मोदी के दस सालों के शासन में अपने वजूद की तलाश में भटक रहे मुसलमान, बना दिये गये हैं दूसरे दर्जे के नागरिक !

पसमांदा आंदोलन का एक नारा है “हिन्दू हो या मुसलमान पिछड़ा-पिछड़ा एक समान”। यह पसमांदा आंदोलन की मूल आत्मा हैं। यह नारा धार्मिक पहचान की जगह सभी समुदायों के सामाजिक या जातीय रूप से संगठित करने की वकालत करता है। यह एक प्रगतिशील नारा है, लेकिन भाजपा और संघ इसका अपनी तरह से फायदा उठाना चाहते हैं। हालांकि उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं होगा, क्योंकि पसमांदा आन्दोलन के नेता इस बात को लेकर सचेत नजर आ रहे हैं....

Update: 2024-06-02 14:11 GMT

Pasmanda Muslims: एक बार फिर राजनीतिक बिसात पर पसमांदा मुस्लिम

जावेद अनीस की टिप्पणी

Muslim in Modiraj : भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आबादी का घर है। साल 2014 में बहुसंख्यकवादी भारतीय जनता पार्टी के पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने के बाद से भारत के मुसलमानों की यात्रा उथल-पुथल भरी रही है। इस दौरान देश में एक नागरिक के तौर पर उनकी जगह और हैसियत कम हुई है और वे अपने ही वजूद की तलाश में भटकते रहे हैं, यह सबकुछ एक पूर्वनिर्धारित योजना के तहत अंजाम दिया गया है। 2014 से पहले भी मुसलमानों को अक्सर भेदभाव, पूर्वाग्रह और हिंसा का सामना करना पड़ता था, लेकिन अब इसका स्वरूप मुख्यधारा का और संस्थागत हो चुका है।

भाजपा पिछले एक दशक से केंद्र की सत्ता में है। हमेशा से ही उसकी छवि मुस्लिम विरोधी रही है। लेकिन इस दौरान उसपर यह आरोप और गहरा होता गया है। इन आरोपों के पीछे ठोस वजूहात भी हैं जिनकी जड़ें उसके हिन्दुत्व की मूल विचारधारा में निहित है। पिछले दस सालों के भाजपा के शासनकाल के दौरान मुसलमान लगातार हाशिए पर गए हैं, उनके खिलाफ डर व असुरक्षा का माहौल बना रहा है और वे लगभग दूसरे दर्जे के नागरिक बना दिए गये हैं।

हर क्षेत्र में दूसरा दर्जा

हिन्दुत्व जो भारत में राजनीतिक रूप से कभी एक सीमांत विचारधारा थी, अब मुख्यधारा है। इस विचारधारा के मूल में 1923 में प्रकाशित विनायक दामोदर सावरकर द्वारा लिखित पुस्तिका “हिन्दुत्व : हिन्दू कौन है?” में है जिसमें “पुण्यभूमि” और “पितृभूमि” सिद्धांत पेश करते हुये बताया गया है कि ‘हिंदू ही इस धरती के “सच्चे पुत्र हैं, क्योंकि उनकी पवित्र भूमि भारत में है, जबकि ईसाई और मुस्लिमों की पवित्र भूमि इसके बाहर है।’

आज भी सावरकर की यही थ्योरी हिन्दू राष्ट्रवादियों को संचालित करती है जो हम उनके नारों और व्यवहार में देख सकते हैं। इस थ्योरी के चलते पिछले दस वर्षों में भारत की मुस्लिम आबादी को बहुत तेजी से हाशिए पर धकेला गया है। इस दौरान ऐसे विवादास्पद नीतियों को आगे बढ़ाया है, जो स्पष्ट रूप से मुसलमानों के अधिकारों की अनदेखी करते हैं और उनकी धार्मिक स्वतंत्रता को वंचित करने का इरादा रखते हैं।

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इस दिशा में दिसंबर 2019 में, संसद में पारित ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम’ एक ऐसा कानून है जो नागरिकता के सवाल पर पहली बार धार्मिक मानदंड लागू करता है और बहुत ही खुले रूप से अपने दायरे से मुसलमानों को बाहर करता है। इसके पीछे मोदी सरकार का तर्क है कि ‘यह कानून तीन मुस्लिम बहुल पडोसी मुल्कों पाकिस्तान,बांग्लादेश और अफगानिस्तान में उत्पीड़न का सामना करने वाले कमजोर धार्मिक अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए बनाया गया है जिसमें हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शामिल हैं।’

इस दौरान मुसलमानों को दंडित करने के लिए संविधान और न्यायालय से इतर एक प्रणाली विकसित की गयी है जिसे “बुलडोजर न्याय” कहा जाता है, इसके तहत बिना किसी उचित कानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुये मुस्लिम नागरिकों की संपत्तियों जिसमें उनकी घर और आजीविका दोनों शामिल हैं को निशाना बनाया जाता है। यह पूरी प्रक्रिया बहुत अन्यायपूर्ण, गैरकानूनी और भेदभावपूर्ण है और एक प्रकार से कानूनी बहिष्करण है।

पिछले एक दशक के दौरान मुस्लिम समुदाय राजनीतिक रूप से और हाशिये पर गया है साथ ही देश के संसद और राज्यों के विधानसभाओं में उनका प्रतिनिधित्व भी कम हुआ है। मुसलमान राजनीतिक रूप से लगभग अछूत बना दिए गये हैं और राजनीतिक दलों द्वारा उनके मसलों पर बात करने को राजनीतिक नुकसान के तौर पर देखा जाने लगा है। अब भाजपा के अलावा अन्य राजनीतिक दल भी मुस्लिम प्रत्याशी उतारने में कतराते हैं। यह स्थिति हिन्दुतत्व के विचारधारा की एक बड़ी जीत है और शायद निर्णायक भी।

ध्रुवीकरण के औजार

भारतीय मुसलमान हमेशा से ही दक्षिणपंथियों के लिए ध्रुवीकरण के प्रमुख औजार की तरह रहे हैं। 2014 के बाद इस काम के लिए सत्ता प्रतिष्ठानों का उपयोग भी किया जाने लगा है। इसका अभी तक का सबसे बेहतर उपयोग भाजपा के वर्तमान शीर्ष नेतृत्व द्वारा किया गया है और इसमें भी सबसे बड़ा नाम नरेंद्र मोदी का है। चुनाव जीतने के कई तरीके हो सकते हैं जिसमें सबसे लेकिन खतरनाक तरीका नागरिकों को “हम” और “वे” के खाके में बांट कर डर की राजनीति से चुनाव लड़ना है, वे अपने चुनावी अभियानों में यही करते हुये दिखलाई पड़ते हैं, कभी नेपथ्य से तो कभी खुले रूप से।

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वर्ष 2024 के लोकसभा के अपने चुनावी अभियान में वे यह डर फैलाने की कोशिश करते हैं कि विपक्ष के सत्ता में आने पर बहुसंख्यक हिन्दुओं की संपत्ति को छीन कर “ज्यादा बच्चे वालों को” और “घुसपैठियों” को दी जाएगी। यहां यह समझना जरूरी है कि मोदी द्वारा अपने देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक के खिलाफ ऐसी बात करना सिर्फ चुनावी अभियान तक सीमित नहीं है, बल्कि यही उनका राजनीतिक विजन है।

इसी कड़ी में लोकसभा चुनाव के बीच प्रधानमंत्री की इकोनॉमिक एडवाइज़री काउंसिल द्वारा भारत की “जनसंख्या में अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी” पर एक वर्किंग पेपर जारी किया जिसकी टाइमिंग और मंशा पर सवाल है। इस वर्किंग पेपर के आधार पर दो नैरेटिव पेश करने की कोशिश की गयी है, पहला यह कि 1950 से लेकर 2015 के बीच हिन्दुओं के मुकाबले मुसलमानों की आबादी बहुत तेजी से बढ़ी है और दूसरा मुसलामानों की बढ़ी हुई आबादी यह साबित करती है कि भारत में अल्पसंख्यक न केवल सुरक्षित हैं, बल्कि फल-फूल रहे हैं। यह रिपोर्ट मुसलामानों की बढ़ती आबादी को लेकर उस पुराने दुष्प्रचार अभियान को मजबूत करने की कोशिश करती है जो संघ परिवार का पुराना अभियान रहा है। इस रिपोर्ट में आंकड़ों के वैज्ञानिक विश्लेषण के सभी मानकों का उल्लंघन किया गया है।

बांटो और बहिष्कृत करो की नीति

“बांटो और राज करो” की नीति की पुरानी पड़ चुकी। पिछले एक दशक के दौरान “बांटो और बहिष्कृत करो” की नीति अपनाई गई है जिसमें मुसलमानों को ‘दलितों’,‘पिछड़ों’ के साथ साथ खुद मुसलमानों को आंतरिक रूप से विभाजित करने की कोशिशें की गई हैं। हम इसे हिन्दुत्वादियों की सोशल इंजीनियरिंग भी कह सकते हैं। इसलिए 23 अप्रैल 2024 के दिन राजस्थान के टोंक में जब नरेंद्र मोदी अपने एक चुनावी रैली के दौरान यह कहते हैं कि “कांग्रेस पार्टी दलितों और पिछड़ों का आरक्षण छीनकर मुसलमानों को देना चाहती है।” तो उनकी मंशा पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है, दरअसल ऐसा करते हुये वे मंडल की राजनीति पर प्रहार कर रहे होते हैं जिसके कोर में दलित, आदिवासी और पिछड़ों के साथ मुसलमान शामिल रहे हैं। पिछले एक दशक के दौरान हिन्दुत्ववादी राजनीति इस कोर को भेदने में काफी हद तक कामयाब रही है और आज ओबीसी उनकी राजनीति के सबसे बड़े वाहक हैं।

परम्परागत रूप से भाजपा शिया मुसलमानों को आकर्षित करने की कोशिश करती रही है और जिसमें हालिया सबसे बड़े मुस्लिम चेहरों जैसे मुख्तार अब्बास नकवी, शाहनवाज़ हुसैन जैसे नेता शामिल रहे हैं। लेकिन अब भाजपा की इस रणनीति में बदलाव देखने को मिल रहा है, साल 2022 में भाजपा द्वारा पसमांदा मुस्लिमों के लिए स्नेह यात्रा की घोषणा की गयी थी, इसके बाद जनवरी 2023 में भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेंद्र मोदी द्वारा मुस्लिम समुदाय के बोहरा, पसमांदा और पढ़े-लिखे लोगों तक सरकार की नीतियां लेकर जाने की बात की गयी।

गौरतलब है कि जाति भारतीय उपमहाद्वीप की एक पुरानी बीमारी है। इलाकाई और सांस्कृतिक विभिन्नताओं के बावजूद जाति व्यवस्था इस क्षेत्र में लगभग सारे धार्मिक समूहों में पायी जाती है। हालाँकि इस्लाम में जाति की कोई व्यवस्था नहीं है लेकिन भारतीय मुसलमान भी जातीय विषमता के शिकार हैं।

ऐसा माना जाता है कि भारत के मुस्लिम समाज का 85 फीसदी हिस्सा पसमांदा है। “पसमांदा” का अर्थ है ‘पीछे छूटे हुए' या ‘दबाए गये लोग।’ दरअसल पसमांदा शब्द का उपयोग मुसलमानों के बीच दलित और पिछड़े मुस्लिम समूहों के संबोधन के लिए किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि ज्यादातर पसमांदा मुसलमान हिन्दू धर्म से कन्वर्ट होकर मुसलमान बने हैं, लेकिन वे अपनी जाति से पीछा नहीं छुड़ा सके हैं। इनमें से अधिकतर की सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति हिन्दू दलितों एवं आदिवासियों के सामान या उनसे भी बदतर है। संख्या में अधिक होने के बावजूद पसमांदा मुसलमानों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी काफी कम है। इसी गैरबराबरी को ध्यान में रखते हुये पसमांदा मुस्लिम लंबे समय से अपनी सामाजिक-आर्थिक बेहतरी के लिए संघर्ष भी कर रहे हैं।

आजादी से पहले अब्दुल कय्यूम अंसारी और मौलाना अली हुसैन असीम बिहारी जैसे लोगों द्वारा इसकी शुरुआत की गयी। मौजूदा दौर में पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर जैसे नेता इस मुहिम की अगुवाई कर रहे हैं जिन्होंने “अखिल भारतीय पसमांदा मुस्लिम समाज” की स्थापना की है और “मसावात की जंग”जैसी किताब लिख चुके हैं। इस सिलसिले में मसूद आलम फलाही की किताब “हिंदुस्तान में जात-पात और मुसलमान” भी काबिले जिक्र है जो भारत के मुस्लिम समाज के अंदर व्याप्त जातिगत ऊंच-नीच और भेदभाव का बहुत प्रभावी तरीके से खुलासा करती है।

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बहरहाल देश की तकरीबन सभी राजनीतिक पार्टियों द्वारा पसमांदा मुसलमानों की उपेक्षा की गयी है, लेकिन अब भाजपा जैसी हिन्दुत्ववादी पार्टी ने इन्हें अपने साथ जोड़ने का इरादा जताया है, इसके पीछे की मंशा “बांटो और बहिस्कृत करो” की नीति ही है। दरअसल भाजपा हिन्दू एकता के अपने विराट प्रोजेक्ट के तहत पहले ही ओबीसी के ग़ैर-यादव जातियों और ग़ैर जाटव दलितों के बीच अपना पैठ बना चुकी है, अब पसमांदा मुसलमानों को अपनी तरफ आकर्षित करके अपने सोशल इंजीनियरिंग को अभेद बना देना चाहती है। इसकी कवायद लम्बे समय से चल रही है, 2014 में सत्ता में आने के बाद भाजपा द्वारा पहली बार एक पसमांदा मुस्लिम अब्दुल रशीद अंसारी को पार्टी के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक मोर्चा का अध्यक्ष बनाया गया। इससे पहले भाजपा अधिकतर शियाओं और कुछ हद तक बरेलवी मुसलमानों पर ही ज्यादा ध्यान देती थी। इसी प्रकार से उत्तर प्रदेश में दूसरी बार सत्ता हासिल करने के बाद इकलौते मुस्लिम मंत्री के रूप में दानिश अंसारी को जगह दी गयी जो एक पसमांदा मुसलमान हैं।

लेकिन भाजपा की यह रणनीति क्या केवल पसमांदा मुसलमानों के वोट हासिल करने की रणनीति है या इससे कुछ अधिक है। गौरतलब है भाजपा एक विचारधारा आधारित पार्टी है जिसका वैचारिक आधार आरएसएस के हिंदुत्व की विचारधारा पर निर्भर है। इसीलिए एक पार्टी के तौर पर वो लम्बे समय की की योजना बनाकर काम करती है और इसके केंद्र में हिंदुत्व की विचारधारा निहित होती है। इसीलिए भाजपा पसमांदा मुसलमानों तक अपनी पहुँच बनाकर एक तीर से कई निशाने लगाना चाहती है।

सबसे पहला और बाहरी तौर पर दिखाई पड़ने वाला निशाना तो उनका वोट हासिल करना है, साथ ही मुस्लिम समुदाय के एक हिस्से के भाजपा से जुड़ने के और भी फायदे हैं। इससे मुस्लिम वोटों का बिखराव होगा और समुदाय का एक हिस्सा चुनावों में जातिगत आधारों पर बंटकर वोट कर सकता है। मुस्लिम वोटों का बिखराव का सबसे बड़ा फायदा भाजपा को ही मिलेगा। इस पहल के पीछे एक और छुपा मकसद हो सकता है जो संघ के लंबे समय की रणनीति का एक हिस्सा है। संघ प्रमुख मोहन भागवत लम्बे समय से यह दोहराते रहे हैं कि भारत में रहने वाले सभी लोग हिन्दू हैं भले ही उनकी पूजा और इबादत का तरीका अलग हो। यहाँ संघ द्वारा “हिन्दू” को रहन-सहन के तरीके और संस्कृति के तौर पर परिभाषित किया जाता है। आजकल संघ और भाजपा के लोग यह कहते हुये भी दिखलाई पड़ते हैं कि हिन्दुओं और मुसलमानों (खासकर पसमांदा मुसलमानों) के पूर्वज एक ही हैं।

पसमांदा आंदोलन का एक नारा है “हिन्दू हो या मुसलमान पिछड़ा-पिछड़ा एक समान”। यह पसमांदा आंदोलन की मूल आत्मा हैं। यह नारा धार्मिक पहचान की जगह सभी समुदायों के सामाजिक या जातीय रूप से संगठित करने की वकालत करता है। यह एक प्रगतिशील नारा है लेकिन भाजपा और संघ इसका अपनी तरह से फायदा उठाना चाहते हैं। हालांकि उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं होगा, क्योंकि पसमांदा आन्दोलन के नेता इस बात को लेकर सचेत नजर आ रहे हैं।

मुसलमानों के लिए केंद्र में भाजपा की एक जीत के मायने क्या हो सकते हैं? इस बात को असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा द्वारा बिहार के सीवान में दिए गये उस चुनावी भाषण से समझा जा सकता है, जिसमें वे कहते हैं कि ‘अगर एनडीए 400 सीटों के साथ सत्ता में लौटती है तो समान नागरिक संहिता लाया जाएगा, मुल्ला पैदा करने वाली दुकानें यानी मदरसे बंद होंगे, मुस्लिम आरक्षण खत्म होगा और चार बार शादी करने के कारोबार को समाप्त कर दिया जाएगा।’

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