औरतें अपने शौहरों और बेटों को बचने घर से बहार आईं तो भीड़ द्वारा उन्हें शारीरिक हिंसा और यौन उत्पीड़न का शिकार बनाया गया।

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि भीड़ ने औरतों और बच्चों पर तेज़ाब भी फेंका। अनेक औरतों ने यह भी कहा कि भीड़ द्वारा मुसलमानों को लगातार 'आतंकवादी', 'देशद्रोही' और 'विदेशी' कहा जा रहा था।

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रिपोर्ट में कहा गया है, 'मुसलमानों को एक समुदाय के रूप में परिभाषित करने वाली यह भाषा मुख्यधारा के मीडिया द्वारा बराबर इस्तेमाल की जाती है और अब यही भाषा समुदाय पर 'चस्पां' कर दी गयी है। भीड़ द्वारा भी इसी भाषा का इस्तेमाल किया गया था।'

पुलिस की भूमिका

चाँद बाग़ धरना-स्थल पर विरोध प्रदर्शन करने वाली औरतों ने दावा किया कि उन्हें मर्द पुलिस अधिकारियों ने पीटा था। इलाके में जब भीड़ लोगों पर आक्रमण कर रही थी तो पुलिस लोगों की मदद के लिए आगे नहीं आई।

अनेक औरतों को गंभीर चोटें लगीं। चाँद बाग़ धरना स्थल पर पुलिस लाठी की मार खाने से एक गर्भवती औरत को तो 35 टाँके लगवाने पड़े। उसने बताया, 'मैं गर्भवती हूँ, अश्रु गैस का गोला एकदम मेरे सामने फटा, और तब मैंने देखा कि भीड़ चली आ रही है जिसमें शामिल मर्द 'जय श्री राम' और 'भारत माता की जय' के नारे लगा रहे हैं।

पुलिस ने मुझ पर वार किया और वहां कुछ लोगों ने 'सेना की वर्दी' पहनी थी, वे लोग भी हमें डंडों से मार रहे थे। एक पुलिस वाले ने पत्थर उठा कर मेरे सर पे दे मारा। मैं बेहोश हो गयी। उन्होंने सोचा कि मैं मर चुकी हूँ, इसलिए वे चले गए। मेरा सिर खून से लथपथ था। किसी तरह मैं अपने घर पहुँची। पुलिस ने गली में एम्बुलेंस आने की भी इजाज़त नहीं दी।

बहुत दिक़्क़तों के चलते हम अल-हिन्द हॉस्पिटल पहुंचे जहां मेरे सिर पर 35 टाँके लगाए गए। मैं बहुत ज़्यादा डरी हुई थी, उनके ये शब्द लगातार मेरे दिमाग़ में कौंध रहे थे: 'हिंदुस्तान हमारा है, एक भी मुसलमान नहीं रहेगा यहां'।

भीड़ द्वारा की जा रही हिंसा की भयावहता और इस सब के बीच पुलिस की निष्क्रियता को बयां करती एक दूसरी औरत कहती है: 'मुल्लों को मारो' और 'हम देंगे आज़ादी' जैसे नारों के शोरगुल से मेरी नींद खुल गई ....मेरी आँखों के सामने उन्होंने एक जवान लड़की के चेहरे पर एसिड फेंक दिया। हम जितनी दूर दौड़ सकते थे उतनी दूर दौड़ने की हमने कोशिश की, और अनेकों बार पुलिस को संपर्क करने की कोशिश की,शुरू में उन्होंने फोन नहीं उठाया.....आखिरकार जब उन्होंने फोन उठाया तो हमसे बोले, 'यह ऐसा मुद्दा है जिस पर हम कोई कार्यवाई नहीं कर रहे हैं। आप खुद ही इससे निपट लो।'

एक नाबालिग लड़की को पुलिस द्वारा घसीटते हुए ले जाने की प्रत्यक्षदर्शी एक औरत ने जब उस लड़की को बचाने की कोशिश की तो उसके सिर पर प्रहार किया गया। जब उसे होश आया तो उसने देखा कि आसपास बहुत सारी औरतें चोटिल हैं। '...तभी पुलिस वालों ने अपनी पैंट्स नीचे करीं और अपने जननांगों की तरफ इशारा करते हुए औरतों से बोले कि तुम 'आज़ादी' चाहती थीं ना, तो हम आ गए हैं तुम्हें 'आज़ादी' देने।'

मनोवैज्ञानिक सदमा

सबूत खोजने वाली टीम ने ऐसी अनेकों औरतों के बयानों को दर्ज़ किया जो हिंसा के दौरान और बाद में भी डर कर छुपी हुई थीं। कई दिनों तक चले शारीरिक हिंसा के तांडव ने इस भावना, और उससे पैदा हुए मानसिक आघात, को कहीं ज़्यादा गहराई तक बैठा दिया कि अपने ही देश में उन्हें एक 'बाहरी' के रूप में देखा जाता है।

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औरतों ने विस्तार से यह भी बताया कि उनके पास शब्द नहीं थे अपने बच्चों को उस हिंसा और बर्बादी को समझाने के लिए जिसने उनकी ज़िन्दगियों को हिला कर रख दिया था, और आखिर क्यों उनकी किताबों और खिलौनों को आग के हवाले कर दिया गया था।

खजूरी ख़ास में एक औरत ने बताया, 'मैं मान कर चल रही थी कि अपने बच्चों के साथ मैं अपने घर की छत पर सुरक्षित हूँ, लेकिन एक समय ऐसा आया कि मुझे अपने बच्चों को बचा पाना असंभव हो गया और उस दिन मेरी सभी अवधारणाएं झूठी साबित हो गईं। पत्थर-बाज़ी से अपने बच्चों को बचाने की ख़ातिर मुझे तीन मंज़िला इमारत से उन्हें नीचे फेंकना पड़ा।' उसने यह भी बताया कि घृणा का मंज़र और मारे जाने का ख़ौफ़ आज भी उस इलाके में मौजूद है।

देशव्यापी लॉकडाउन होने के बावजूद औरतों पर ख़त्म ना होने वाली हिंसा जारी है क्योंकि राज्य द्वारा धरने पर बैठी प्रदर्शनकारी औरतों को अपराधी घोषित करने का सिलसिला आज भी चालू है, इनमें से बहुतों को दमनात्मक क़ानून उपा (UAPA) के तहत गिरफ्तार भी किया गया है।

रिपोर्ट द्वारा हासिल किये गए सबूत हिंसा का औरतों पर होने वाले असर से तुरंत निपटने की ज़रुरत पर जोर देते हैं और हिंसा की शिकार हुयी औरतों तथा बच्चों की मदद करने की दिशा में ज़रूरी कदम उठाने की ताकीद करते हैं। उठाये जाने वाले कदमों में हिंसा करने वालों के खिलाफ यौन हिंसा की शिकायत दर्ज़ करना भी शामिल है।

( ऐमन खान और अर्पिता जया नई दिल्ली स्थित क़्विल फाउंडेशन में शोधार्थी हैं। उनकी यह रिपोर्ट 'द वायर' से साभार ली गई है। ) 

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